आंध्र प्रदेश सरकार पहली से छठी क्लास तक के छात्रों के लिए, एक क्रांतिकारी शिक्षा योजना लेकर आई है. उसने दो भाषाओं- अंग्रेज़ी और तेलुगू- में ‘मिरर इमेज’ स्कूल पाठ्य पुस्तकें छापने का फैसला किया है. हर किताब में साथ साथ दोनों भाषाओं में पाठ छपे होंगे. इससे अंग्रेज़ी माध्यम वाले सरकारी स्कूलों के छात्रों, और अध्यापकों के सामने आ रही समस्याएं, सुलझाने में काफी मदद मिलेगी. इस अनुभव से उन्हें समझ में आएगा, कि तेलुगू की अपेक्षा अंग्रेज़ी भाषा सीखने में आसान है. किसी भी दूसरी भारतीय भाषा के मुक़ाबले, अंग्रेज़ी शब्दावली और वाक्य विन्यास सीखना ज़्यादा आसान है.
जो लोग इस कहावत में यक़ीन रखते थे देसा भाषालेंदु तेलुगु लेस्सा राष्ट्र की भाषाओं में तेलुगू सबसे अच्छी है, उन्होंने कभी ये परवाह नहीं की, कि तेलुगू लिपि को ऐसे बच्चों के हिसाब से विकसित करें, जो कृषि परिवारों से आते हैं.लिखी हुई अधिकांश तेलुगू, उस तेलुगू से बहुत अलग है, जो खेतों में काम करने वाले लोग बोलते हैं. अपनी उत्पादक गतिविधियों में लगे हुए- हल चलाना, फसल काटना, और घर और बाहर खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखना- लोग वो ज़ुबान बोलते हैं जिसे प्रजा भाषा, यानी लोगों की भाषा कहा जाता है, जबकि किताबों की लिखाई पंडित भाषा में की जाती है. पंडित भाषा कुछ नहीं बस संस्कृत है, जो कभी खेत और रसोई की भाषा नहीं रही.
ब्राहमण घरों में भी- जहां सिर्फ पुरुष पंडित कहे जाते हैं- संस्कृत को कभी महिलाओं की घर और रसोई की भाषा नहीं बनने दिया गया. एक बार उस भाषा को तेलुगू अक्षरों में डब करके, श्रमिक वर्ग पर थोप दिया गया, तो ये बेमेलपन वास्तविक हो गया. इसके नतीजे में बच्चों की रचनात्मक शिक्षा के विकास पर असर पड़ा.
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तेलुगू पर अंग्रेज़ी
दूसरी ओर अंग्रेज़ी विपरीत दिशा में विकसित हुई. 14वीं सदी के अंत तक, अंग्रेज़ी बुनियादी रूप से इंग्लैण्ड में किसानों की भाषा थी, और चर्च में इसका इस्तेमाल नहीं होता था, क्योंकि अंग्रेज़ी गिरजाघरों में भी, ग्रीक और लेटिन को दिव्य भाषाएं माना जाता था. अंग्रेज़ी खेतों पर विकसित हुई व परवान चढ़ी, और उसके बाद जाकर ‘किताबी भाषा’ बनी.
किसानों की भाषा को भगवान की प्रार्थना की भाषा के रूप में अपनाने के बाद ही, अंग्रेज़ी छपने और बोलने वाली भाषा के तौर पर समृद्ध हुई. जर्मन और फ्रेंच भाषाएं भी तभी समृद्ध हुईं, जब उन्हें प्रार्थना की भाषा के रूप में स्वीकृति मिली. इसे आसानी से यूरोप के किसान लोगों के बीच, सबसे बड़ी क्रांति कहा जा सकता है. एक बार किसी भाषा को दिव्य मान लिया जाए लिया जाए, तो उसका विकास बिल्कुल अलग ही होता है. हिंदू धर्म में, तेलुगू या कोई भी दूसरी भारतीय भाषा, जैसे हिंदी, मराठी, गुजराती, बंगाली वग़ैरह, को आज भी बड़े मंदिरों में दिव्य नहीं समझा जाता. ये भी एक और कारण है तेलुगू के कमज़ोर विकास का.
एक और मुख्य मुद्दा जो भाषा के विकास को बाधित करता है, वो है धर्म सिद्धांतों में नई शब्दावली को अपनाने की अनिच्छा. जब तक वर्णमाला को सरल नहीं बनाया जाएगा, और खेत-खलिहानों व क़बाइली क्षेत्रों के शब्द, लिखी हुई भाषा में शामिल नहीं होंगे, तब तक तेलुगू, या हिंदी, या तमिल, या बंगाली स्मृद्ध नहीं होंगी. आंध्र सरकार की ‘मिरर इमेज’ पाठ्य पुस्तकें शुरू करने की योजना, तेलुगू की विरासत को स्मृद्ध करने में, बहुत उपयोगी साबित होगी.
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सेमेस्टर- एक नया प्रयोग
देरी से शुरू होने जा रहे इस शिक्षा सत्र में, आंध्र सरकार स्कूली शिक्षा में सेमेस्टर सिस्टम भी अपनाने जा रही है- ये भी पहला बार होगा. आगे चलकर ये क़दम उत्पादक साबित होना चाहिए, चूंकि एक शिक्षा सत्र में दो मूल्यांकनों से, छात्रों के कांधों से भारी सिलेबस के साथ, अच्छा करने का बोझ भी कम होगा. दरअस्ल, सच्चाई ये है कि ये स्कूली शिक्षा का, ग़ैर-यूरोपीय अमेरिकन मॉडल है, जो प्रयास योग्य है. यूरो-अमेरिकन मॉडल के विपरीत, भारत ने ऐसा मॉडल विकसित नहीं किया, जो टेक्नोलॉजी की मदद से, स्कूली बस्तों का भारी बोझ कम कर देता. नए सिस्टम का मतलब होगा कि छात्रों को अब वही किताबें स्कूल ले जानी होंगी, जो उस सेमेस्टर से संबद्ध होंगी.
बच्चों में सीखने की क्षमता व क्रियात्मक सोच में निरंतर सुधार के लिए, अध्यापकों को भी और बहुत कुछ करने की ज़रूरत है. भारत की स्कूली शिक्षा प्रणाली में, अभी तक रट कर सीखने पर ज़ोर दिया गया है, जिसमें क्रियात्मक सोच को प्रोत्साहित नहीं किया जाता. आंध्र प्रदेश में जो छात्र इस नए प्रयोग का हिस्सा बनेंगे, उन्हें ये शुरू कर देना चाहिए, और छठी क्लास पास करने तक विकसित हो जाना चाहिए. ‘मिरर इमेज’ किताबें और उनके अपने निजी प्रयासों से, अध्यापकों की अंग्रेज़ी भी सुधरेगी. इससे बच्चों को भी सहायता मिलेगी. अध्यापकों को समझना चाहिए, कि हर बच्चे के अंदर एक टीचर होता है.
क्रियात्मक ढंग से श्रम की गरिमा सिखाना
नई शिक्षा नीति (एनईपी) में छठी कक्षा के बाद से, बच्चों को विभिन्न पेशों के बारे में पढ़ाने का प्रस्ताव है, जिससे वो आगे चलकर जानकारी के साथ करियर के विकल्प चुन सकें. एनईपी की भावना से संकेत लेते हुए, आंध्र के स्कूलों को 10+2 सिस्टम से हटकर, इंटरमीडिएट को ख़त्म करते हुए, धीरे धीरे 5+3+3+4 सिस्टम की ओर बढ़ना होगा. मौजूदा मॉडल में गांवों में हाई स्कूल शिक्षा केवल दसवीं क्लास तक दी जाती है. लेकिन ग़रीब बच्चे बीच में ही छोड़ देते हैं, क्योंकि वो दूर शहरों में स्थित, सरकारी या निजी इंटरमीडिएट कॉलेजों में नहीं जा सकते. नए सिस्टम में हर छात्र, अपना गांव छोड़े बिना स्कूल पूरा कर पाएगा. किसी छोटे से गांव में भी, जहां केवल 50 बच्चे होंगे, 12वीं क्लास तक का स्कूल हो सकता है. इस नए सिस्टम को यदि पूरे देश में लागू कर दिया जाए, तो भारत में स्कूली शिक्षा का रूप ही बदल जाएगा.
जो बच्चे शहरों के आवासीय स्कूलों में रहते हुए पढ़ते हैं, और अपने परिवार से दूर रहने की वजह से संघर्ष करते हैं, वो हाई स्कूल सिलेबस को अच्छे से संभाल सकते हैं. एनईपी में सभी अंडर-ग्रेजुएट कोर्स बढ़ाकर, 4 साल के कर दिए गए हैं. ऐसा ये सुनिश्चित करने के लिए किया गया है, कि हर छात्र विश्वास के साथ नौकरी बाज़ार में दाख़िल हो.
यूरो-अमेरिकन सिस्टम में स्कूलिंग के बाद, वयस्कों की शिक्षा परिवार से दूर रहकर होती है. परिवार की आर्थिक हैसियत कुछ भी हो, छात्रों को अपने ख़र्च पर रहना होता है. ये एक कारण है कि बहुत से पश्चिमी देशों में, हर कोई उच्च शिक्षा का ख़र्च वहन नहीं कर पाता. भारी आर्थिक असमानताओं के चलते, भारत में ये सिस्टम शायद काम नहीं कर पाएगा. यहां पर हम चीन से सीख सकते हैं- जहां हमारे देश जितनी ही, स्कूल जाने वाली आबादी है, लेकिन वहां का समाज और राज्य ऐसा है, जो श्रम की गरिमा को समझता है, और सब को समान अवसर देता है.
भारत में ‘श्रम की गरिमा’ सिखाने की शुरूआत, बच्चों को रसोई के अनुकूल बनाने से होनी चाहिए. छठी क्लास से किताबों में, खाना बनाने के सैद्धांतिक पाठ होने चाहिएं, ताकि छात्रों को रोज़मर्रा के कामकाज की अहमियत का अंदाज़ा हो. मां-बाप को अपने बच्चों को खाना पकाना, और घर के बुनियादी कामकाज सिखाने चाहिएं, भले ही बच्चे का जेंडर कुछ भी हो. आंध्र सरकार ‘अम्मा वोड़ी’ स्कीम के तहत, मांओं को 15,000 रुपए सालाना दे रही है. इस तरह की आर्थिक सहायता सुनिश्चित करेगी, कि मांएं अपने बच्चों की पढ़ाई में, एक सकारात्मक भूमिका निभाएं.
पेरेंट-टीचर मीटिंग्स के दौरान, स्कूलों को अभिभावकों से कहना चाहिए, कि अपने बच्चों को घर के अलग अलग काम देकर, उन्हें ‘श्रम की गरिमा’ सिखाएं. ये किसी सांस्कृतिक संपत्ति पैदा करने से कम नहीं है, और एक ऐसा सबक़ है जो बच्चे कभी नहीं भूलेंगे- कोई भी काम छोटा नहीं है और हर काम की एक मर्यादा है. अध्यापकों की ये भी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए, कि घर का काम सीख रहे बच्चों की उन्नति पर भी नज़र रखें.
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स्कूलों को बुनियादी कृषि जानकारी देने के लिए भी सत्र आयोजित करने चाहिएं, जिनके ज़रिए बच्चे खेती के बारे में सीख सकते हैं. चीनी छात्र चौथी क्लास से, हाथ से मिट्टी में काम करने लगते हैं. ऐसी गतिविधियों से बच्चों को, ‘श्रम की गरिमा’ का पाठ पढ़ाने, और अभ्यास कराने के लिए, राज्य अपने ख़ुद के तरीक़े और मॉडल्स अपना सकते हैं.
आंध्र प्रदेश ने एक अच्छी शुरूआत की है. अगर राज्य इस पर और काम करे, और इस रास्ते पर आगे बढ़े, तो वो रचनात्मक रूप से बहुत पॉज़िटिव निवेशक बनकर उभरेगा, और कल के नागरिकों को एक वैज्ञानिक शिक्षा दे पाएगा, जिनपर देश को गर्व होगा.
(लेखक हैदराबाद में मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूज़न एंड इनक्लूसिव पॉलिसी के पूर्व डायरेक्टर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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