पाकिस्तान में प्रदर्शनों का मौसम शुरू हो गया है, और सड़कें ‘गो नियाज़ी गो’ के नारों से गर्मा रही हैं, जिनके निशाने पर इमरान ख़ान सरकार है.
ये आवाज़ न सिर्फ प्रधानमंत्री को बदलने के लिए हैं, बल्कि इन सियासी मुज़ाहिरों के रॉक कंसर्ट जैसे माहौल में, पुराने नारों, गानों और डीजे तक का, फिर से इस्तेमाल किया जा रहा है.
पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम), 11 विपक्षी दलों का एक गठबंधन है, जिसकी अगुवाई पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी), पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल-एन), और जमीयत उलमा-ए-इस्लाम कर रही हैं. ये अलग अलग विचारधाराओं, नस्लों और सियासत का मेल है. ये तस्वीर व्यापक हो सकती है, लेकिन इनकी मांग छोटी सी है: इमरान ख़ान को जाना होगा, और उन्हें ‘चुनने वालों’ को फैसला करना होगा. और अगर ख़ान को जाना है, तो लगातार नारेबाज़ी के पीछे के रचनात्मक दिमाग़ों को, तेज़ और मज़बूत बनना होगा. आख़िरकार, अगर नवाज़ शरीफ को बाहर करने के लिए नारे न होते, तो पाकिस्तान तहरीके इंसाफ (पीटीआई) यहां तक कैसे पहुंच पाती?
ग़लत जगह, ग़लत समय
ग़लत जगह या गलत समय पर लगाए कुछ नारे, आपको परेशानी में डाल सकते हैं. जैसे कि पीएमएल-एन लीडर मरियम नवाज़ के पति, कैप्टन सफदर अवान (रिटा) के मामले में हुआ. अवान ने हाल ही में, कराची में मोहम्मद अली जिन्हा के मज़ार पर, भीड़ के सामने नारे लगाए ‘वोट को आज़ादी दो’- ऐसा लगा कि जैसे वो जिन्हा को समझा रहे थे. और कुछ लोग इससे प्रभावित नहीं हुए. इसके बाद हुआ ये कि अवान के ख़िलाफ एफआईआर दर्ज हुई, उनकी गिरफ्तारी हुई, और एक विवाद खड़ा हो गया जिसमें, अवान की गिरफ्तारी के आदेश पर अर्ध-सैनिक बलों द्वारा, पुलिस महानिरीक्षक से ज़बर्दस्ती दस्तख़त कराने के ख़िलाफ, सिंध पुलिस के 50 अफसरों ने छुट्टी पर जाने का फैसला कर लिया. और ये सब हुआ ग़लत जगह पर नारा लगाने से. कहा ये गया कि नारों से मज़ार की पवित्रता भंग हुई थी. क़ायदे आज़म मज़ार संरक्षण और रखरखाव अध्यादेश 1971 के तहत, परिसर के भीतर किसी भी तरह के प्रदर्शनों, या राजनीतिक गतिविधियों पर पाबंदी है. लेकिन कुछ लोग ये कर गुज़रते हैं, जैसा कि पीटीआई वर्कर्स ने 2013 में, पार्टी चेयरमेन इमरान ख़ान के मज़ार दौरे के दौरान नारेबाज़ियां कीं थीं.
मुज़ाहिरों के इस सीज़न में विपक्षा गठबंधन का पसंदीदा नारा है ‘गो नियाज़ी गो’. नियाज़ी से कुछ घंटी सी बजती है, क्योंकि इससे बेहद नफरत के शिकार रहे, जनरल एएके नियाज़ी की याद आ जाती है, जिन्होंने 1971 में 90,000 सैनिकों के साथ, पूर्वी पाकिस्तान में हिंदोस्तानी फौज के सामने हथियार डाले थे. लेकिन ये हमारे मौजूदा वज़ीरे आज़म का भी आख़िरी नाम है- इमरान अहमद ख़ान नियाज़ी. 2018 में सत्ता में आने के बाद, पीएम ने अपने अधिकारिक नाम से ‘नियाज़ी’ हटा दिया.
लेकिन, हर रैली में इन तुकबंदी वाली नारेबाज़ियों को कौन रोक सकता है: ‘एक टके के दो नियाज़ी, गो नियाज़ी, गो नियाज़ी’ या ‘मुक गया तेरा शो नियाज़ी, गो नियाज़ी, गो नियाज़ी’. हाल ही में पीएम ख़ान को इन्हीं नारों की वजह से, मजबूरन नेशनल असैम्बली को छोड़कर जाना पड़ा.
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नेता चले जाते हैं, नारे रह जाते हैं
कुछ नारे ऐसे ही बने रहते हैं, लेकिन मुख्य किरदार बदल जाते हैं. ‘गो नियाज़ी गो’ कभी ‘गो नवाज़ गो’ हुआ करता था, और कभी ‘गो मुशर्रफ गो’ था.
2007 के वकीलों के आंदोलनों के दौरान, जिसने आख़िरकार पाकिस्तान में परवेज़ मुशर्रफ की हुकूमत को कमज़ोर किया, ताक़तवर जनरल को निशाना बनाने वाले ऐसे कई नारे गढ़े गए. ‘ये जो दहशतगर्दी है, इसके पीछे वर्दी है’, उस वक़्त गढ़ा गया जब पाकिस्तान में, दहशतगर्दी अपनी बुलंदी पर थी. इस नारे में फौज की नाकाम नीतियों को निशाना बनाया गया, जिन्होंने जिहादी संगठनों को ऐसा जिन बना दिया था, जो अब बोतल में वापस नहीं जा सकता था.
यही नारा-‘ये जो दहशतगर्दी है, इसके पीछे वर्दी है’- बरसों बाद पश्तून तहफ़्फ़ुज़ मूवमेंट (पीटीएम) ने फिर इस्तेमाल किया, जब उसने पूर्व संघ प्रशासित क़बायली क्षेत्र (फ़ाटा) इलाक़ों में हत्याओं, अपहरणों और जातीय हिंसा के ख़िलाफ आवाज़ उठाई. वर्दी नारा लगाने के लिए पीटीएम लीडर मंज़ूर पश्तीन को जवाबी कार्रवाई झेलनी पड़ी, और ‘मुल्क-दुश्मन नारे’ लगाने के लिए उन पर मुक़दमा ठोंक दिया गया. हालांकि हर किसी ने, ऐसे लोगों को मुख़ातिब करने के लिए, जिनका नाम नहीं लिया जा सकता, ‘चुनने वाले’, ‘ख़लाई मख़लूक़’ और ‘फरिश्ते’ जैसे लफ्ज़ इस्तेमाल किए, लेकिन ख़ामियाज़ा पश्तीन को झेलना पड़ा.
दूसरे कुछ नारे जिन्होंने दिलों के तार छू लिए, और दशकों तक एक सियासी सच्चाई बने रहे उनमें शामिल हैं: ज़ुल्फिक़ार अली भुट्टो का ‘रोटी कपड़ा और मकान, मांग रहा है हर इंसान’, पीपीपी का ‘तुम कितने भुट्टो मारोगे, हर घर से भुट्टो निकलेगा’, पीएमएल-एन का ‘क़दम बढ़ाओ नवाज़ शऱीफ़, हम तुम्हारे साथ हैं’, और 2014 के पीटीआई प्रदर्शनों से ‘तब्दीली आ नहीं रही, तब्दीली आ गई है’. जिसकी शुरूआत 1980 के दशक में, अमेरिका केंद्रित सियासत के खिलाफ ‘अमेरिका का जो यार है, ग़द्दार है ग़द्दार है’, नारे के साथ हुई थी, अब वो ‘मोदी का जो यार है वो ग़द्दार है’ पर आ गई है.
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डीजे, बॉलीवुड और लीड सिंगर्स
सियासी विरोध की रैलियां अब समारोहों में तब्दील हो गई हैं, जहां एक हिस्सा है नारेबाज़ी, भाषण, और प्रेज़ेंटेशन, और दूसरा है विरोधी संगीत. मक़सद ये है कि म्यूज़िकल कंसर्ट की तरह, दर्शकों को बांधे रखा जाए. जो लोग आपकी रैली में हैं, और जो घर से देख रहे हैं, उनके लिए मनोरंजन पहले आता है.
नियम 2014 में उस समय बदल गए थे, जब धरने के दिनों में अपने सियासी मुज़ाहिरों के लिए, इमरान ख़ान की पीटीआई ने आसिफ बट्ट, उर्फ डीजे बट्ट को इस्तेमाल किया था. अपने संदेश पहुंचाने के लिए, राष्ट्रीय गीतों को रैली के भाषणों के साथ मिक्स करने का विचार, अपने आप में अनोखा था और हर किसी को भा गया. लेकिन मुज़ाहिरों के इस सीज़न में, डीजे बट्ट अब विरोधी गठबंधन का डीजे है. क्यों? क्योंकि डीजे का कहना है कि कप्तान ने जिस बदलाव का वादा किया था, वो कभी आया ही नहीं, इसलिए अब उनकी सेवाएं विरोधी टीम के लिए समर्पित हैं. ये और बात है कि पहले डीजे ने, ना चुकाए गए बिल्स की शिकायत की थी.
विरोधी गाने और सियासी गीत न सिर्फ प्रदर्शंनकारियों, बल्कि अपने विरोधियों तक पहुंचने का भी एक तरीक़ा हैं. पीटीआई का ‘रोक सको तो रोल लो तब्दीली आई’, ‘बनेगा नया पाकिस्तान’, पीएमएल-एन का ‘वोट को इज़्ज़त दो’, और पीपीपी का ‘दिल्ला तीर बाजा’, का इस्तेमाल उनके हिमायती कर रहे हैं. कभी कभी एक गायक एक ही चुनाव के लिए, दो अलग अलग पार्टियों के गाने गा लेता है. मसलन, 2013 में राहत फतेह अली ख़ान ने, पीटीआई का ‘चलो चलो इमरान के साथ’, और नवाज़ शरीफ का ‘तुमसे अपना ये वादा है’, दोनों गाने गाए थे.
कुछ सियासी गाने बॉलीवुड से भी उड़ा लिए गए हैं, जैसे 2018 के चुनाव प्रचार का ‘लीडर साड्डा ख़ान है’, दलेर मेहंदी के ‘ना ना ना ना ना रे’ पर गढ़ा गया है.
लेकिन एक सियासी गीत ऐसा भी है, जो बॉलीवुड ने नक़ल किया है: पीपीपी का ‘दिल्ला तीर बीजा’, जो बलोच लोक संगीत पर बना है. इसे 1987 में बेनज़ीर भुट्टो के पहले चुनावों के दौरान रिलीज़ किया गया था, और ये आज तक पार्टी का गीत है. इसका बॉलीवुड रूप है, ‘मैं ना झूठ बोलूं’, जो अमिताभ बच्चन की फिल्म इंद्रजीत (1991) में फिल्माया गया था.
पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट के रफ्तार पकड़ने के साथ, ये शो जारी रहेगा और इसमें ऐसे और नारे व गीत जुड़ते जाएंगे, जो कांच के घरों में रहने वालों को ग़ुस्सा दिलाएंगे.
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(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. ये उनके निजी विचार हैं.)