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Thursday, 21 November, 2024
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बिहार चुनाव में चंद्रशेखर आजाद की एंट्री से मायावती की बेचैनी बढ़ जानी चाहिए

आदित्यनाथ की ठाकुरवादी छवि ने दलितों के बीच भाजपा की छवि को क्षति पहुंचाई है जबकि कांग्रेस प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से आगे जाने में नाकाम रही है. यह स्थिति मायावती से ज्यादा आजाद के उभरने में मददगार साबित हो सकती है.

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बिहार विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेकर जिस तरह चिराग पासवान सुर्खियां बटोर रहे हैं, वैसे ही एक अन्य युवा दलित नेता अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश में जुटा है. वह हेलीकॉप्टर से राज्य के चक्कर काट रहा है, अपनी सभाओं में थोड़ी-बहुत भीड़ भी आकृष्ट कर रहा है—यह पहली बार अपने गृह राज्य, उत्तर प्रदेश के बाहर राजनीतिक जड़ें जमाने की कोशिश कर रहे नेता के लिहाज से काफी प्रभावित करने वाला लग रहा है. उनके राजनीतिक संगठन आजाद समाज पार्टी को पिछले हफ्ते ही निर्वाचन आयोग ने पंजीकृत किया है.

ऐसा नहीं है कि बिहार में कोई आजाद समाज पार्टी (एएसपी) के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद या पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी और कुछ अन्य छोटे दलों के साथ मिलाकर बनाए गए उनके गठबंधन प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक एलायंस पर कुछ पैसा लगा रहा है. हाल यह है कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तेजस्वी यादव ने तो महागठबंधन में सिर्फ पांच सीटें देने की एएसपी की पेशकश में कोई दिलचस्पी तक नहीं दिखाई थी. एएसपी नेताओं का कहना है कि आजाद की तरफ से उतारे गए 30 उम्मीदवारों में से कम से कम 10 के पास जीत का ‘अच्छा मौका’ है. आजाद समाज पार्टी बिहार के चुनावी दंगल में असंगत तो लग सकती है, लेकिन यहां मिली मामूली सफलता भी पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में उसकी राजनीतिक संभावनाओं को बढ़ाने वाली साबित हो सकती है.


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आजाद का बिहार में प्रचार और यूपी पर नजर

2015 में भीम आर्मी की स्थापना के बाद से की चंद्रशेखर आजाद दलित अधिकारों की रक्षा के लिए टकराव का रास्ता अपनाते रहे हैं और इस दौरान कई बार जेल जा चुके हैं. अधिकांश दलित नेताओं और संगठनों की सांकेतिक राजनीतिक लड़ाई के उलट उनकी सक्रियता और आक्रामता वाली शैली समुदाय को सुहा रही है. यूपी, दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक और भारत के अन्य हिस्सों में उनकी जनसभाओं, रोड शो और विरोध प्रदर्शनों को लेकर खासा उत्साह नजर आता रहा है. लेकिन चुनावी राजनीति में उनकी अग्निपरीक्षा अभी बाकी है.

इसीलिए उन्होंने बिहार के चुनावी दंगल में कदम रखा है. एएसपी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अगर पार्टी बिहार में दो सीटें भी जीतती है तो इसका उद्देश्य पूरा हो जाएगा. इरादा यूपी में एक संदेश पहुंचाना है कि आजाद राज्य के बाहर भी एक संजीदा राजनीतिक दावेदार हैं.

और यही वजह है कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख मायावती के लिए चिंता करने के कुछ कारण हैं. दलित समुदाय के बीच उनका प्रभाव घट रहा है. 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, जिसमें बसपा ने ब्राह्मणों, मुसलमानों और अन्य पिछड़ा वर्ग के समर्थन से 30 प्रतिशत मतों के साथ बहुमत हासिल किया था, के बाद से बसपा का वोट शेयर गिरता जा रहा है—2012 में यह 26 प्रतिशत था और 2017 में 22 प्रतिशत ही रह गया. पिछले दो लोकसभा चुनावों में बसपा का वोट शेयर 20 प्रतिशत के आसपास रहा है.

इसके गिरने की मुख्य वजह गैर-जाटवों का मोहभंग होने को माना जा रहा है. यूपी की 21.6 फीसदी दलित आबादी में अकेले गैर-जाटवों की कुल हिस्सेदारी करीब 45 फीसदी है. गैर-जाटव भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर रुख कर रहे हैं, जिसका श्रेय जमीनी स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की तरफ से किए गए कार्यों को जाता है.

आजाद मायावती के पुराने वोट बैंक जाटव और गैर-जाटव दलित समुदाय, मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग में सेंध लगाने की कोशिश में हैं. उन्होंने दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के बाहर एक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया, जहां कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार की शिकार हाथरस की 20 वर्षीय युवती की मृत्यु हो गई थी, जबकि मायावती ने अपना आक्रोश जताने के लिए ट्विटर को चुना. हाथरस की पीड़िता वाल्मीकि समुदाय की थी. आजाद इसी साल जनवरी में जामा मस्जिद के बाहर हजारों की संख्या में मौजूद सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के साथ डॉ. बी.आर. अंबेडकर की तस्वीर लेकर संविधान की प्रस्तावना पढ़ते नजर आए थे, जिसने उनकी एक ऐसे नेता की ध्यान आकर्षित करने वाली छवि बनाई जो दलित-मुस्लिम वोट बैंक साधने की कोशिश कर रहा है. मायावती का दलित अधिकारों के लिए सुख-सुविधाएं छोड़ अपने घर से निकलने में गुरेज करना और ट्विटर पॉलिटिक्स में सक्रिय रहना भी काफी हद तक आजाद के लिए मददगार ही साबित हुआ है.

कई नाराज दलित नेता पहले ही बसपा छोड़ चुके हैं और कई अन्य विकल्प तलाशने में लगे हैं. मायावती के एक सहयोगी ने कुछ महीनों पहले ही इस लेखक से कहा था, ‘इन्होंने पार्टी को खत्म कर दिया है. हम ही लोग फंसे हैं. सब चले जाएंगे.’

आजाद के करीबी सहयोगियों का कहना है कि अगर एएसपी बिहार में अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन करती है, और एक-दो सीटों पर भी जीत हासिल कर लेती है तो यह 2022 में यूपी विधानसभा चुनाव से पहले बसपा से उनकी पार्टी की ओर ‘बड़े पैमाने पर दलबदल’ को बढ़ावा देगा. बसपा के तमाम नेता इससे सहमत नजर आते हैं.


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भाजपा और कांग्रेस की प्रतीकात्मक दलित राजनीति

मायावती की कमजोरियों को भुनाने में दो मुख्य राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस की नाकामी ने भी चंद्रशेखर आजाद के एक मजबूत वैकल्पिक दलित आवाज के तौर पर उभरने में मदद की है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से जमीनी स्तर पर किए गए कार्यों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की बदौलत भाजपा मायावती से छिटके दलितों के एक वर्ग गैर-जाटवों को जरूरत अपने पाले में लाने में सफल रही है. नेशनल इलेक्शन स्टडीज (एनईएस) के अनुसार, 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर लोकनीति-सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) के एक पोस्ट पोल सर्वे से पता चलता है कि 17 फीसदी जाटवों और 48 फीसदी गैर-जाटवों ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए वोट किया था. हालांकि, भाजपा शासित राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार की बढ़ती घटनाएं इस समुदाय के बीच भाजपा की छवि को बुरी तरह प्रभावित कर सकती हैं.

विश्वसनीय दलित चेहरों का अभाव भी भाजपा के लिए एक बाधा है, जो अटल बिहारी वाजपेयी के समय से ही दलितों के बीच जगह बनाने के प्रयास कर रही है. 2000 में बंगारू लक्ष्मण दलित वर्ग के पहले भाजपा अध्यक्ष बने, लेकिन तहलका कांड के कारण उन्हें बेआबरू होकर हटना पड़ा. पार्टी सरकार के साथ-साथ संगठन में भी दलितों को प्रतिनिधित्व दे रही है, लेकिन यह सिर्फ कहने मात्र को ही है. मसलन, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत मोदी सरकार में दलित चेहरा हैं और जब समुदाय के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं सामने आती हैं तब कभी उनकी बात नहीं सुनी जाती है. भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने हाल के संगठनात्मक फेरबदल में दुष्यंत कुमार गौतम को राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त करके दलितों के बीच एक संदेश भेजने की कोशिश की. लेकिन इस कदम ने भाजपा में दलित चेहरों के अभाव को ही उजागर किया है. गौतम ने कभी प्रत्यक्ष चुनाव नहीं जीता; उन्हें 2008 और 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था.

दशकों पहले ही अपना दलित वोट बैंक गवां देने वाली कांग्रेस 1977 में जगजीवन राम के पार्टी छोड़ने के बाद से कोई बड़ा दलित नेता तैयार नहीं कर पाई है. मनमोहन सिंह सरकार के समय पार्टी ने सुशील कुमार शिंदे, मीरा कुमार और मुकुल वासनिक आदि को कैबिनेट में जगह देकर कई दलित चेहरे प्रोजेक्ट करने की कोशिश की लेकिन यह उसका दलित जनाधार बढ़ाने में कारगर नहीं रहा. दलितों के प्रति अपनी प्रतीकात्मकता और सांकेतिक राजनीति जारी रखते हुए कांग्रेस ने हाल में जगजीवन राम की बेटी और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) में स्थायी आमंत्रित सदस्य के रूप में शामिल किया है. यह बिहार विधानसभा चुनाव से पहले किया गया. यूपी में पार्टी की प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी काफी समय से दलितों के मुद्दे मुखरता से उठा रही हैं और वह हाथरस पीड़िता के परिजनों से मिलने वाले नेताओं में अग्रणी थीं. हालांकि, ऐसी बातें कुछ समय के लिए तो दलित समुदाय पर असर डालती हैं लेकिन उनके साथ रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलाने के लिए काफी नहीं हैं, खासकर जमीनी स्तर पर योजनाबद्ध कार्ययोजना और पार्टी कैडर में समुदाय के विश्वसनीय चेहरों के अभाव के बीच.

इस पृष्ठभूमि में चंद्रशेखर आजाद को एक ऐसे नेता के तौर पर देखा जा रहा है जो लखनऊ में खासा रुतबा रखने वाले मायावती जैसे स्थापित दलित नेताओं की जगह लेने की क्षमता रखता हो. यही वजह है कि मायावती बिहार चुनाव के नतीजों से चिंतित हो सकती हैं. ऐसा नहीं है कि बिहार में आजाद का पूरा राजनीतिक भविष्य दांव पर है. बदतर हालात में यह एक दुस्साहस साबित हो सकता है या फिर दलित नेतृत्व पर दावेदारी की उनकी लंबी यात्रा का एक पड़ाव मात्र बनकर रह जा सकता है. लेकिन उन्हें बिहार में मिली मामूली-सी सफलता भी 2022 विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यूपी की दलित राजनीति में एक बड़े बदलाव की सूचक होगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

व्यक्त विचार निजी हैं


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