कोयले की खान में शायद ‘कैनरी’ नाम की चिड़िया गा रही है— ‘एसबीआई कार्ड्स ऐंड पेमेंट्स’ ने खबर दी है कि केवल एक तिमाही में उसके बुरे ऋण का प्रतिशत तीन गुना बढ़ गया है. अगर ‘मोराटोरियम’ यानी अस्थायी रोक का आदेश न जारी किया गया होता और गड़बड़ी की पहचान पर रोक लगी होती तो बुरे ऋण का अनुपात पांच गुना से ज्यादा बढ़ गया होता, 1.4 प्रतिशत से बढ़कर 7.5 प्रतिशत तक. कुल ऋण में क्रेडिट कार्ड के ऋण का प्रतिशत बहुत कम है. लेकिन यह कर्ज महंगा है और इसके भुगतान में कोताही का मतलब है कि निजी वित्तीय व्यवस्था संकट में है. तो, इस नई चीज़ का क्या कोई बड़ा महत्व है?
पिछले दो वर्षों में सरकारी बैंकों ने कुछ निजी बैंकों की नकल की और उद्योगों को कर्ज देने की जगह खुदरा और सेवा क्षेत्रों को कर्ज देने पर ज़ोर देना शुरू किया, जो अब उनके द्वारा दिए जाने वाले कर्ज का आधा से ज्यादा हिस्सा हासिल कर रहे हैं. यह इस एहसास के बाद हुआ कि उद्योगों (खासकर बड़ी कंपनियों) को कर्ज देकर वे मुश्किल में फंस जाते हैं. बुरे कर्जों का अनुपात 17.6 प्रतिशत तक पहुंच गया, जिसमें बड़े कर्जदारों का हिस्सा बड़ा था जबकि बैंकों में घोटाले जारी थे. 90 प्रतिशत घोटाले सरकारी बैंकों में ही थे जिन्हें जोखिम का आकलन और घोटालेबाजों की पहचान करने में दिक्कत होती रही है. इसलिए खुदरा और सेवा क्षेत्रों को कर्ज देने में तेजी आई है, साल-दर-साल कुछ सेक्टरों में 20 प्रतिशत और कुछ में 30 प्रतिशत तक, जबकि उद्योगों को कर्ज देने की रफ्तार थम गई.
अब, अगर क्रेडिट कार्ड के मामले में गड़बड़ी से संकट पैदा होता है, तब कार और हाउसिंग लोन जैसे ज्यादा बड़े खुदरा क्षेत्रों को लेकर सवाल उठ सकते हैं. भारत में 5.7 करोड़ क्रेडिट कार्ड चालू हैं (डेबिट कार्डों की संख्या तो इससे कई गुना ज्यादा है) और मुख्यतः वे कुल घरों में से 10 प्रतिशत टॉप लोगों के पास हैं. अगर इस श्रेणी में गड़बड़ी बढ़ती है, तो यह बताता है कि तुलनात्मक रूप से सम्पन्न घरों में भी वित्तीय दबाव है, जिनके सदस्यों को औपचारिक सेक्टर में रोजगार मिला हुआ है या छोटे व्यवसायियों पर भी वित्तीय संकट है. ज्यादा आंकड़े सामने आने पर ही पूरी तस्वीर सामने आएगी.
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सरकारी बैंकों को पांच साल अंधेरी सुरंग में रहने के बाद रोशनी की किरण दिखने लगी थी. भारी पैमाने पर बट्टे-खाते में डालने की जो प्रक्रिया 2015-16 में शुरू हुई थी वह 2019-20 में सिकुड़ने लगी थी, हालांकि इनमें से अधिकतर बैंक घाटे में ही थे. सरकार को उम्मीद थी कि इन बैंको को पूंजी के रूप में सालाना जो भारी नकदी दे रही थी (2019-20 तक के तीन साल में सरकारी खजाने से इस तरह 2.66 खरब रुपये निकल गए थे) वह अब बंद होगी, खासकर तब जब कुछ कमजोर बैंकों का मजबूत बैंकों में विलय कर दिया गया था. फिर भी, सरकारी बैंक बट्टे-खाते में डाले गए कर्जों की वसूली में कमजोर ही रहे और वे पर्याप्त ‘प्रोविजनिंग’ के स्तर को भी नहीं हासिल कर पाए हैं. इस कमी को पूरा करने में पूंजी पर दबाव बढ़ेगा. इसके अलावा, कोविड-19 सरकारी बैंकों की वित्तीय व्यवस्था को और संकटग्रस्त करता है तो फिर वही भारी घाटे की पुरानी कहानी दोहराई जाएगी जिसके कारण उन्हें फिर पूंजी देने की जरूरत पड़ेगी.
अभी हमें अंदाजा नहीं है कि यह कहानी कितनी अच्छी या बुरी होगी, इसलिए एसबीआई कार्ड्स में जो कुछ हो रहा है उसे ‘कैनरी’ नाम की चिड़िया का गाना या एक पूर्व-चेतावनी ही माना जा सकता है. अगस्त तक कर्जों पर जो रोक थी, जिसके बाद कुछ तरह के कर्जों की शर्तों में बदलाव की छूट दी गई, वह इस तर्क पर आधारित थी कि विशेष हालात में नियम से अपवाद होकर कुछ करना पड़ता है. दूसरे कारणों से मजबूत व्यवसायों को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए कुछ छूट देनी चाहिए. लेकिन ऐसे कदमों से क्रेडिट क्वालिटी का पूरा पता लगने में देर होती है. जब सुप्रीम कोर्ट यह तय कर रहा है कि बैंक क्या ब्याज वसूल सकते हैं और जब यह अनिश्चित है कि सरकार बैंकों को उनका खोया हुआ ब्याज देगी या नहीं, तब जाहिर है कि हम अनजाने रास्ते पर हैं. आज से एक साल बाद ऐसा लग सकता है कि अंधेरी सुरंग और लंबी हो गई है.
सरकार अब पहले के मुकाबले ज्यादा खुल कर कह रही है कि वह अपने कुछ छोटे बैंकों का सीधे निजीकरण करने जा रही है. विडंबना यह है कि बार-बार पूंजी की खुराक देने का अर्थ यह है कि इन बैंकों पर सरकार का स्वामित्व और मजबूत हुआ है. इसके बावजूद बिक्री बुरे मूल्यांकन के आधार पर होगी क्योंकि वे सब बुक वैल्यू में काफी रियायत के साथ कीमत कोट करते हैं. तब 20 साल बाद भी सवाल उठाए जा सकते हैं, जैसे कि अरुण शौरी से उदयपुर होटल के बारे में सवाल पूछे जा रहे हैं.
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