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Saturday, 27 April, 2024
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सत्ताधीशों के दामादों से अलग थे फिरोज गांधी, ससुर नेहरू की नाक में कर रखा था दम

अपने जीते जी फिरोज ने न खुद को किसी कुल, गोत्र, वंश या पार्टी के खांचे में फिट किया, न ही उनकी राजनीति की. अपने उसूलों व नैतिकताओं की ही फिक्र करते रहे.

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सत्ताधीशों के अतःपुरों में, और कई बार उनके बाहर भी, उनके बेटे-बहुओं, बेटियों और दामादों आदि को लेकर बनती व चलती या बनाई और चलाई जाती रहने वाली कहानियों से हम सभी वाकिफ हैं. लेकिन देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधी, जिनकी आज जयंती है, इन सारी कहानियों के विलोम थे. साफ कहें तो अपनों व गैरों दोनों द्वारा उन्हें और उनकी देशसेवा को सिरे से भुला दिये जाने का राज भी उनके इस विलोम होने में ही है.

अपने जीते जी फिरोज ने न खुद को किसी कुल, गोत्र, वंश या पार्टी के खांचे में फिट किया, न ही उनकी राजनीति की. अपने उसूलों व नैतिकताओं की ही फिक्र करते रहे. हमारी राजनीति में नेताओं को उनके उसूलों का सिला देने की परम्परा वैसे भी समृद्ध नहीं है, तब फिरोज को ही यह सिला क्योंकर मिलता? उनके द्वारा कुल, गोत्र, वंश और पार्टी के सर्वथा नकार का नतीजा यह हुआ कि उनके संसार से जाते ही इन सबने उनके प्रति गाढ़ा अपरिचय ओढ़कर उनकी यादों के लिए अपने दरवाजे बन्द कर लिये.

इसे यों समझ सकते हैं कि स्वतंत्रता के बाद फिरोज रायबरेली के पहले सांसद चुने गये तो उनके ससुर प्रधानमंत्री थे. उनके निधन के बाद उनकी पत्नी इंदिरा गांधी और बेटे राजीव गांधी ने भी प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया. बहू सोनिया गांधी के सामने उसे सुशोभित करने का मौका आया तो वे उसे ठुकराकर ‘त्याग की देवी’ बन गयीं लेकिन वक्त वहीं नहीं ठहरा रहा, उनकी सबसे लम्बे कार्यकाल वाली कांग्रेस की अध्यक्षी के बाद उस मुकाम तक भी पहुंचा, दिसम्बर, 2017 में जहां उन्होंने फिरोज के पोते राहुल का ताज सिलने के उपक्रमों की लम्बी श्रृंखला के तहत कांग्रेस की कमान उन्हें सौंपी.

हां, 2019 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद राहुल ने इस्तीफा दिया और कांग्रेस कोई नया अध्यक्ष नहीं चुन सकी तो वे फिर से उसकी अंतरिम अध्यक्ष बनीं और अभी तक बनी हुई हैं.

दूसरे रास्ते से फिरोज की दूसरी बहू मेनका भी केंद्र में मंत्री पद तक पहुंचीं और दूसरे पोते वरुण भी सांसद बने. उनकी एकमात्र पोती प्रियंका को कांग्रेस की सबसे बड़ी स्टार प्रचारक माना जाता है. लेकिन इनमें कोई भी फिरोज को उस तरह अपने वंश या परंपरा का हिस्सा नहीं बताता, जिस तरह इंदिरा और नेहरू को.

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बने रहे नेहरू के मुखर आलोचक

बहरहाल, फिरोज जितने दिन सांसद रहे अपने प्रधानमंत्री ससुर को नाकों चने चबवाते रहे. 1950 में प्राविंसियल पार्लियामेंट के सदस्य बनने के बाद फिरोज 1952 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली लोकसभा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी घोषित हुए तो उनकी पत्नी इंदिरा गांधी दूसरे कहीं ज्यादा आवश्यक कार्यभार छोड़कर उनके प्रचार अभियान की कमान संभालने आयीं, लेकिन अभी वे पति की जीत की खुशी भी नहीं मना पाई थीं कि उन्हें अहसास होने लगा कि सांसद फिरोज उनके पिता जवाहरलाल नेहरू और उनकी सरकार के दुश्मन हो गये हैं. इसे लेकर उनके दाम्पत्य जीवन में खटास भी आयी, लेकिन फिरोज ने निजी सुख के लिए अपने राजनीतिक नजरिये से समझौता करना स्वीकार नहीं किया और अपने ससुर की जिन नीतियों से असहमत थे, उनके मुखर आलोचक बने रहे.

हेराफेरी की पोल खोलने के बाद जब बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया गया

सांसद के रूप में उन्होंने देखा कि आजादी मिलने के कुछ ही वर्षों में देश के कई औद्योगिक घराने उच्च पदस्थ कांग्रेसी नेताओं व मंत्रियों की नाक के बाल हो गये हैं और उसकी आड़ में अनेक वित्तीय अनियमितताएं कर रहे हैं तो लोकसभा में अपनी ही पार्टी की सरकार को घेरने में कोई कोताही नहीं बरती. 1955 में उन्होंने एक बैंक व बीमा कम्पनी के चेयरमैन रामकृष्ण डालमिया का बहुचर्चित मामला न सिर्फ उठाया, बल्कि उनके द्वारा निजी लाभ के लिए की जा रही वित्तीय हेराफेरी की पोल भी खोली. फिर तो डालमिया को कई महीने जेल में रहना पड़ा और अगले ही साल 245 जीवन बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. इस तरह फिरोज को राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया शुरू कराने का श्रेय दिया जा सकता है.

सास कमला नेहरू का रखा खयाल, नेहरू को घेरते रहे

1957 में दोबारा सांसद चुने जाने के बाद भी उन्होंने पंडित नेहरू को घेरना जारी रखा. लेकिन अपनी सास कमला नेहरू का जीवन बचाने के लिए हर मुमकिन प्रयास किया. तब, जब वे क्षय रोग से पीड़ित थीं और जीवन व मृत्यु के बीच झूल रही थीं. 1934 में कमला नेहरू को स्वास्थ्य लाभ के लिए नैनीताल के पास भुवाली सैनिटोरियम लाया गया, तब तो फिरोज उनके साथ रहे ही, बाद में हालत बिगड़ने पर उन्हें यूरोप भेजा गया तो भी उनके साथ गये. 28 फरवरी, 1936 को कमला नेहरू ने दम तोड़ा तो फिरोज उनके सिरहाने बैठे थे.

1958 में फिरोज गांधी ने सरकार नियंत्रित बीमा कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) को लपेटे में लेते हुए हरिदास मूंदड़ा घोटाले का पर्दाफाश किया, जिसे स्वतंत्र भारत का पहला घोटाला माना जाता है. इस घोटाले के दोषियों पर कार्रवाई की मांग को लेकर उन्होंने विपक्षी सांसदों से कहीं ज्यादा तेज आवाज बुलंद की, जिससे नैतिकता के ऊंचे आदर्शों का दावा करने वाले नेहरू और उनकी सरकार की पाक-साफ छवि को तो बट्टा लगा ही, उच्च न्यायालय के एक रिटायर्ड जज के नेतृत्व में गठित आयोग द्वारा की गई जांच में आरोप सच साबित हुए और वित्तमंत्री टीटी कृष्णमाचारी को इस्तीफा देने पर मजूर होना पड़ा.

प्रधानमंत्री निवास में रहने से कर दिया मना

प्रसंगवश, फिरोज गांधी इंडियन ऑयल कार्पोरेशन के पहले चेयरमैन थे, साथ ही कांग्रेस द्वारा लखनऊ से प्रकाशित ‘नेशनल हेराल्ड’ और ‘नवजीवन’ नाम के अखबारों के प्रबंद निदेशक भी. 1956 में उन्होंने अपने ससुर और पत्नी के साथ प्रधानमंत्री निवास में रहने से मना कर दिया था क्योंकि उन्हें लगता था कि वहां रहकर केन्द्र सरकार की नीतियों के कारण फैल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे. आगे चलकर वे सांसद के तौर पर उन्हें आवंटित बेहद साधारण से आवास में रहने लगे.

उन्होंने केंद्र सरकार से टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी (टेल्को) के राष्ट्रीयकरण की मांग भी की थी क्योंकि उनकी जानकारी के अनुसार टाटा कंपनी जापानी सरकार से रेल इंजनों के ज्यादा दाम वसूल रही थी. कहते हैं कि तब फिरोज को उनके कुछ मित्रों ने बताया था कि टाटा के खिलाफ अभियान से पारसी समुदाय में, जिससे टाटा ताल्लुक रखते हैं, उनके खिलाफ माहौल बन जायेगा लेकिन फिरोज ने इसकी भी परवाह नहीं की थी.

आखिरी दिनों में पड़ गए अकेले

कहते हैं कि अपने आखिरी दिनों में फिरोज बेहद अकेले पड़ गए थे. 8 सितम्बर, 1960 को दिल के दौरा पड़ने से अंतिम सांस लेने से थोड़े ही दिनों पहले उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र में एक कालेज की स्थापना के लिए निजी प्रयासों में जुटाये गये सवा लाख रुपये दिये थे. यह कालेज आजकल फिरोज गांधी पोस्ट ग्रेजुएट कालेज के नाम से जाना जाता है.

फिरोज के निजी जीवन पर जायें तो उनका जन्म 12 सितंबर 1912 को मुंबई (तब बंबई) के एक पारसी परिवार में हुआ था, जो गुजरात से वहां आया था लेकिन उनका बचपन उनकी बुआ के इलाहाबाद स्थित घर में बीता. वहां 1930 में उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में शामिल हो गए. उसी साल उनको सजा हुई तो उन्होंने फैजाबाद जेल में 19 महीने गुजारे. उन दिनों लालबहादुर शास्त्री भी इसी जेल में बंद थे.

जेल से छूटने के बाद वे तब के यूनाइटेड प्राविंस (अब उत्तर प्रदेश) में किसानों के अधिकारों के लिए चल रहे आंदोलन में शामिल हुए. इस दौरान उन्हें फिर दो बार जेल यात्राएं करनी पड़ीं.

मार्च 1942 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की मर्जी के खिलाफ उनकी और इंदिरा गांधी की शादी हुई तो कुछ ही महीनों बाद अगस्त, 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान उनको सपत्नीक जेल भेज दिया गया. तब फिरोज को सालभर नैनी केन्द्रीय कारागार में भी रहना पड़ा था.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)


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3 टिप्पणी

  1. अगर फिरोज इतने ही सत्यवादी थे तो उन्होंने अपनी जाति और धर्म क्यो त्याग, क्यो गांधी नाम की लाठी का सहारा लिया, क्या खान के बाद गांधी उपनाम जो वो लगाने लगे थे उसका उनके पास कोई वैध ग्रहण पत्र था, ये गांधी जाती उनको किसने दी और कैसे दी इसका कोई प्रमाण है, आज इस गांधी नाम की आड़ में देश की जनता के साथ एक परिवार द्वारा खिलवाड़ किया जा रहा है जब कि गांधी नाम से उनका कोई वास्ता या सरोकार ही नही है।

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