नई दिल्ली/बेंगलुरू: भारत के उत्तरी हिस्सों में जैसे ही हवा की क्वालिटी बिगड़ी और त्यौहारी सीज़न में राष्ट्रीय राजधानी में कोविड-19 महामारी की एक नई लहर सामने आई, सारा ध्यान पटाख़ों और देशभर में उनकी बिक्री पर केंद्रित हो गया.
कुछ राज्य सरकारों ने पूरी पाबंदी का ऐलान कर दिया, लेकिन फिर उनमें से दो ने, जहां भारतीय जनता पार्टी का शासन है, राजनीतिक दबाव में आकर अपने फैसलों को आंशिक अथवा पूर्ण रूप से बदल दिया.
इसी हफ्ते नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने उन शहरों में, जहां पिछले साल नवंबर में हवा की औसत क्वालिटी ‘ख़राब’ या उससे आगे थी, 30 नवंबर तक तक सभी तरह के पटाख़ों की बिक्री पर रोक लगा दी. कोलकाता हाईकोर्ट ने भी दख़ल देते हुए, पटाख़ों पर बैन लगा दिया, जो पश्चिम बंगाल में दिवाली और छठ त्यौहारों को कवर करता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस आदेश को बनाए रखा है.
ये उत्सव भारत के 5,000 करोड़ के पटाख़ा उद्योग का आधार है. इसका मतलब ये है कि पटाख़ों पर पाबंदी के पीछे धार्मिक और सियासी दोनों प्रभाव रहे हैं. हिंदू संगठनों ने महत्वपूर्ण हिंदू उत्सवों के मौक़े पर, पटाख़ों पर पाबंदी लगाने पर सवाल खड़े किए हैं.
लेकिन इसके पीछे आर्थिक और स्वास्थ्य के मुद्दे भी हैं, जिससे संकेत मिलता है कि नीति निर्माता, मुश्किल विकल्पों से जूझ रहे हैं.
पटाखा निर्माता और व्यापारी बिक्री में गिरावट और बढ़ते घाटे से जूझ रहे हैं, और निर्माण इकाइयों में लगे लोगों पर रोज़ी-रोटी का ख़तरा है.
साथ ही स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताएं भी हैं, और बहुत से लोगों को डर है कि पटाख़ों और उनसे पैदा होने वाले प्रदूषण से, महामारी से जूझ रहे लोगों की सेहत और बिगड़ सकती है.
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धार्मिक और राजनीतिक मजबूरियां
पटाख़े दिवाली का पर्याय हैं, जो अधिकांश हिंदू आबादी का एक प्रमुख त्यौहार है. सरकारों की ओर से पटाख़ों पर लगाई गई किसी भी पाबंदी पर, हिंदू संगठनों की ओर से राजनीतिक प्रतिक्रिया होती है, और व्यापार संघ भी विरोध करते हैं, जिनका पारंपरिक रूप से बीजेपी से क़रीबी जुड़ाव है.
फिलहाल, पटाख़ों पर पाबंदी पश्चिम बंगाल, राजस्थान, ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे ग़ैर-बीजेपी शासित राज्यों, और केंद्र-शासित क्षेत्र दिल्ली में लागू है.
पाबंदी घोषित करने के बाद बीजेपी-शासित हरियाणा ने, इसमें आंशिक ढील देते हुए दिवाली के दिन 2 घंटे के लिए, पटाख़े जलाने की अनुमति दे दी. एक और बीजेपी शासित राज्य कर्नाटक ने भी, पाबंदी को वापस ले लिया, और ‘जनता के दबाव’ का हवाला देते हुए ग्रीन पटाख़ों के इस्तेमाल की इजाज़त दे दी.
लेकिन, आप-शासित दिल्ली को पाबंदी बनाए रखने के लिए, व्यापार इकाइयों और बीजेपी नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ रहा है.
विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने सवाल किया कि पटाख़े हिंदू त्यौहारों पर ही क्यों बैन किए जाते हैं. वीएचपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल ने पूछा, ‘मैं उन सबसे पूछना चाहता हूं, जो किसी न किसी बहाने हमारे त्यौहारों पर बंदिशें या पाबंदियां लगाना चाहते हैं कि क्या ये पटाख़े बाद में प्रदूषण नहीं फैलाएंगे? उन पर प्रतिबंध हिंदू त्यौहारों के समय ही क्यों लगता है? उन पर पूरे समय प्रतिबंध क्यों नहीं रहता?
बंसल ने आगे कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने कुछ प्रतिबंध लगाए थे, और अधिकारियों को ज़िम्मेवार ठहराया जाना था. क्या वो बंदिशें काफी नहीं हैं? जो लोग दावा कर रहे हैं कि पटाख़ों पर पाबंदी से प्रदूषण कम हो जाएगा, क्या वो गारंटी दे सकते हैं कि बाद में प्रदूषण नहीं होगा. हिंदू समाज पर्यावरण अनुकूल है- हम न केवल सुरक्षा करते हैं, बल्कि पूजा भी करते हैं’.
स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्वनी महाजन ने कहा कि पटाख़ों के इस्तेमाल का दिवाली उत्सव से गहरा नाता है. उन्होंने सवाल किया कि सूबे सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत ग्रीन पटाख़ों की अनुमति क्यों नहीं दे रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘इंडस्ट्री और वैज्ञानिक अपना काम कर चुके हैं और ग्रीन पटाख़े तैयार कर चुके हैं, जिन्हें सीएसआईआर-एनईईआरआई द्वारा सत्यापित भी किया जाता है. इनमें पोटेशियम नाइट्रेट और सल्फर नहीं डाला जाता, और दूसरे प्रदूषक भी कम से कम रखे जाते हैं. ये एक ग़लत धारणा है कि सभी पटाख़े प्रदूषण फैलाते हैं. दरअस्ल ये चीनी पटाख़े हैं जो ज़्यादा प्रदूषण करते थे’.
उन्होंने कहा, ‘अब चूंकि केंद्र सरकार ने चीनी पटाख़ों का आयात, कारगर तरीक़े से बैन कर दिया है, इसलिए अधिक प्रदूषण की समस्या काफी हद तक सुलझ गई है; और अजीब बात ये है कि प्रदूषण नियंत्रण के लिए ज़िम्मेदार किसी एजेंसी की, इस पाबंदी को लगाने में कोई भूमिका नहीं थी. हमें प्रदूषण के सभी पहलुओं को देखना होगा, लोगों की जीविका को देखना होगा, और इस बात को भी देखना होगा कि पटाख़ों का दिवाली मनाने से गहरा नाता है’.
उन्होंने आगे कहा, ‘दिल्ली पटाख़ों की वजह से गैस चैम्बर नहीं बन रही है, चूंकि वो इन सब दिनों में नहीं जलाए जाते, ऐसा सरकार और अथॉरिटीज़ की निष्क्रियता की वजह से हो रहा है’.
पटाख़ों की अर्थव्यवस्था
एक अनुमान के मुताबिक़ भारत का पटाख़ा उद्योग क़रीब 5,000 करोड़ रुपए का है, जिसका अधिकांश उत्पादन तमिलनाडु के शिवकाशी में होता है. लेकिन, सरकार की उलट-पुलट नीतियों और अदालतों की दख़लंदाज़ी ने, इस पर एक संकट खड़ा कर दिया है.
2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत, ग्रीन पटाख़ों से जुड़ी अनिश्चितता की वजह से भी, इंडस्ट्री की कोई मदद नहीं हो पाई है.
8 नवंबर को एक बयान में, कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स के अध्यक्ष सीबी भारतिया ने कहा कि पटाख़ा उद्योग क़रीब 10 लाख लोगों को रेज़गार देता है, और इसके उत्पादन का अनुमान तक़रीबन 5,000 करोड़ रुपए है. उनका कहना था, ‘पटाख़ों पर कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण इंडस्ट्री अपनी मौत ख़ुद मर रही है’.
तमिलनाडु फायरवर्क्स एंड एमॉर्सेस मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (टीएनएफएएमए) का अनुमान है कि शिवकाशी में 1,000 लाइसेंसशुदा पटाख़ा इकाई हैं, जिनका मार्केट साइज़ 2,500 करोड़ से 3,000 करोड़ के बीच है. लेकिन बहुत सी इकाइयां ऐसी हैं जो पंजीकृत नहीं हैं, और शेड्स तथा छोटे घरों से चलती हैं.
टीएनएफएएमए अध्यक्ष पी गणेशन ने कहा, ‘औसत रूप से उत्पादन में 30 प्रतिशत गिरावट आई है’. उन्होंने आगे कहा कि त्यौहारी सीज़न में बहुत से निर्माता भारी क़र्ज़ ले लेते हैं. अगर उनके पटाख़े नहीं बिकते, तो उन्हें भारी नुक़सान उठाना होगा, जिसका शिवकाशी की अर्थव्यवस्था, और उस पर आश्रित लोगों पर बुरा असर पड़ेगा.
शिवकाशी में ऐसे बहुत से निर्माता ग्रीन पटाख़े बना रहे हैं, हालांकि बहुतों को ग्रीन पटाख़ों को सही ढंग से बनाने का फॉर्मूला नहीं मिल पा रहा है.
स्वास्थ्य की चिंता
अदालतों और सरकार दोनों की ओर से पटाख़ों के इस्तेमाल पर बैन, हवा की ख़राब क्वालिटी, और कोविड मरीज़ों पर इसके प्रतिकूल असर के डर से लगाया जा रहा है.
दिल्ली सरकार ने पटाख़ों को बैन करने का फैसला ऐसे समय किया, जब पंजाब जैसे राज्यों में पराली जलाने की वजह से, लगातार कई दिन तक शहर की हवा की क्वालिटी, बिगड़कर गंभीर श्रेणी में पहुंच गई.
कर्नाटक के मामले में, शुरुआती फैसला राज्य स्तर की कोविड सलाहकार समिति की सलाह के बाद लिया गया था.
कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री के सुधाकर ने कहा कि कमेटी ने पटाख़ों पर पाबंदी की मांग की थी, चूंकि उनसे लोगों की सेहत पर विपरीत असर पड़ेगा, ख़ासकर उन लोगों पर जो कोविड से संक्रमित हैं, या उससे उबर चुके हैं. सर्दियों का आगमन और प्रदूषण स्तर इस ख़तरे को और बढ़ा रहे हैं.
एक सीनियर डॉक्टर ने, जो कर्नाटक में कोविड सलाहकार टीम का हिस्सा हैं, नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘इससे उन लोगों पर असर पड़ेगा, जिन्हें सांस की बीमारी है, और वो वायरस का शिकार हो सकते हैं’.
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