पटना: रामविलास पासवान के लिए लगातार आ है रही संवेदनाओं के बीच, बिहार का कथानक अब इस बात पर शिफ्ट हो गया है कि क्या सूबे के सबसे बड़े दलित नेता की मौत, तीन चरणों के विधानसभा चुनावों पर कोई असर डालेगी, जो 28 अक्तूबर से शुरू होने जा रहे हैं.
राजनेताओं और एक्सपर्ट्स के बीच आमराय है कि एक ‘सहानुभूति लहर’ तो होगी, लेकिन उसका चुनावों पर कितना असर होगा, इसे लेकर मतभेद हैं. ये और महत्वपूर्ण इसलिए हो जाता है कि पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी), जिसके मुखिया अब उनके बेटे चिराग पासवान हैं, अकेले दम पर मैदान में उतरते हुए 243 में से 143 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है.
बीजेपी एमएलसी समृत चौधरी ने दिप्रिंट से कहा, ‘रामविलास जी नि:स्संदेह तीन दशकों से अधिक समय तक, सबसे बड़ी राजनीतिक हस्तियों में से एक थे. उनकी मौत पर खगड़िया में बहुत दुख है, जो उनका पैतृक स्थान है’.
पटना विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एनके चौधरी ने दिप्रिंट से कहा, ‘हमदर्दी की लहर तो होगी, लेकिन वो बहुत सीमित होगी, और इतनी नहीं होगी कि चुनावी नतीज़ों को प्रभावित कर सके’.
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उन्होंने आगे कहा, ‘हमदर्दी की लहर इस बात से परिभाषित होती है कि नेता का सामाजिक आधार क्या था. रामविलास पासवान एक बड़े नेता थे, लेकिन उनका सामाजिक आधार दलितों के एक वर्ग तक सीमित था. पासवान समुदाय और कुछ दूसरी जातियों के वोट एकजुट हो सकते हैं, जो उनके बारे में अच्छी राय रखती थीं. लेकिन मुझे पूरे बिहार में सहानुभूति की लहर की संभावना नहीं लगती.
‘पासवान जी को ख़ुद कभी बिहार के पूरे वर्गों का समर्थन नहीं मिला, और उनके बेटे को एक दिल्लीवासी के रूप में देखा जाता है, जो रात रात में बिहार का चक्कर लगाते हैं’.
लेकिन कुछ दूसरे लोग ऐसे भी हैं, जिनका मानना है कि केंद्रीय मंत्री की मौत का चुनावों पर काफी प्रभाव पड़ेगा.
पूर्व एमएलसी प्रेम कुमार मणि, जो फिलहाल आरजेडी के साथ हैं, ने कहा, ‘पासवान जी को केवल एक दलित नेता मानना ग़लत है. उन्होंने भी वही राजनीति की, जो लालू और नीतीश करते हैं- दबे कुचले लोगों की हिमायत की राजनीति’.
उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन 1997 में लालू से अलग होने के बाद पासवान जी ने ऊंची जातियों के साथ भी रिश्ते बनाने शुरू किए. इसलिए उनकी मौत का असर कहीं अधिक गहरा होगा’.
उन्हीं जैसे विचार पूर्व सांसद और जेडी(यू) नेता, रंजन प्रसाद यादव ने भी व्यक्त किए, जो 2009 तक पासवान के क़रीबी सहयोगियों में थे. उन्होंने कहा, ‘पासवान जी के रिश्ते समाज के सभी वर्गों के साथ थे, मुसलमानों के साथ भी, और यही वजह है कि मुसलमानों ने उन्हें वोट दिए हैं’.
लेकिन एक सीनियर जेडी(यू) नेता ने कहा कि पासवान की मौत का चुनावों पर सीमित असर होगा. उन्होंने कहा, ‘ये असर उनके अपने समुदाय तक सीमित रहेगा’.
‘उनके पास दूसरे वर्गों का कोई समर्थन नहीं था. उनकी मौत अप्राकृतिक नहीं थी. वो बुज़ुर्ग थे और बीमार चल रहे थे’.
सहानुभूति की लहर नीतीश को चोट पहुंचा सकती है
अगर कोई सहानुभूति की लहर पैदा होती है तो वो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को प्रभावित कर सकती है.
इन चुनावों में नीतीश की जेडी(यू) और एलजेपी के बीच कटुता मुखर हुई है. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा रहते हुए भी, एलजेपी ने जेडी(यू) के खिलाफ उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है, बीजेपी के नहीं.
इससे पहले चिराग पासवान के मुख्यमंत्री के साथ, कई बार झगड़े हो चुके थे.
लेकिन ये कटुता बरसों से चली आ रही है.
2000 में, जब नीतीश एक अल्पमत सरकार के मुखिया बने, जो सिर्फ 13 दिन चली, तो ये पासवान ही थे जिनसे जेडी(यू)-बाजेपी गठबंधन ने समर्थन मांगा था. पासवान ने प्रस्ताव ठुकरा दिया.
उसके बाद नीतीश ने विधानसभा और विधान परिषद के, एलजेपी सदस्यों को अपनी तरफ तोड़कर पासवान को निशाना बनाया है. उन्होंने बिहार में एलजेपी की विधायी विंग को कभी उभरने नहीं दिया.
2009 में, मुख्यमंत्री ने राज्य के 23 में से 22 दलित वर्गों को वित्तीय सहायता देकर, एक महादलित वोट बैंक बनाने का प्रयास किया.
नीतीश कुमार ने एक महादलित वोट बैंक तैयार किया, जिसे वित्तीय सहायता देने के लिए, उन्होंने 23 में से 22 दलित वर्गों को एक जगह कर दिया. एक मात्र समुदाय जिसे उन्होंने बाहर रखा, वो पासवान था.
2000 की घटना के बाद, एलजेपी ने नीतीश के साथ मिलकर कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा है.
लेकिन एलजेपी को अभी ख़ुद बहुत काम करना है. 2015 के विधानसभा चुनावों में, वो 42 सीटों पर लड़ी, जिसमें से उसे केवल दो हाथ लगीं.
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