अट्ठावन साल पहले 20 अक्टूबर 1962 के दिन चीन ने पूर्वी लद्दाख और पूर्वोत्तर सीमांत एजेंसी या नेफा में एक साथ आक्रमण करते हुए ‘चीन-भारत सीमा पर आत्मरक्षा में जवाबी हमले’ की शुरुआत की थी. उस युद्ध का पहला चरण पूर्वोत्तर में 20-24 अक्टूबर और पूर्वी लद्दाख में 20-27 अक्टूबर तक चला था.
इस कॉलम में चर्चा को पूर्वी लद्दाख में युद्ध के प्रथम चरण तक ही सीमित रखा जा रहा है. ये विवरण द ऑफिशियल हिस्ट्री ऑफ 1962 इंडिया चाइना वॉर और 1962— वॉर इन द वेस्टर्न सेक्टर (लद्दाख) [ए व्यू फ्रॉम अदर साइड ऑफ द हिल] से लिए गए हैं.
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पृष्ठभूमि
भारत और चीन दोनों 1959 तक परस्पर संपर्क में आए बिना सीमांत इलाकों पर अपना दावा जताने के लिए परंपरागत फॉरवर्ड नीति का अनुपालन कर रहे थे. पूर्वोत्तर में चीन को कोई मौका नहीं देकर हमने पूर्वसक्रियता दिखाई थी और असम राइफल्स की सहायता से 1951 तक मैकमोहन रेखा तक के इलाके को अपने नियंत्रण में ले लिया था. लद्दाख में, चीन ने हमें मौका नहीं देते हुए अक्साई चीन पर कब्जे की पहलकदमी की, शिनजियांग-तिब्बत राजमार्ग बनाया और उसकी रक्षा के लिए सुरक्षा चौकियां स्थापित कर लीं. इसकी प्रतिक्रिया में हमने भी सेंट्रल रिज़र्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) की उप-इकाइयों की मदद से चौकियां स्थापित कीं.
लोंगजू (25 अगस्त 1959) और कोंगका ला (21 अक्टूबर 1959) में हिंसक झड़पों के बाद सीमा सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सेना को सौंप दी गई और हमने 5 दिसंबर 1961 से चीनी चौकियों के अगल-बगल और आमने-सामने अपनी सुरक्षा चौकियां स्थापित करने की एक नई फॉरवर्ड नीति शुरू की. इसके पीछे ये सोच थी कि चीनी झगड़ा मोल नहीं लेंगे और हम अतिरिक्त क्षेत्रों को अपने निंयत्रण में ले सकेंगे. चीन ने भी अपने ‘सशस्त्र सहअस्तित्व’ के सिद्धांत के तहत ऐसा ही किया.
अब प्रतिद्वंदी चौकियां एक-दूसरे पर नज़र रख रही थीं. खुफिया ब्यूरो (आईबी) के आकलन के आधार पर भारत ये मानता था कि चीन सिर्फ झांसा दे रहा है और वह बड़े स्तर पर सैनिक कार्रवाई नहीं करेगा. इसलिए भारतीय सेना ने सीमा तक अपना दावा पेश करने के लिए उन इलाकों में चौकियां बनाने की रणनीति अपनाई जहां कि चीन की उपस्थिति नहीं थी और हम कई बार चीनी चौकियों के पीछे तक गए ताकि उन्हें पीछे हटने के लिए बाध्य किया जा सके. चीन ने कोई गड़बड़ नहीं की और निर्णायक सैनिक कार्रवाई की तैयारी पूरी करने तक गतिरोध की स्थिति कायम रखने के लिए उन्होंने भी वैसा ही किया. चूहे-बिल्ली का ये खतरनाक खेल 20 अक्टूबर 1962 को चीन द्वारा सैनिक अभियान शुरू किए जाने तक चलता रहा था.
सितंबर के अंत तक भारतीय सेना पूर्वी लद्दाख में 77 चौकियां बना चुकी थी जिनमें से 43 को चीन भारतीय अतिक्रमण के रूप में देखता था क्योंकि वे उसकी 1959 की क्लेम लाइन के पीछे थीं.
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भारतीय सेना की तैनाती
सेना ने 114 इन्फैंट्री ब्रिगेड की चार बटालियनों 14 जेएंडके मिलिशिया, 5 जाट, 7 जेएंडके मिलिशिया और 1/8 गोरखा राइफल्स को लद्दाख की रक्षा की ज़िम्मेदारी सौंपी. ब्रिगेड का मुख्यालय लेह में था जबकि चुशुल में एक रणनीतिक मुख्यालय बनाया गया था. ब्रिगेड को दो और बटालियनें दी गईं— 11 कुमायूं और 1 जाट. हालांकि वे 18 नवंबर 1962 को आरंभ युद्ध के दूसरे चरण में ही भाग ले पाए.
आमने-सामने की चौकियों की 20 अक्टूबर 1962 की स्थिति
चीनी तियानवेंडियन सेक्टर के सामने हमारा दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) सेक्टर 14 जेएंडके मिलिशिया और 5 जाट की एक कंपनी के जिम्मे था. बटालियन एक-दूसरे से दूर और असंबद्ध 21 चौकियों की सुरक्षा कर रही थी. इनमें से सात पर प्लाटून स्तर (30-40 सैनिक) और 14 पर सेक्शन स्तर (10 सैनिक) की तैनाती की गई थी. डीबीओ में एक कंपनी को रिज़र्व रखा गया था.
इसके अलावा गलवान नदी घाटी और चांगचेनमो नदी घाटी में चार-चार चौकियां 5 जाट की दो कंपनियों के नियंत्रण में थी. तीसरी कंपनी चांगचेनमो घाटी के जोड़ने वाले रास्ते पर निर्मित छह चौकियों को संभाल रही थी. इसके सामने चीन की तरफ हेवेतियन सेक्टर और कोंगका पास सेक्टर का एक हिस्सा पड़ता था.
पैंगोंग सेक्टर 1/8 गोरखा राइफल्स के जिम्मे था जिसकी एक लगभग पूरी कंपनी पैंगोग त्सो झील के उत्तरी किनारे पर और एक अन्य कंपनी दक्षिणी किनारे पर तैनात थी. प्लाटून स्तर की दो चौकियां सिरिजाप में थीं जबकि दक्षिणी किनारे पर तीन चौकियां थी. कैलाश रेंज में दो कंपनियां तैनात की गई थीं— स्पांगुर गैप के उत्तर और दक्षिण में क्रमश: गुरुंग हिल और मगार हिल पर एक-एक. चीन का कोंगका पास सेक्टर उत्तरी किनारे के सामने था जबकि दक्षिणी किनारे की जिम्मेवारी उसके अली सेक्टर में मौजूद बलों के जिम्मे थी.
सिंधु नदी घाटी में 7 जेएंडके मिलिशिया डुंगती से डेमचोक तक के करीब 70 किलोमीटर के इलाके को संभाल रही थी. उसके जिम्मे कैलाश रेंज के चांग ला और जारा ला में दो चौकियां, डुमचेले में एक चौकी और डेमचोक में चार चौकियां थीं. इस सेक्टर के लिए चीन ने अली सेक्टर के अपने बलों को जिम्मेदारी दे रखी थी.
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युद्ध
चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने तीन इन्फैंट्री रेजिमेंटों (एक ब्रिगेड के बराबर) वाली एक डिविजन को आवश्यक साजो-सामान और कुछ टैंकों के साथ तैनात कर रखा था. इस अभियान के लिए कुछ अस्थाई यूनिट भी तैयार की गई थीं.
20-28 अक्टूबर 1962 के पहले चरण के अभियान को प्रदर्शित करने वाला मानचित्र
करीब 400 किलोमीटर के इलाके में छोटी-छोटी यूनिटों के रूप में हमारी सैनिक तैनाती इलाके की रक्षा के लिए शायद ही पर्याप्त थी. इसलिए रणनीति ये थी कि दुश्मन के किसी बड़े हमले की स्थिति में लेह की रक्षा करने के उद्देश्य से हम अपने सैनिकों को पीछे हटा लेंगे. पीएलए ने हमारी अलग-थलग पड़ी चौकियों को पीछे से घेरने के लिए घुसपैठ का सहारा लिया और अधिकांश जगहों पर सैनिकों को पीछे हटाने की हमारी योजना कामयाब नहीं हो पाई, सिर्फ उन चौकियों से ही जवानों को हटाया जा सका जिन पर कि हमला नहीं किया गया था.
सभी सेक्टरों में 19/20 अक्टूबर के तड़के हमला शुरू किया गया. डीबीओ सेक्टर में चिपचाप नदी के उत्तर और दक्षिण में खुद डीबीओ को मुख्य निशाना बनाया गया था. हमले की शुरुआत 0825 बजे चौकी नंबर 6 (पीएलए द्वारा दी गई संख्या) पर हुई. वहां हमारे 62 सैनिक तैनात थे. चौकी पर 1045 बजे कब्जा कर लिया गया. हमारे 40 सैनिक लड़ते हुए शहीद हो गए, जबकि 20 को युद्धबंदी बना लिया गया. अगले 30 घंटों में डीबीओ सेक्टर की रक्षा से जुड़ी अधिकांश चौकियों पर कब्जा किया जा चुका था. 21-22 अक्टूबर की दरम्यानी रात 14 जेएंडके मिलिशिया को पीछे हटने की अनुमति दे दी गई. पीछे हटने का अभियान सुचारू रूप से चला और 24 अक्टूबर तक पूरा सेक्टर खाली किया जा चुका था. पीएलए 1959 की क्लेम लाइन से आगे नहीं आई.
गलवान घाटी में सामज़ुंगलिंग के पास हमारी मुख्य चौकी को हॉट स्प्रिंग से कुगरांग नदी के साथ चलकर पहुंचे 1/8 गोरखा राइफल्स की एक प्लाटून ने स्थापित किया था. इस चौकी ने विगत में पीएलए की तीन चौकियों को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया था. इस चौकी को 4 जुलाई 1962 से घेरेबंदी का सामना करना पड़ रहा था. वहां तैनात प्लाटून को मुक्त करने के लिए 4-12 अक्टूबर के बीच हेलीकॉप्टरों से 5 जाट की एक कंपनी वहां पहुंचाई गई. यह चौकी 20 अक्टूबर को 0825 बजे हमले का निशाना बनी. वहां कितना कड़ा संघर्ष हुआ इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चौकी पर तैनात विभिन्न रैंकों के कुल 68 जवानों में 36 लड़ते हुए शहीद हो गए और 32 को युद्धबंदी बना लिया गया.
हॉट स्प्रिंग सेक्टर में कुगरांग नदी और चांगलुंग नाला जंक्शन के पास स्थित चौकी पर बहुत कड़ी टक्कर हुई. पीएलए इस इलाके से आगे नहीं बढ़ पाई. चांगचेनमो घाटी से बाकी सभी सैनिक पीछे हटा लिए गए.
पैंगोग त्सो के उत्तर में स्थिति सिरिजाप 1, कंपनी मुख्यालय और एक प्लाटून के नियंत्रण में था. वहां 21 अक्टूबर को 0900 बजे हमला हुआ और 1100 बजे तक कब्जा कर लिया गया. वहां हमारे 14 सैनिक शहीद हुए जबकि 25 को युद्धबंदी बना लिया गया. पीएलए के 21 जवान भी मारे गए. कंपनी कमांडर मेजर धान सिंह थापा घायल हो गए और उन्हें युद्धबंदी बना लिया गया. आगे चलकर उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. पीएलए ने हमला जारी रखते हुए सिरिजाप 2 को निशाना बनाया और कड़ी टक्कर के बाद 1700 बजे उस पर कब्जा कर लिया. वहां हमारे 10 जवान शहीद हो गए, जबकि 12 अन्य को युद्धबंदी बना लिया गया.
पैंगोंग त्सो के दक्षिण में ज़्यादा लड़ाई नहीं हुई और हमारे जवानों ने तीन चौकियों को खाली कर दिया.
पीएलए ने 48 घंटों के भीतर पैंगोंग त्सो तक अपनी 1959 की क्लेम लाइन पर नियंत्रण कर लिया. सिंधु घाटी सेक्टर पर हमले के लिए उसे नए सिरे से एकत्रित होना पड़ा. पीएलए के अली सेक्टर ने इस अभियान को अंजाम दिया था. यह अभियान 27 अक्टूबर को शुरू हुआ और 1959 की क्लेम लाइन तक के पूरे इलाके पर 28 अक्टूबर तक चीनी कब्जा हो चुका था.
असाधारण समानताएं
1962 में चीन का राजनीतिक लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट था— ‘भारत को सबक सिखाना’, उसे एशिया और दुनिया में प्रभुत्व के लिए प्रतिस्पर्धी नहीं बनने देना और उसको तिब्बत पर चीनी क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के दावे को चुनौती देने से रोकना. जबकि चीन का सैनिक लक्ष्य था— नेफा और लद्दाख में भारतीय बलों को करारी शिकस्त देना और ऐसा करते हुए नेफा में मौजूद बलों को नेस्तनाबूद कर देना और लद्दाख में अपनी 1959 की क्लेम लाइन तक के इलाकों पर कब्जा जमाना.
पूर्वी लद्दाख में 1962 का युद्ध उन्हीं इलाकों में लड़ा गया था जहां मई 2020 के बाद से चीनी सेना ने घुसपैठ की है. विडंबना देखिए कि चीनी सैनिकों का उद्देश्य भी पहले जैसा ही दिख रहा है— 1959 की क्लेम लाइन तक के इलाकों पर नियंत्रण करना और मामला बढ़ने पर भारत को करारी शिकस्त देना. चीन ये मानता है कि भारत 1962 में सुरक्षित बनाई गई उसकी क्लेम लाइन को बीते वर्षों में दबे पांव पार कर चुका है और अब वहां बुनियादी सुविधाएं खड़ी कर रहा है जो कि उसकी भौगोलिक अखंडता के लिए खतरा है.
(लेफ्टिनेंट जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवाएं दीं. वह उत्तरी कमान और मध्य कमान के जीओसी-इन-सी और सेवानिवृत्ति के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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