जम्मू-कश्मीर के लोगों के दिलो-दिमाग में जगह बनाने के लिए राजनीतिक रणनीति की कमी से बदतर अगर कोई चीज है तो वह है सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन. 18 जुलाई का शोपियां मुठभेड़ केस इसी वजह से चर्चा में हैं—जिसमें तीन ‘आतंकवादियों’ की बहुप्रचारित हत्या कथित तौर पर राजौरी जिले के तीन मजदूरों को मार डाले जाने की घटना के तौर पर सामने आ रही है.
इस कथित मुठभेड़ में हमारी सबसे बेहतरीन राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) यूनिट में से एक -62आरआर- के शामिल होने से तो घाटी में मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति सुरक्षा बलों के दृष्टिकोण को लेकर ही बेहद गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं. राजनीतिक सरकार के तहत आने वाली जम्मू-कश्मीर पुलिस, जो इस तरह के संदिग्ध मामलों में स्वतंत्र जांच करती है, का आचरण भी संदेह के दायरे में ही है. सेना में विभिन्न स्तर के अधिकारी भी मानवाधिकारों के रक्षक के तौर पर काम करने के बजाये इसी नक्शेकदम पर चलते नजर आ रहे हैं.
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‘मुठभेड़’
18 जुलाई 2020 को तड़के 62आरआर, जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की संयुक्त टीम ने जम्मू-कश्मीर में शोपियां जिले के अमशीपुरा गांव में तीन ‘आतंकियों’ को मार गिराया था. इस मुठभेड़ का काफी प्रचारित किया गया और 12 सेक्टर आरआर के कमांडर ने खुद प्रेस को जानकारी दी और मुठभेड़ का ग्राफिक ब्योरा मुहैया कराया. काफी समय से शोपियां जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का केंद्र बना हुआ है और इससे निपटने के लिए 62आरआर ने अग्रिम मोर्चा संभाल रखा है. आतंकवाद के खिलाफ अपने उल्लेखनीय अभियानों के लिए इस यूनिट को कई बार उत्तरी कमान के जीओसी-इन-सी और सेना प्रमुख की तरफ से श्रेष्ठ यूनिट का प्रशस्ति पत्र भी मिल चुका है.
‘सर्जिकल एनकाउंटर’ के तीन हफ्ते बाद इस पर तब सवाल खड़े हो गए जब तीन लापता व्यक्तियों के संबंध में राजौरी जिले में एफआईआर दर्ज कराई गई. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार यह दरअसल एक ‘फर्जी मुठभेड़’ थी. कामकाज के लिए राजौरी से शोपियां आए तीन बेरोजगार मजदूरों को कथित तौर पर निर्ममता से मार दिया गया था, जो एक तरह से 2010 की माछिल मुठभेड़ की पुनरावृत्ति ही थी. 18 सितंबर को सेना को इस मामले में जांच का आदेश देने को बाध्य होना पड़ा और अप्रत्याशित तौर पर उसने कहा कि अमशीपुरा मुठभेड़ में ‘अफस्पा 1990 के तहत निहित शक्तियों का दुरुपयोग किया गया.’ इस केस में साक्ष्य जुटाने की प्रक्रिया चल रही है, जिसके बाद दोषियों के खिलाफ कोर्ट मार्शल संभावित है.
एक गलत कार्रवाई
मेरा आकलन है कि यह मुठभेड़ यूनिट की उपलब्धि और प्रतिष्ठा बढ़ाने की कोशिश में यूनिट या कंपनी के स्तर पर की गई एक गलत कार्रवाई है.
मजदूर चौगाम गांव में 62आरआर के एक ठिकाने से थोड़ी दूरी ही एक मकान किराये पर लेकर रह रहे थे. यूनिट/सब यूनिट को राजौरी से मजदूरों के आने और उनकी लोकेशन के बारे में खुफिया जानकारी अपने मुखबिरों के माध्यम से मिली होगी. मैं आर्थिक पुरस्कार पाने के लिए सैनिकों को गुमराह करने वाले मुखबिरों की संभावना से भी इनकार नहीं करूंगा. हालांकि, सैनिकों को मुखबिरों के ऐसी संदिग्ध कृत्यों के बारे में अच्छी तरह से पता होता है और उनकी जानकारी सत्यापित करना जरूरी माना जाता है. 18 जुलाई की रात को संभवत: पीड़ितों को चौगाम से 11 किमी दूर अमशीपुरा ले जाया गया, जहां वे एक कथित मुठभेड़ में मारे गए. ऐसा लगता है कि मुठभेड़ स्थल पर हथियार रखे और ‘बरामद’ किए गए थे.
ग्रामीणों का कहना है कि उन्होंने 18 जुलाई को देर रात एक बजे के आसपास पहली गोली की आवाज सुनी. फिर करीब 2 बजे दो और गोलियां चलने की आवाज आई. सुबह 7 बजे के आसपास उन्होंने एक तेज धमाके की आवाज सुनी और कुछ गोलियां दागी गईं. यह वर्जन 12 सेक्टर आरआर के कमांडर के बयान के विपरीत है, जिन्होंने भारी गोलीबारी होने का दावा किया था. अभियान को अंजाम देने का पूरा तरीका और मुठभेड़ के बाद सामने आई कहानी दर्शाती है कि यह गलत पहचान का मामला तो कतई नहीं था. मानक प्रक्रिया के विपरीत जम्मू-कश्मीर पुलिस और सीआरपीएफ सैन्य अभियान का हिस्सा नहीं थे. जैसा कि कमांडर ने बताया, वे बाद में अभियान में शामिल हुए और पत्थरबाजों को दूर रखने में जुटे रहे. हालांकि, ग्रामीणों ने किसी तरह के पथराव का कोई जिक्र नहीं किया है. मेरे आकलन के अनुसार, जम्मू-कश्मीर पुलिस और सीआरपीएफ इस अभियान का हिस्सा नहीं थे. लेकिन, वे सराहना का हिस्सा बनने के लिए चुप्पी साधे रहे.
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हर स्तर पर गड़बड़ी
एक बार मुठभेड़ खत्म होने के बाद इससे कुछ सीखने के लिए यूनिट स्तर पर पोस्टमार्टम कराया जाता है. शीर्ष मुख्यालयों में बैठे कमांडरों को अभियान के बारे में जानकारी दी जाती है. अपने अच्छे-खासे अनुभव के चलते ब्रिगेड स्तर और उससे ऊपर के कमांडर परिस्थितियों के आधार पर यह आकलन कर पाते हैं कि कहीं इसमें कोई गड़बड़ी तो नहीं हुई है जिसके लिए जांच की जरूरत हो. इस मामले में वे अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम रहे है और इसे ‘अच्छा काम’—अपने संगठन की एक और सफल मुठभेड़—बताने में जुट गए.
बतौर सैन्य कमांडर मैं और मेरा स्टाफ मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं या फैसलों की गलती को लेकर बहुत सतर्क रहा है जिनमें जांच जरूरी होती है. एक सैन्य कमांडर के तौर पर एक से ज्यादा बार ऐसे मौके आए जब मैंने कवर-अप रोकने, गलत कार्रवाई स्वीकारने और अनुशासनात्मक कार्रवाई सुनिश्चित करने में हस्तक्षेप किया.
जम्मू-कश्मीर के लिए एक बड़ा झटका
मीडिया और जनता के दिमाग में नए-राष्ट्रवाद की भावना हावी होने के कारण इस मामले ने उतना ध्यान आकृष्ट नहीं किया जितना होना चाहिए था. मेरे विचार में यह जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के लिए एक बड़ा झटका है जो लोगों से जुड़ने के लिए ईमानदार प्रयास कर रहे हैं. खासकर तब जब ‘निर्दोष’ पीड़ित राजौरी जिले के रहने वाले थे, जिसमें और जिसके पड़ोसी जिले पुंछ में पिछले करीब दशक में आतंकवादी हिंसा की घटनाएं ना के बराबर हुई हैं.
किसी गलती की गुंजाइश न रहने देने के लिए मनोज सिन्हा की ओर से यह सुनिश्चित करना उपयुक्त होगा कि पुलिस सभी मुठभेड़ों की जांच करे, जैसा कि राजनीतिक सरकारों के तहत किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट के भी निर्देश हैं कि हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में मुठभेड़ समेत सभी मौतें की पुलिस जांच होनी चाहिए. इस केस में संदिग्ध परिस्थितियों के बावजूद पुलिस ने वॉचडॉग की भूमिका निभाने के बजाये उससे सहमति जताई और जांच नहीं की.
यह मुठभेड़ हमारी सेना की प्रतिष्ठा पर भी एक धब्बा है. खुले तौर पर इस तरह की गलत कार्रवाई सेना और केंद्र सरकार के बारे में लोगों के बीच नकारात्मक धारणा मजबूत करेगी. इससे आतंकवादियों और पाकिस्तान के दुष्प्रचार को भी बल मिलेगा.
मामले को तार्किक निष्कर्ष पर ले जाएं
हमारी सेना ने आदर्श स्थिति और लोगों को ध्यान में रखकर काउंटर-इंसर्जेंसी अभियान चलाने के लिए एक प्रतिष्ठा अर्जित की है. ऐसे में इसकी श्रेष्ठ यूनिट में से एक द्वारा इस तरह की गलत कार्रवाई को अंजाम दिया जाना बताता है कि कहीं कुछ गंभीर खामी है. मैं अपनी फिंगर क्रास करके सिर्फ यही उम्मीद कर सकता हूं कि एक ऐसी एकमात्र घटना होगी, और इसका ढर्रा नहीं बनेगा.
सेना को यह सुनिश्चित करना होगा कि मामला अपने तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचे. केवल यह कहना मात्र कि ‘अफस्पा 1990 के तहत निहित शक्तियों का दुरुपयोग किया गया’ भरोसा कायम करने के लिए पर्याप्त नहीं है. अफस्पा में केवल वैध और पूरे भरोसे वाली कार्रवाइयां शामिल होती हैं. इस मामले में यह अधिनियम बिल्कुल भी लागू नहीं होता है. अपराधियों पर आर्मी एक्ट की धारा 69 के साथ आईपीसी की धारा 302 जोड़कर हत्या की कोशिश का मामला चलना चाहिए
कोर्ट मार्शल को विधिपूर्वक अंजाम दिया जाना चाहिए, ताकि यह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण और सुप्रीम कोर्ट में कानूनी आधार पर टिक सके. यह मामला माछिल मुठभेड़ केस की राह पर नहीं जाना चाहिए, जिसमें अभियुक्तों को मिली सजा सशस्त्र बल न्यायाधिकरण ने निलंबित कर दी थी. हमारे सामने डांगरी कोर्ट मार्शल जैसे प्रक्रियात्मक उल्लंघन के उदाहरण भी है जिसमें कड़ी सजा सुनाए जाने के बावजूद अभियुक्तों को खुली छूट मिल जाती है. विश्वास बहाली के लिए यही उचित होगा कि सेना इस मामले की प्रगति पर मीडिया और परिजनों को औपचारिक तौर पर जानकारी मुहैया कराए.
उम्मीद की किरण
उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने इस मामले की गंभीरता को समझा है और उन्होंने लोगों को यह आश्वस्त करने के लिए दखल भी दिया कि न्याय होगा. वह 6 घंटे तक सड़क मार्ग से यात्रा और 4 किलोमीटर पैदल चलकर राजौरी जिले के तारकासी गांव पहुंचे और पीड़ित परिवारों के प्रति अपनी संवेदना जताई. यह संभवत: पहली बार है जब किसी राज्यपाल ने इस तरह का कोई कदम उठाया है.
यह भी पहला मौका है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मामले में हस्तक्षेप किया है. मनोज सिन्हा ने तारकासी दौरे के समय कहा, ‘मैंने परिवारों से मुलाकात की. मैंने उनके साथ अपनी सहानुभूति जताई. साथ ही आश्वस्त किया कि भारत के प्रधानमंत्री ने परिजनों को यह संदेश देने को कहा है कि इस मामले में न्याय होगा और उनकी पूरी देखभाल की जाएगी.’
यह मामला नरेंद्र मोदी सरकार के लिए लिटमस टेस्ट है. मामले को उसके तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचाया जाए और इसे जम्मू-कश्मीर के लोगों का दिल जीतने की बहुप्रतीक्षित राजनीतिक पहल की शुरुआत बनाया जाए ताकि समस्या हल हो सके.
(लेफ्टिनेंट जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवाएं दीं. उत्तरी कमान और मध्य कमान के जीओसी-इन-सी रहे हैं. सेवानिवृत्ति के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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ये चैनल और ये लेखक दोनों ही हमारी सशस्त्र सेना का मनोबल तोड़ने में अपनी विशेषज्ञता दिखाने वाले हैं जिनके सारे लेख देश और सेना के खिलाफ होते हैं। ऐसे में कभी अगर वो सच भी बोलें तो झूठ ही लगता है। सेना अपना काम भली भांति जानती है। कुछ रिटायर्ड लोग हैं जिनका काम ही इनको बदनाम करने है। ईश्वर जाने, ये कुर्सी पर रहते हुए क्या किया होगा। इनको सेना के बयान से ज़्यादा वहां के लिकल पत्रकार पर होता है जो कि अलगाववादी विचारधारा या उनके भय से पीड़ित होते हैं। उनके रिपोर्टिंग के आधार पर अपनी घृणित प्रतिक्रिया ऐसे लोग ही दे सकते हैं।