हिसार: एक दशक पहले हरियाणा का मिर्चपुर गांव तब सुर्खियों में आया था जब प्रभावी जाट समुदाय की एक भीड़ ने यहां के दलित परिवारों के 18 घरों को जला दिया था जिसकी वजह से एक 70 वर्षीय बुजुर्ग और उनकी 17 साल की दिव्यांग बेटी आग में झुलसकर मर गए थे.
यह घटना 21 अप्रैल 2010 को हुई थी और इसके तुरंत बाद, वाल्मीकि समाज के 258 परिवार अपनी जान बचाने के लिए गांव से भाग गए. इनमें से लगभग 100 परिवारों ने हिसार शहर के बाहरी इलाके में बने सामाजिक कार्यकर्ता वेद पाल तंवर के फार्म हाउस में शरण ली थी, जबकि अन्य आजीविका की तलाश में जिले के अन्य हिस्सों में चले गए थे.
जो परिवार तंवर फार्म हाउस में टेंटनुमा झोपड़ियों में न्याय और पुनर्वास की आस में रह रहे हैं, उन्हें अब आशा की एक किरण दिखने लगी है. 15 अक्टूबर को, मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के राजनीतिक सचिव और पूर्व राज्य सामाजिक न्याय मंत्री सचिव कृष्ण बेदी ने 102 दलित परिवारों को प्लॉट्स का क़ब्ज़ा दिया है.
ये प्लॉट्स हिसार शहर से लगभग 4 किमी दूर ढ़ंडूर गांव के पास साढ़े आठ एकड़ जमीन पर बसी एक नई कॉलोनी में स्थित हैं. भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने इस कॉलोनी का नाम आरएसएस के विचारक और भाजपा के संस्थापक दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर रखा है- दीनदयाल पुरम. लेकिन जमीन मुफ्त में नहीं मुहैया कराई गई है. सरकार ने कलेक्टर रेट के अनुसार प्रत्येक परिवार को 80 गज प्लॉट के 820 रुपए और 600 गज के प्लॉट के लिए 5,788 रुपए की ईएमआई भरनी पड़ेगी है.
कलेक्टर रेट का यहां मतलब है प्रति वर्ग गज का रेट 1,770 रुपये और 4 प्रतिशत ब्याज. इस हिसाब से प्रत्येक परिवार को कुल 1,50,540 रुपये से लेकर 10,62,000 रुपये तक का भुगतान करना होगा.
दिप्रिंट ने मिर्चपुर गांव और तंवर फार्म हाउस की यात्रा की. इस रिपोर्ट में हमने यह जानने की कोशिश की है कि फ़िलहाल जातीय तनाव की स्थिति क्या है और दलित परिवार पुनर्वास की किश्तों को भरकर कितना संतुष्ट हैं.
अप्रैल 2010 में आख़िर हुआ क्या था?
एक दशक पहले फैली हिंसा की भयावहता विस्थापित दलित परिवारों के चेहरों पर अभी भी साफ नजर आती है. उस हिंसा के चश्मदीद गवाह 60 वर्षीय ओम प्रकाश दिप्रिंट को बताते हैं, ‘ये विवाद एक कुत्ते के भौंकने से शुरू हुआ. नशे में धुत कुछ जाटों ने कुत्ते को ईंट से मारने की कोशिश की, लेकिन ये विवाद बढ़ता गया और अगले दिन, जाटों ने सैकड़ों लोगों को हमारे ऊपर हिंसा करने के लिए बुला लिया.’
ओमप्रकाश आगे कहते हैं, ‘सैकड़ों लोग हमारे घरों की ओर दौड़ते हुए आए और उन्हें आग के हवाले कर दिया. इस दौरान एक 70 साल के बुजुर्ग और उनकी 17 की दिव्यांग बेटी आग में झुलकर मर गए. घरों से धुआं कोयले से चलने वाली किसी ट्रेन की तरह निकल रहा था. बच्चे, औरतें, बूढ़े- हम सब भागे. किसी के पैर में चप्पल थी और किसी के पैर में नहीं.’
इस हिंसा की एक अन्य पीड़िता 50 वर्षीय नारो याद करती हैं, ‘जब मेरे एक पड़ोसी ने मुझे बताया कि मेरे घर में भी आग लगा दी गई है, तो मैं बीमार हो गई थी. मेरे भीतर हिम्मत ही नहीं आई कि मैं अपने जलते हुए घर को देख पाती. हालांकि बाद में, मैंने सुना था कि हुड्डा सरकार (भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार) ने इसका एक हिस्सा फिर से बनवा दिया था.’
लंबी कानूनी लड़ाई और तनावपूर्ण माहौल
इस मामले में साल 2011 में ट्रायल कोर्ट ने जाट समुदाय के 15 सदस्यों को दोषी ठहराया था और 82 को बरी कर दिया था. लेकिन 7 साल बाद, अगस्त 2018 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने 13 दोषियों का फ़ैसला बरकरार रखा और 20 अन्य लोगों को भी दोषी करार दिया. इस तरह कुल 33 लोगों को इस केस में दोषी पाया गया था.
आदेश में उच्च न्यायालय ने एक लाइन लिखी थी, ‘आजादी के 71 साल बाद सवर्णों द्वारा अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार के मामले दिखाते हैं कि इस तरह के मामलों का कम होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है.’
यह प्रवृत्ति वर्तमान में भी जारी है- 2019 के लिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध क्रमशः 7 प्रतिशत और 26 प्रतिशत बढ़ गए हैं.
दोनों समुदायों के बीच तनाव पिछले एक दशक में लगातार उबलता रहा है. 2010 की हिंसा के तुरंत बाद, केंद्र सरकार ने शांति बनाए रखने के लिए मिर्चपुर गांव में 75 सीआरपीएफ़ जवानों को स्थायी रूप से तैनात कर दिया था, लेकिन उन्हें 6 साल बाद हटा दिया गया.
सीआरपीएफ़ हटाए जाने के तुरंत बाद फिर एक दलित युवक के खिलाफ एक जाति-संबंधी टिप्पणी की गई, जिसकी वजह से हुई हिंसा में 20 दलितों पर हमला हुआ. उसके बाद से सरकार ने गांव में दलितों के घरों के पास एक पुलिस चौकी स्थापित की. गांव में लगभग 50 दलित परिवार रह रहे हैं.
मिर्चपुर के दलित पहली बार अपने समुदाय से निकले सरपंच को देखने की उम्मीद कर रहे हैं. 35 वर्षीय संदीप कहते हैं, ‘जनवरी 2021 में होने वाले ग्राम पंचायत के चुनाव में इस बार सरपंच की सीट अनुसूचित जाति को मिलने की संभावना अधिक है.’
लेकिन वो ये भी जोड़ते हैं कि सवर्ण लोग भले ही इसे सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं करेंगे लेकिन उन्हें ये क़ानूनी तौर पर मानना ही पड़ेगा.
मिर्चपुर के एक जाट, जो रिपोर्ट में अपना नाम नहीं छपवाना चाहते थे, कहते हैं, ‘दलितों को उसी सीमा तक स्वीकार कर सकते हैं जब तक वो हमारे खेतों में काम करें और अपनी मज़दूरी लें. अपनी खाट पर बराबरी से हम तो नहीं बैठा सकते.’
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4.56 करोड़ रुपए का पुनर्वास प्रोजेक्ट
हरियाणा सरकार ने विस्थापित हुए 258 दलित परिवारों के पुनर्वास के लिए 4.56 करोड़ रुपये का बजट रखा है. दलितों के लिए बनाई गई नई कॉलोनी, दीनदयाल पुरम में प्लॉट्स को मार्क किया गया है, कुछ पक्की गलियां बनाई गई हैं और साथ ही एक कम्यूनिटी सेंटर भी स्थापित किया गया है. स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों ने दिप्रिंट बताया कि आने वाले हफ्तों में बिजली के खंभों और पानी की पाइप बिछाने का काम भी शुरू किया जाएगा.
पिछली सरकार में सोशल जस्टिस मिनिस्टर रह चुके कृष्ण बेदी पुनर्वास के इस प्रोजेक्ट के पीछे मुख्य चेहरा रहे हैं. वो कहते हैं, ‘हमने इन परिवारों को उनके पैतृक गांव में जमीन के हिसाब से प्लॉट वितरित किए हैं. इस तरह 85 गज, 100 गज, 120 गज, 150 गज और 600 गज के प्लॉट आवंटित किए गए हैं.’
बेदी ने इसे ‘कांग्रेस शासन काल’ की दमन, अन्याय और क्रूरता की एक कहानी का अंत बताया है.
हालांकि, सभी दलित परिवार संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि उनमें से कइयों के नाम प्लॉट्स लेने वालों की सूची से बाहर हैं.
नारो, जिनके पति अपने नाम पर एक प्लॉट लेने में कामयाब रहे, शिकायत भरे लहजे में कहती हैं, ‘जब हम गांव से भागने के लिए मजबूर हुए थे तब मेरी बेटी 12 साल की थी लेकिन अब वो ब्याहने लायक़ हो गई है. मेरे बेटों की भी शादियां हो चुकी हैं. अब हम कैसे 85 गज में मकान बनाकर इतने सारे लोग रह पाएंगे. मेरे बेटों का नाम भी तो सूची में आना था.’
60 वर्षीय कैलाशो सरकार की शुक्रगुज़ार तो हैं लेकिन उनका भी अपना ग़ुस्सा है. अपना घूंघट ठीक करते हुए वो कहती हैं, ‘न्याय तो तभी मिलेगा जब हम सभी विस्थापित लोगों के लिए पुनर्वास का इंतज़ाम होगा.’
सरकार का इस पर कहना है कि स्थानीय स्तर पर कुछ चूक हुई है जिसकी वजह से कई नाम छूट गए हैं. बेदी ने बताया कि उन्होंने ज़िला आयुक्त को इस सूची को संशोधित करने के लिए कहा है.
हिंसा प्रभावित 51 वर्षीय रमेश कुमार ने कहा कि उन्हें खुशी है कि कम से कम इस सरकार ने यह तो स्वीकार किया कि उनका भी कोई वजूद है. उन्होंने आरोप लगाया, ‘हुड्डा सरकार इतनी जातिवादी थी कि उसने हमें हमारे हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया. उस हिंसा में जाट समुदाय का पक्ष लिया.’
‘प्लॉट्स के लिए भर रहे हैं अपनी जेब से पैसा’
लेकिन 60 वर्षीय रामफल के लिए, जैसे विपदाओं का कोई अंत ही नहीं है. अपने परिवार का पेट पालने वाले रामफल इकलौते सदस्य हैं. उनके बड़े बेटे को 2010 की हिंसा में ईंट से चोट आने के बाद मानसिक बीमारियों ने घेर लिया और वो बिस्तर तक सिमट गए हैं.
रामफल कहते हैं, ‘मैंने अपनी बहू की कुछ टूम बेचकर जैसे तैसे हर महीने 829 रुपए की किश्त चुकाई है. ये दो चार टूम उसे ब्याह में मिली थी. लेकिन अब घर बनाने के लिए हमारे पास बेचने को कुछ बचा नहीं है. हमें नए प्लॉट में शायद ये तंबू गाड़कर ही रहना होगा.’
हालांकि, बेदी ने आश्वासन दिया है कि इन परिवारों को घर बनाने के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना और हरियाणा सरकार की बीआर आम्बेडकर योजना के तहत ग्रांट दिलाए जाएंगे.
तंवर फार्म हाउस के बाहर, औरतें अपने टेंट से बाहर निकलीं और हमें आसपास का एरिया दिखाने लगीं कि वो किस तरह एक दशक से अमानवीय जीवन जीने को मजबूर हैं.
कैलाशों कहती हैं, ‘इन्हीं तंबुओं में हमने जापा कराया. हमारी छोरियों की बारात भी इन्हीं तंबुओं में आई. न्याय की आस लिए कई बुजुर्गों ने इन्हीं तंबुओं में अपनी अंतिम सांस ली. हमें बाथरूम के लिए अपने ही कपड़ों से दीवार बनानी पड़ी.’
वो आगे जोड़ती है, ‘जब भी सरकार ने हमारे पुनर्वास के लिए ज़मीन खोजी, ग्राम पंचायतों ने हमें बसने के लिए ज़मीन देने से मना कर दिया. दुनिया में कोरोनावायरस अब आया है लेकिन हमारी पीढ़ियों को न जाने कब से अपमान का वायरस खाए जा रहा है.’
मिर्चपुर हिंसा का शिकार हुए एक परिवार के रिश्तेदार और दलित एक्टिविस्ट कमल सरकार से सवाल करते हैं कि इस कॉलोनी का नाम दलित नायक आम्बेडकर के नाम पर न रखकर दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर क्यों रखा गया? वो कहते हैं, ‘जब सरकार इस पुनर्वास को चुनावी प्रचार में एक राजनीतिक पैंतरे के तौर पर इस्तेमाल करेगी तो लगेगा कि ये ज़मीन हमें फ़्री में मुहैया कराई गई है लेकिन इस पर बसने वाले 258 विस्थापित परिवार इसके लिए कलेक्टर रेट के दाम चुकाएंगे.’
यह पूछे जाने पर कि परिवारों को प्लॉट्स के लिए किश्तें क्यों भरनी पड़ीं? बेदी जवाब देते हैं, ‘अगर हम मिर्चपुर के पीड़ितों को मुफ़्त में प्लॉट देते हैं तो इससे समाज में एक ग़लत मैसेज जाएगा. राज्य में जातीय हिंसा के सभी पीड़ितों की मांग समान ही होगी. यदि भविष्य में कोई हिंसा होती है, तो लोग यह सोचकर पलायन करेंगे कि उन्हें मुफ्त में ही प्लॉट मिल जाएंगे.’
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Apne ghar khud jalakar thhikra jaton ke sir pe fod diya,agr ye aag jaton ne lagai hoti to sare ghar jalte n ki wo jo bilkul purane the ,ye ek saajish thi jaton ke khilaaf isiliye to jo ghar nye the unhi purane gharon ke bich me wo kyon nhi jle , is kand ka khamiyaja dalit nhi blki jaat bhugat rhe hain