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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतउप्र : निकला है कानून नया चुटकी बजते बंध जायेंगे नागरिक, नई फोर्स को नहीं होगी वारंट की जरूरत

उप्र : निकला है कानून नया चुटकी बजते बंध जायेंगे नागरिक, नई फोर्स को नहीं होगी वारंट की जरूरत

यूपीएसएसएफ़ के गठन के पीछे योगी सरकार का अपने विरोधियों पर अपने ही इशारे पर मनमानी कार्रवाइयां कराने का मंसूबा है, जो दलितों, पिछड़ों, ग़रीबों और अल्पसंख्यकों के निर्मम दमन तक जायेगा ही जायेगा.

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1948 की बात है. अखिल भारतीय किसान सभा के संस्थापक और देश में किसान आन्दोलनों के जनक स्वामी सहजानंद सरस्वती लोकप्रिय गीतकार शैलेंद्र के साथ भगत सिंह के शहादत दिवस पर पंजाब के जालंधर में आयोजित एक सभा में भाग लेने जा रहे थे, तो पुलिस ने उन्हें रेलवे स्टेशन पर ही रोक लिया और कहा कि चूंकि शहर में निषेधाज्ञा लगा दी गई है, इसलिए उन्हें सभास्थल नहीं जाने दिया जा सकता.

इस पर सहजानंद सरस्वती ने शैलेन्द्र की ओर देखकर कहा, ‘देखो तो सही, सत्ता में आते ही मदांध हो गये काले अंग्रेज तो जनदमन में गोरों को भी मात कर देना चाहते हैं.’ फिर सिपाहियों से बोले कि या तो वे उन्हें सभास्थल तक जाने दें या निषेधाज्ञा तोड़ने के आरोप में गिरफ्तार कर लें. आगे क्या हुआ, फिलहाल, उसकी तफसील नहीं मालूम, लेकिन बाद में शैलेंद्र ने वहीं रेलवे स्टेशन पर ही एक कविता रची, जो बाद में जनान्दोलनों में बहुत लोकप्रिय हुई :

भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की!
यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे,
बम्ब-सम्ब को छोड़ो भाषण दिया तो पकड़े जाओगे.
निकला है कानून नया चुटकी बजते बंध जाओगे
न्याय अदालत की मत पूछो सीधे मुक्ति पाओगे
कांग्रेस का हुक्म, जरूरत क्या वारंट तलाशी की!
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की!

कविता लम्बी है, लेकिन यहां यह जानना कहीं ज्यादा जरूरी है कि नवंबर, 1948 में यह नरोत्तम नागर के संपादन में निकलने वाले ‘हंस’ में छपी तो पंजाब तो पंजाब उत्तर प्रदेश की गोविंद वल्लभ पंत सरकार को भी हजम नहीं हो पाई. उसने मई, 1949 में इस पर प्रतिबंध लगाकर ही चैन पाया. प्रतिबंध के आदेश में लिखा गया-‘यह निर्वाचित सरकार के प्रति आम लोगों में घृणा जगाती है.’


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यह कविता गत वर्ष जून में तो लोगों को बहुत याद आई ही थी, जब उत्तर प्रदेश की ही भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार ने, कांग्रेस की 1948 वाली गोविन्दवल्लभ पंत सरकार से आगे निकलने के फेर में लगे हैं. अब फिर याद आ रही है, जब इस सरकार ने नया उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल {उत्तर प्रदेश स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स : यूपीएसएसएफ} कानून बनाकर उसे तुरत-फुरत अधिसूचित कर दिया है. कानून के तहत इस बल को किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार करने और तलाशी लेने जैसे नागरिकों को अनुच्छेद 21 में हासिल संवैधानिक सुरक्षा का अतिक्रमण करने वाले कई असीमित अधिकार दिये गये हैं. इस अतिक्रमण के लिए कल को किसी सर्च वारंट या मजिस्ट्रेट की अनुमति वगैरह की जरूरत नहीं होगी.

कल कांग्रेस का था आज भाजपा का

अब जानकार लोग शैलेन्द्र की उक्त कविता की ‘निकला है कानून नया चुटकी बजते बंध जाओगे’ और ‘कांग्रेस का हुक्म, जरूरत क्या वारंट तलाशी की!’ जैसी पंक्तियां उदधृत करके पूछ रहे हैं कि तब नागरिकों को ‘चुटकी बजते बांध लेने’ का जो ‘नया कानून’ कांग्रेस का हुक्म हुआ करता था, आज वही भाजपा का है तो नागरिकों की संवैधानिक सुरक्षा छीनने के मामले में इन दोनों में कौन बड़ी है और कौन छोटी? फिर हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों ने इनकी सरकारों के दौरान कितनी लम्बी यात्रा की है?

तथ्यों के अनुसार योगी सरकार ने असीमित अधिकारों वाले इस बल के गठन का प्रस्ताव कैबिनेट की 26 जून की बैठक में स्वीकृत किया था, जबकि इस संबंधी विधेयक गत अगस्त में सम्पन्न विधानसभा के मॉनसून सत्र में कोरोनाजनित असामान्य परिस्थितियों में विपक्षी दलों के वाकआउट के बीच बिना चर्चा पारित कराया था. राज्यपाल आन्ंदी बेन की मंजूरी मिलते ही उसने गत रविवार को इसे अधिसूचित भी कर दिया, जबकि इस बाबत विपक्ष तो विपक्ष, भारतीय जनता पार्टी के विधायक भी अनौपचारिक वार्ताओं में कहते हैं कि उन्हें उक्त विधेयक के पारित होकर कानून बन जाने का पता ही नहीं चला!

कानून के प्रावधानों के अनुसार इस बल को कितने ‘कवच-कुंडल’ प्राप्त होंगे, उसकी एक मिसाल यह भी है कि सरकार की इजाजत के बगैर उसकी मनमानियों की किसी शिकायत का अदालतें भी संज्ञान नहीं ले सकेंगी. यानी उसके खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं हो सकेगा-न दलील चलेगी, न वकील और न अपील.

शुरू में इस बल की पांच बटालियनें बनेंगी, जिन पर 1764 करोड़ रुपये खर्च होंगे और उनके पास इलाहाबाद उच्च न्यायालय, उसकी लखनऊ खंडपीठ, ज़िला न्यायालयों, राज्य सरकार के महत्वपूर्ण प्रशासनिक कार्यालयों, पूजास्थलों, मेट्रो, एयरपोर्टों, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं और औद्योगिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी होगी. लेकिन बल की भूमिका इन्हीं तक सीमित नहीं रहने वाली, क्योंकि कानून में यह प्रावधान भी किया गया है कि निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठान निर्धारित भुगतान पर इसकी सेवाएं ले सकेंगे.

कहा जा रहा है कि सरकार ने यह प्रावधान उन निवेशकों के दबाव में किया है, जो अब तक घोषित तमाम प्रोत्साहनों के बावजूद पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में प्रदेश में बड़े निवेश करने से हिचकते रहे हैं. ऐसे में यह विशेष बल उनका जरखरीद बल बनकर कौन-कौन से विशेष गुल खिलायेगा, इसे लेकर प्रदेश के आसमान में अंदेशों के बादल उमड़ रहे हैं.

यह भी कहा जा रहा है कि निजी अस्पतालों में इस बल की तैनाती हुई तो उनकी मनमानी बेहद बढ़ जाएगी, जिससे मरीज़ों और परिजनों का शोषण तो अंतहीन होगा ही, वे उसके खिलाफ फरियाद भी नहीं कर पायेंगे.

विरोधी नेता आरोप लगा रहे हैं कि यूपीएसएसएफ़ के गठन के पीछे योगी सरकार का अपने विरोधियों पर अपने ही इशारे पर मनमानी कार्रवाइयां कराने का मंसूबा है, जो दलितों, पिछड़ों, ग़रीबों और अल्पसंख्यकों के निर्मम दमन तक जायेगा ही जायेगा. पिछले साल 12 दिसम्बर को लागू हुए संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ आन्दोलन के दौरान प्रदेश में बने पुलिसिया दमन व हिंसा के कई रिकार्ड उनके इस आरोप की ताईद करते हैं, तो आन्दोलनकारियों का अभी तक जारी उत्पीड़न भी उसे प्रमाणित करता है.

प्रसंगवश, डॉ. कफील खान द्वारा कथित भड़काऊ भाषण के गढ़े हुए मामले में बहुचर्चित डॉ. कफील खान को नाहक सात महीने से ज्यादा जेल में बन्द रखकर प्रताड़नाएं दी गईं और उन्हें तब तक नहीं छोड़ा गया, जब तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन पर लगाये गये राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को अवैध ठहराकर उनके भाषण को भड़काऊ मानने से इनकार नहीं कर दिया गया.

विपक्षी देताओं के आरोपों को राजनीतिक मानकर गंभीरता से न लें तो प्रदेश के दूसरे हलकों में भी यूपीएसएसएफ के गठन को लोकतांत्रिक मूल्यों के लिहाज से अच्छा नहीं माना जा रहा और इस बल सम्बन्धी कानून को लगभग इसी तरह पारित कराये गये यूपीकोका से जोड़कर देखा जा रहा है. कहा जा रहा है कि योगी लोकलाज खोकर अपने राज को पुलिसराज में बदलने में कुछ भी उठा नहीं रख रहे, अन्यथा सीआईएसएफ़ जैसे बल के रहते हुए यूपीएसएसएफ की कोई आवश्यकता ही नहीं थी.


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सरकार की जिम्मेदारी

अलबत्ता, कई विश्लेषक यह कहकर इस बल के गठन की वकालत भी कर रहे हैं कि प्रदेश में निवेशकों को सुरक्षा उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है. लेकिन उनके पास भी इस सवाल का जवाब नहीं है कि क्या इस सुरक्षा के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 में आम लोगों को उनकी गिरफ्तारी वगैरह के खिलाफ दी गई संवैधानिक सुरक्षा को खत्म किया जा सकता अथवा उसके तहत मिले संरक्षण को इस बल के अधिकारियों के रहमोकरम का गुलाम बनाया जा सकता है-वह भी, जब किसी को नहीं मालूम कि इस शुरुआत का सिलसिला कहां खत्म होगा?

कई हलकों में इसलिए भी कुछ ज्यादा चिंता जताई जा रही है कि नागरिकों को प्राप्त संवैधानिक सुरक्षाओं की हिफाजत के मामले में योगी सरकार का रिकार्ड शुरू से ही खराब रहा है. मुख्यमंत्री द्वारा पुलिस को दिये गये ‘ठोक दो’ के निर्देश की लगातार कड़ी आलोचना की जाती रही है और आरोप लगते रहे हैं कि इसके तहत पुलिस द्वारा अंजाम दी गई असली-नकली मुठभेड़़ों का, जिनमें अब तक सौ से ज्यादा जानें गई हैं, कहर अपराधियों से ज्यादा निर्दोषों पर ही टूटा है. इस कारण प्रदेश में अपराधी अभी भी खुले खेल रहे हैं, जबकि निर्दोष उन्हें सहते हुए नाना अंदेशों में जीने या प्रतिरोध करके जानें गंवाने को विवश हैं.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)

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