चीन के साथ सीमा पर गतिरोध खत्म करने की भारतीय कूटनीति वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति बहाली को व्यापक भारत-चीन संबंधों से जोड़ने पर केंद्रित नजर आती है. मॉस्को में विदेशी मंत्रियों एस. जयशंकर और वांग यी के बीच बैठक के बाद जारी भारत के आधिकारिक बयान के मुताबिक, नई दिल्ली की स्थिति यह है कि ‘संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए सीमा क्षेत्रों में शांति और स्थिरता बनाए रखना आवश्यक है.’ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में दिए अपने बयान में भी इसी बात पर जोर दिया था. भारत की चेतावनी एकदम साधारण-सी है : यदि चीन एलएसी पर आक्रमण करता है तो भारत के साथ संबंध बिगड़ने की कीमत चुकाएगा. लेकिन कीमत क्या होगी यह तय न होने से इसकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठते हैं.
सीमा पर शांति और राजनीतिक रिश्तों के बीच संबंध नई दिल्ली के लिए स्पष्ट तो लग सकते हैं, लेकिन यह संभवतः दो बहस योग्य धारणाओं पर आधारित हैं. पहली धारणा है सीमा मुद्दे और व्यापक रिश्तों के बीच संबंध, जिसे चीन साझा नहीं करता. दूसरी धारणा भी इसी में निहित है कि भारत के साथ रिश्ता चीन के लिए काफी मायने रखता है, क्योंकि निश्चित तौर पर इसके अपने खतरे हैं.
एक ही नाव पर सवार नहीं
पहली समस्या इन्हें एक-दूसरे से जोड़ने की ही है. भारत के बार-बार यह दोहराने के बावजूद, मास्को बैठक के बाद दोनों पक्षों की तरफ से जारी पांच-बिंदुओं वाला संयुक्त बयान सीमा पर टकराव और द्विपक्षीय संबंधों के बीच कोई साम्य परिलक्षित नहीं करता है. भारत के इस रुख कि रिश्ते द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित करने वाले होंगे, के विपरीत बयान साधारण तौर पर यही कहता है कि एलएसी पर गतिरोध ‘दोनों पक्षों के हित में नहीं’ है. बैठक के बाद चीन का बयान न केवल इसे एक-दूसरे से अलग बताता नजर आता है बल्कि जयशंकर के इस विचार पर भी इसमें खास जोर दिया गया है कि संबंध ‘सीमा विवाद सुलझाने’ पर निर्भर नहीं है.
हालांकि, यह भारतीय रुख को एकदम स्पष्ट करते हुए–भारत यह भी स्वीकारता है कि एलएसी पर सीमा विवाद को लेकर सारे मसले तुरंत हल नहीं किए जा सकते–यह भी बताता है कि चीन के बयान में उस संबंध को नजरअंदाज कर दिया गया है जो भारतीय पक्ष ने सीमा पर शांति और द्विपक्षीय रिश्तों के बीच बताया था. बैठक को लेकर भारत का बयान चीन के अपनी बात रखे जाने के बाद आने से ऐसा भी लगता है कि भारत इस संबंध पर दृढ़ता से जोर देना चाहता है. लेकिन यह केवल यही दिखाता है कि यह बात परस्पर स्वीकार्य नहीं है.
यह भी पढ़ें:अमेरिका ने चीन से अलग होना शुरू कर दिया है, भारत को कम नुकसान हो इसपर मोदी सरकार को काम करना चाहिए
वार्ता पर अंधेरे में तीर चलाने वाली स्थिति
दूसरा मुद्दा है इसे एक-दूसरे से जोड़ने की अहमियत क्या है. इस पर जोर को भारत की एक चेतावनी के तौर पर देखा जा सकता है कि व्यापक द्विपक्षीय संबंध लद्दाख में मौजूदा गतिरोध के संतोषजनक समाधान पर निर्भर हैं. भारत अपनी धमकी को कार्रवाई में बदल भी रहा है–चीनी ऐप्स पर पाबंदी, चीनी निवेश सीमित करने के प्रयास, क्वाड मीटिंग की घोषणा, मालाबार अभ्यास के लिए ऑस्ट्रेलिया को आमंत्रण के संकेत और भारत में 5जी के बुनियादी ढांचे से हुआवेई को बाहर करने जैसे सभी कदम पर चीन को यह संकेत देने वाले ही हैं कि उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.
चीन को दिए भारत के संदेश में यह वादा भी शामिल है कि कम से कम राजनीतिक मोर्चे पर तो रिश्ते पहले जैसी स्थिति में आ सकते हैं बशर्ते एलएसी में भी यथास्थिति बहाल हो जाए या कम से कम भविष्य में यथास्थिति बदलने की कोई कोशिश न हो और एलएसी पर सुरक्षा बलों को घटाया जाए.
लेकिन धमकी तभी काम करती है जब वह उतनी असरदार हो जितनी भारत की तरफ से मानी जा रही है. यदि चीन की राजनीतिक संबंधों को सुधारने के लिए कुछ खास कदम उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं है तो भारत की तरफ से इसकी चेतावनी देना निर्रथक ही साबित हो सकता है. उदाहरण के तौर पर 1962 में चीन निश्चित तौर पर इस तथ्य से अवगत था कि युद्ध का भारत के साथ रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा, लेकिन उसने इससे गुरेज नहीं किया. इसका आशय यह कतई नहीं है कि चीन की भारत के साथ अच्छे संबंधों में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन वह इसे जरूरत से ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहता. दूसरी तरह से कहें तो चीन अच्छे संबंध तो चाहता है बशर्ते वह स्वतंत्र और बिना शर्त हों. भारत के हालिया अनुभव इसे दर्शाते हैं.
यह भी पढ़ें: आतंक पर पाक के खिलाफ भारत का रवैया रक्षात्मक रहा है पर चीन के साथ ऐसी रणनीति नहीं चलेगी
भारत के हित कहीं और निहित
लद्दाख गतिरोध खत्म करने के लिए भारत की ओर से चीन के समक्ष रखी गई मौजूदा पेशकश वही थी जो 2017 में डोकलाम गतिरोध के बाद वार्ता की मेज पर थी. 73 दिनों के सैन्य टकराव के बाद भारत ने वुहान शिखर सम्मेलन के साथ एलएसी पर शांति, और क्वाड को धीमा करने जैसे आश्वासनों के फायदे दर्शाने का प्रयास किया. लेकिन स्पष्ट तौर पर यह कारगर नहीं रहा. यहां तक की मामल्लापुरम में दूसरा ‘अनौपचारिक’ शिखर सम्मेलन होने तक संबंध बेहद बिगड़ चुके थे.
फिर इसी तरह के किसी समझौते की कोशिश से पहले यह विचार करना ज्यादा विवेकपूर्ण होगा कि वुहान में बात क्यों नहीं बनी थी. आखिरकार, चीन ने 1990 के दशक में भारत के साथ मिलकर विश्वास बढ़ाने वाले कदमों (सीबीएम) की रूपरेखा तय की थी, जो दो दशकों तक बहुत अच्छी तरह कायम रहे. यह फिर काम क्यों नहीं करेगा?
एक अच्छी परिकल्पना यह हो सकती है कि चीन सीबीएम और एलएसी पर शांति का सहारा सिर्फ इसलिए ले रहा था ताकि इसका आर्थिक विकास का पटरी से न उतरना सुनिश्चित हो सके और रणनीति अब अपना काम कर चुकी है. यह दक्षिण चीन सागर में, जापान और ऑस्ट्रेलिया तथा अन्य के प्रति और उसकी आक्रामक ‘वुल्फ वॉरियर डिप्लोमैसी’ पर उसके व्यापक व्यवहार को उजागर कर सकता है. शांति सीबीएम का नतीजा नहीं थी बल्कि यह चीन की रणनीति का हिस्सा थी. विश्वास बढ़ाने के पुराने कदमों पर लौटने का और इसमें कुछ और ज्यादा जोड़ने का कोई भी प्रयास सफल रहने की बात सोचना भी अविवेकपूर्ण हो सकता है.
यह बात अच्छी तरह समझना भारत के हित में होगा कि चीन के साथ राजनीतिक सौदेबाजी और फिर उसके अनुरूप कोई कदम उठाना ज्यादा कारगर नहीं है. भारत के लिए अगर कुछ भी हितकर है तो वह वास्तव में सैन्य क्षेत्र में निहित है. यद्यपि भारत में अप्रैल के बाद से गंवाए क्षेत्रों को फिर हासिल करने की क्षमता नहीं हो सकती है, पैंगोंग त्सो के दक्षिण में भारत की हालिया कार्रवाइयों ने चीन को यह बता दिया है कि सैन्य समीकरण उतने लचर भी नहीं हैं जितना उसने मान रखे हैं. यह नहीं, एक स्पष्ट जीत से कम कुछ भी चीन के लिए संभवतः एक बड़ा नुकसान माना जाएगा और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की प्रतिष्ठा को बुरी तरह से धूमिल कर देगा. इसी समीकरण पर ध्यान देना भारतीय रणनीति के लिहाज से बेहतर हो सकता है.
यह भी पढ़ें:डब्लूएचओ में नेतृत्व की अपनी नयी भूमिका में भारत अपने साथियों को सत्ता संतुलन के नाम पर बरगला नहीं सकता
(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(लेखक जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं यह उनका निजी विचार है)