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Friday, 15 November, 2024
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बिहार में नीतीश कुमार के सुशासन की हकीकत को उजागर करती किताब ‘रुकतापुर’

रुकतापुर एक रिपोर्टर की डायरी है जिसके भीतर अनुभवों की एक विशाल दुनिया है. एक नज़रिया है जिससे वो अपने प्रदेश को देख और समझ कर उसकी हकीकत बयान कर रहा है.

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बिहार के बारे में सोचने पर अक्सर श्रीकांत वर्मा की प्रसिद्ध कविता ‘मगध ‘ याद आ जाती है. उनकी कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-

तुम भी तो मगध को ढूंढ़ रहे हो
बंधुओं,
यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गंवा
चुके हो…

जिस मगध को गंवा देने की बात श्रीकांत वर्मा ने आज से करीब चार दशक पहले की थी आज वो पूरे बिहार का सच हो चला है. जिस बिहार के ऐतिहासिक पहलुओं को पढ़कर-जानकर बिहार के लोग गर्व से सीना फुला लेते हैं वही उसकी मौजूदा हकीकत को सुनना भी नहीं चाहते. यही आज की सच्चाई बन कर रह गई है.

उत्तर भारत में चुनावों के समय अलग ही मिज़ाज बनता है. इसमें भी बिहार और उत्तर प्रदेश में हो रही राजनीतिक गतिविधियों पर लोग विशेष तौर पर नज़रें लगाए रहते हैं. संयोग है कि कुछ हफ्तों के बाद ही बिहार विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और फिर से करोड़ों लोगों की किस्मत दांव पर लगने वाली है. दांव पर लगा होना इसलिए कहना ठीक होगा क्योंकि जिस डबल डिजिट विकास की बात प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार करते आए हैं, सच्चाई उससे मेल नहीं खाती है- इस बात को आंकड़ों के साथ पुष्यमित्र ने अपनी हालिया किताब ‘रुकतापुर ‘ में सामने रखा है.

आंकड़ों की तंग गलियों के सहारे और उसमें बिना फंसते हुए विकास के बड़े-बड़े आख्यानों को ज़मीनी हकीकत से पुष्यमित्र ने अपनी किताब ‘रुकतापुर ‘ में ध्वस्त किया है. कोई भी व्यक्ति अपने शहर और राज्य को विकास के किए दांवों की चकाचौंध तले अंधेरे में जाते हुए पीड़ा का ही अनुभव करेगा लेकिन इन सच्चाइयों को नज़रअंदाज कर आगे बढ़ जाना निर्लज्जता ही कही जाएगी.

पुष्यमित्र की किताब अपनी टाइमिंग की वजह से भी उल्लेखनीय और दिलचस्प हो जाती है. खासकर इस किताब का नाम ‘रुकतापुर ‘ भी पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है. लेखक बिहार के उन सच्चाइयों से रूबरू कराता है जिसने प्रदेश को रोक कर रखा हुआ है और उसे आगे नहीं बढ़ने दे रहा. ये बंधन सामाजिक भी हैं और राजनीतिक भी. लेखक ने बड़ी स्पष्टता और हिम्मत के साथ प्रदेश की हकीकत को बयान किया है.

रुकतापुर एक रिपोर्टर की डायरी है जिसके भीतर अनुभवों की एक विशाल दुनिया है. एक नज़रिया है जिससे वो अपने प्रदेश को देख और समझ रहा है. इसलिए तो वो अपने रुके हुए बिहार में उसी की रफ्तार से चलता है और ऐसे अनूठे सच से टकराता है जिसपर कभी-कभी उसे भी ताज्जुब होना पड़ जाता है.

लेखक किताब की भूमिका में स्पष्ट तौर पर कहता है, ‘यह एक रिपोर्टर की डायरी भर है जो बिहार में यहां-वहां भटकते हुए उन चेहरों से टकराता है, जिनका कहना है- चमकीली सड़कों और बिजली के चमकते बल्बों के पीछे अंधेरों की एक बड़ी दुनिया है. यही नीतीश जी के 15 साल के शासन का सच है.’

पुष्यमित्र की किताब रुकतापुर | फोटो: सोशल मीडिया

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ठहरा हुआ प्रदेश, अनजान है देश

किताब की शुरुआत से ही लेखक अपने पाठकों को एक सफर पर ले चलता है. कभी वो सफर रेल से होता है तो कभी मोटरसाइकिल पर. बीते सालों में रेलगाड़ियों की लेटलतीफी की खबरें हमसे होकर भी अक्सर टकाराई हैं. जहां गाड़ियां कई-कई घंटों लेट अपने गंतव्य तक पहुंचती हैं. ऐसी लेट ट्रेनों में बिहार जाने वाली कई गाड़ियां भी शामिल हैं.

वहीं दूसरी तरफ लोग 2-3 दिनों तक ट्रेन पकड़ने की जद्दोजहद में भी लगा देते हैं. इस बात का ज़िक्र लेखक ने किया भी है. सहरसा से पंजाब के लिए चलने वाली गाड़ियों का इंतज़ार लोग कई दिनों तक करते हैं. इसका कारण हज़ारों की संख्या में रोज़गार की तलाश में निकलना है जिसके चलते गाड़ियां कम पड़ जाती हैं और लोग स्टेशन पर सत्तू और मूढ़ी खाकर दिन काटने पर मजबूर हो जाते हैं.

प्रदेश की सिर्फ ये ही समस्या नहीं है. देश के लोग इस बात को तो जानते ही हैं कि बिहार के कई जिले हर साल बाढ़ के कारण डूब जाते हैं. खासकर कोसी और गंगा से सटे इलाके. लेखक अपनी किताब में उन इलाकों की दुश्वारियों को सामने लाता है और ठीक उसी समय बाढ़ से होने वाली तबाही के कारणों को भी जानने की कोशिश करता है.

लेखक बताता है कि बिहार में नदियों की जितनी लंबाई नहीं है उससे भी ज्यादा लंबे तटबंध बन चुके हैं और आने वाले समय में इसके विस्तार की भी योजना है.

गौरतलब है कि प्रदेश में बहने वाली नदियों की कुल लंबाई 2943 किलोमीटर है जबकि अभी तक 3731 किलोमीटर लंबे तटबंध का निर्माण किया जा चुका है और आने वाले समय में 1550 किलोमीटर तटबंध बनाने की योजना है. अगर ऐसा होता है तो नदियों की कुल लंबाई से दोगुनी लंबाई राज्य में तटबंधों की हो जाएगी.

एक तरफ तो साल के कई महीने लोग बाढ़ के पानी के बीच काटते हैं वहीं कुछ ऐसे भी हिस्से हैं जहां पानी की उपलब्धता कम होती जा रही है. ये जानकर हैरानी होगी कि मिथिला को जल संपन्न क्षेत्र माना जाता रहा है लेकिन अब ऐसी स्थिति हो चली है कि लोग कई किलोमीटर दूर जाकर गैलन में पानी भर के अपना काम चलाने को मजबूर हैं. साथ ही प्रदेश का शायद ही कोई इलाका हो जहां साफ पानी लोगों को मिलता हो.

इस बात को सरकार के आंकड़ों से समझा जा सकता है. प्रदेश में करीब एक लाख तैंतीस हज़ार, 342 तालाब हैं जिनमें से 33 हज़ार बुरी स्थिति में है. वहीं सिर्फ 30,970 तालाबों में ही पानी की उपलब्धता सही तरीके से है. एक और सच्चाई ये है कि लोग अतिक्रमण कर तालाबों पर कब्ज़ा कर रहे हैं जिससे सरकार निपटने में असफल हो रही है.

उत्तर बिहार के क्षेत्र आयरन युक्त पानी पीने को मजबूर हैं तो मध्य बिहार आर्सेनिक युक्त तो दक्षिण बिहार फ्लोराइड युक्त पानी. विषैला पानी पीने का परिणाम लोगों पर क्या हो सकता है इसे लेखक ने अपने अनुभवों के ज़रिए विस्तार से किताब में बताया है.

2019 में पूरे देश की नज़रें मुज़फ़्फ़रपुर की तरफ तब जा मुड़ी थी जब वहां इंसेफेलाइटिस यानी चमकी बुखार से बच्चों की मौत की खबरें सामने आ रही थी. लेखक ने प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर एक साफ दृष्टि देने का काम किताब में किया है. जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर अस्पतालों तक की कमी है और डॉक्टर तो डिबिया लेकर घूमने पर भी नहीं मिलेगा.

आंकड़ों का हवाला देकर लेखक बताता है, ‘राज्य सरकार ने जुलाई 2019 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर जानकारी दी थी कि उनके राज्य में डॉक्टरों के 57 फीसदी पद और नर्सों के 71 फीसदी पद रिक्त हैं.’

इससे साफ समझा जा सकता है कि प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं का आखिर हाल कैसा होगा. कोरोना काल का ही जिक्र करें तो हमारे सामने ऐसी कई तस्वीरें आई थी जहां अस्पतालों में डॉक्टर नहीं है और स्टाफ की भारी कमी का सामना लोगों को अपनी जान गंवा कर करना पड़ा. ये भी विडंबना ही कही जाएगी कि महामारी के दौरान ही राज्य में कई बार स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव को बदलना पड़ गया.

बिहार में महिलाओं की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है. एक तरफ तो वो शोषण का शिकार होती हैं वहीं सामाजिक दंश को भी झेलती हैं. लेखक उन प्रसंगों का ज़िक्र करता है जहां उत्तर प्रदेश और हरियाणा से आकर लोग प्रदेश की बेटियों से शादी करते हैं. लेकिन इसके पीछे की सच्चाई दिल-दहलाने वाली है. उन प्रदेशों में उनके साथ काफी खराब बर्ताव होता है और तस्करी का पूरा रैकेट काम करता है. लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि प्रदेश की महिलाओं की शादियां भी नहीं होती हैं जिसके कारण जीवन काटना उनके लिए दूभर हो जाता है.

रोज़गार के सवाल पर भी प्रदेश की स्थिति काफी खराब है. प्रवास इस राज्य की हकीकत बन गई है. राज्य में नए उद्योग लग नहीं रहे हैं और जो पहले से हैं उनकी उतनी क्षमता नहीं है कि वो लोगों को रोज़गार दे सके. इसलिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे राज्यों की तरफ लोगों को रोजगार की तलाश में जाना ही पड़ता है.

इन तमाम सच्चाइयों के कारण बनी स्थिति से ही बिहार की विकास की गाड़ी पटरी पर लौट नहीं पा रही है. विकास की बात तो हर कोई करता है लेकिन ग्राउंड जीरो पर कोई ठोस बदलाव होता दिखता नहीं है या उस रफ्तार से काम नहीं होता जिसकी ज़रूरत है. इसलिए किताब का टाइटल ‘रुकतापुर ‘- बिहार की मौजूदा हालात पर एकदम ठीक बैठता है और लेखक द्वारा प्रदेश की समस्याओं की पड़ताल भी विश्वसनीय जान पड़ती है.


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खूबसूरत आवरण

समीक्षा करते वक्त अक्सर किताब के कई और पहलुओं को नज़रअंदाज कर दिया जाता है. जैसे किताब का आवरण (कवर) कैसा है और उससे क्या संदेश उभरता है. इसलिए आवरण पर बात करना भी ज़रूरी है. इसलिए बिना लागलपेट के ये कहा जा सकता है कि पुष्यमित्र की किताब का आवरण भी अपने आप में एक गहरी सच्चाई लिए हुए है. आवरण में एक ऐसे पुल को दिखाया गया है जो ठीक स्थिति में तो है लेकिन उसपर चढ़ने के लिए रास्ता नहीं है.

यही सच्चाई बिहार की भी है. राज्य के विकास के लिए नीतियां तो बनती हैं जिसे लोगों की भलाई को ध्यान में रखकर ही बनाया जाता होगा लेकिन उन नीतियों को लागू करने की जो ज़मीन है वही जर्जर स्थिति में है.

भाषाई तौर पर लेखक सामान्य और स्पष्ट नज़र आता है जो कि किताब में दर्ज कहानियों के उन शोषित-पीड़ित किरदारों के साथ न्याय करती है. उन्हीं के लहज़े में लेखक पाठकों को स्थिति से रूबरू कराता है. लेखक अपनी विषयवस्तु से कहीं भी भटकता हुआ नहीं दिखता है.

पुष्यमित्र अपनी किताब ‘रुकतापुर ‘ में बिहार के विकास के स्याह पक्ष को अपनी स्याही से उभारते हैं और ऐसा करने में वो कई हद तक कामयाब दिखाए देते हैं. इसलिए सामाजिक-राजनैतिक तौर पर बैचेनी रखने वाले हर शख्स को इस किताब से ज़रूर गुज़रना चाहिए और अपने-अपने प्रदेशों के उन रुकतापुरों की भी खोज़ करनी चाहिए ताकि ये पता चल सके कि विकास की हर गाड़ी का पहिया आखिर कहां थम जाता है.

(रुकतापुर को राजकमल प्रकाशन के उपक्रम सार्थक प्रकाशन ने छापा है. पुष्यमित्र इस किताब के लेखक हैं)


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