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Monday, 18 November, 2024
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ट्रोलिंग, फेक न्यूज़, डेटा चोरी और भेदभाव का गढ़ बन चुका है सोशल मीडिया

पश्चिमी देशों में झूठी खबरें अक्सर छोटे या अनजान न्यूज़ पोर्टल से शुरू होती हैं. लेकिन भारत में मेनस्ट्रीम मीडिया भी झूठी खबर छाप या दिखा देता है जो कि सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती हैं.

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सोशल मीडिया के राजनीति और समाज पर असर को लेकर इन दिनों दुनिया भर में चर्चा हो रही है. भारत इन चर्चाओं के केंद्र में है. अमेरिकी संसद का उच्च सदन यानि सीनेट सोशल मीडिया कंपनियों के संचालकों को कई बार तलब कर चुकी है तो यूरोपीय संघ ने भी सोशल मीडिया साइट के बारे में आ रही शिकायतों से निपटने के लिए प्रावधान बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. इस मामले में भारत समेत तमाम विकाससील देश अभी काफी पीछे हैं.

भारत में जब सोशल मीडिया आया तो इसे लेकर लोगों में खासकर दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, माइनॉरिटी समेत वंचित तबकों में काफी उत्साह था क्योंकि तब इसे वैकल्पिक मीडिया के तौर पर देखा जा रहा था. इन तबकों को लगा कि इससे विमर्श का लोकतांत्रिकरण होगा और हर तबके की आवाज़ सुनी जाएगी जो भारत के वर्तमान मीडिया परिदृश्य में अक्सर हो नहीं पाता. उस उत्साह की वजह से इसके नकारात्मक पहलुओं/ संभावित खतरों को लेकर बातचीत शुरू ही नहीं हो पायी जबकि दुनिया में इस पर काफी पहले से चर्चा चल रही है.

इस लेख में यह समझने की कोशिश की गयी है कि सोशल मीडिया को लेकर इस समय दुनिया में किन-किन प्रमुख मुद्दों को लेकर बहस चल रही है और उन मुद्दों का भारत के लिए क्या मतलब है.


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ट्रोलिंग- इसका मतलब है कि सोशल मीडिया पर किसी के पीछे पड़ जाना ताकि उसके लिए असहज स्थिति पैदा हो जाए. सोशल मीडिया पर आरोप है कि यह अपने प्लेटफार्म पर संगठित तरीके से विभिन्न प्रकार के अल्पसंख्यकों, महिलाओं, प्रवासियों, प्रगतिशील और सेक्युलर सोच के लोगों के चरित्र हनन और उनके खिलाफ घृणा फैलाने में मदद करता है.

पहले यह काम चंद लोग केवल अपने मज़े के लिए फर्ज़ी अकाउंट बना कर करते थे लेकिन आगे चलकर राजनीतिक पार्टियां इसको एक हथियार के तौर पर प्रयोग करने लगीं. इसके लिए बाकायदा आईटी सेल बनाए गए जिसमें कर्मचारियों को पूरे समय इसी काम को करने के लिए रखा गया. इनके जरिए पार्टियां विपक्षियों और विरोधी बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को ट्रोल करवाती हैं.

2014 के आम चुनाव के पहले बीजेपी और कांग्रेस के समर्थकों ने राहुल गांधी को ‘पप्पू’ तो नरेंद्र मोदी को ‘फेंकू’ के नाम से ट्रेंड कराया था. आजकल आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस के विकसित हो जाने की वजह से फर्ज़ी अकाउंट बनाने के लिए बहुत ज़्यादा लोगों की ज़रूरत भी नहीं पड़ती, यह सारा काम मशीनें करने लगी हैं जिसे बॉट कहा जाता है.

भ्रामक सूचना- सोशल मीडिया पर सबसे बड़ी आपत्ति भ्रामक सूचना फैलाने को लेकर है. भ्रामक सूचना उन सूचनाओं को कहा जा रहा है जिसमें सच और झूठ दोनों का अंश शामिल होता है. इसे हम भारत में फैलायी गयी एक सूचना से समझ सकते हैं.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गुजरात की एक रैली में कहा था कि नरेंद्र मोदी कहते हैं कि ‘ऐसी मशीन लगवाऊंगा जो एक तरफ से आलू डालोगे तो दूसरी तरफ से सोना निकालेगा’. इस बात को राहुल गांधी की बात कह कर प्रचारित कर दिया गया और आज ज़्यादातर लोग यही मानते हैं कि ऐसा राहुल गांधी ने ही कहा था.

फैक्ट चेक में ये बात बेशक साबित हो गई है कि राहुल गांधी ने अपनी तरफ से कभी नहीं कहा कि मशीन में आलू डालो तो सोना निकलेगा, न ही इस बात के प्रमाण हैं कि नरेंद्र मोदी ने कभी ऐसा कहा था लेकिन इस बारे में कुल चर्चा इस तरह से हुई कि राहुल गांधी की छवि का नुकसान हो गया.

भ्रामक सूचनाएं सांप्रदायिक आधार पर भी फैलाई जाती हैं. मुसलमान जब अपने धर्म का झंडा लेकर चलते हैं तो उसे कई बार पाकिस्तान का झंडा बता कर प्रचारित करने की कोशिश होती है जबकि दोनों तरह के झंडे में स्पष्ट फर्क होता है. भ्रामक सूचना फैलाने के क्रम में किसी बार वीडियो की एडिटिंग कर दी जाती है, जैसे कि जेएनयू के विवादित वीडियो में ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ का नारा मीडिया ने अपनी तरफ़ से जोड़ दिया था ताकि खबर और भी सनसनीखेज़ हो जाए जबकि पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक वहां ऐसा नारा नहीं लगा था.


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झूठी खबर- भ्रामक सूचनाओं में जहां थोड़ा बहुत सच होता है, वहीं झूठी खबर पूरी तरह से गलत होती है. पश्चिमी देशों में झूठी खबरें छोटे न्यूज़ पोर्टल या अखबार से शुरू होकर फैल जाती हैं लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों में स्थिति इससे उलट हैं. यहां मुख्यधारा का मीडिया भी झूठी खबरें छाप देता है जो कि सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती हैं.

आजकल कई तरीके के सॉफ़्टवेयर उपलब्ध हैं जिनकी मदद से फिल्मों या किसी के वीडियो में नयी आवाज़ डाल कर प्रचारित कर दिया जाता है. इस फर्जीवाड़े को पहचानना बहुत मुश्किल है. न्यूज़ चैनलों की खबर और चुनाव के सर्वे तक को एडिट करके सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचरित कर दिया जाता है.

एको चैम्बर- एको चैंबर वह जगह है जहां अपनी ही आवाज गूंजती है. सोशल मीडिया के बारे में दावा किया जाता रहा है कि यह संवाद का मंच हैं, जहां ढेर सारे लोग ढेर सारे लोगों से लिखकर या फोटो और वीडियो शेयर करके बात करते हैं. लेकिन इस दिशा में हो रहे शोध बताते हैं कि सोशल मीडिया दरअसल एको चैम्बर बनाता है जिसमें कोई भी व्यक्ति ज्यादातर समय अपने ही जैसे व्यक्तियों से जुड़ा होता है. एक दूसरे से विचार या किसी और कारण से जुड़े लोग अक्सर एक ही जैसी बातें करते और सुनते हैं.

सोशल मीडिया पर अपनी पहले से बनी हुई धारणाएं ही अक्सर मजबूत होती हैं. ऐसा सोशल मीडिया के एलगोरिद्म की वजह से होता है जो कि एक जैसा लिखने-पढ़ने, फोटो और वीडियो शेयर करने वाले लोगों को मिलाता है. इस वजह से सोशल मीडिया सभी प्रकार की खबरें और सूचनाएं सब को नहीं पहुंचाता बल्कि सूचनाएं पहुंचाते वक्त लोगों की पसंद-नापसंद का भी ख़्याल रखता है. ऐसा करके सोशल मीडिया अलग-अलग विचारों के लोगों को एक दूसरे से मिलने से रोकता है जिससे लोगों में पूर्वाग्रह बढ़ता है और पहले से बनी सोच मजबूत होती है.

डेटा की चोरी- सोशल मीडिया कंपनियों पर आरोप है कि वे लोगों के व्यवहार से संबंधित डेटा इकट्ठा कर कंपनियों और राजनीतिक पार्टियों को बेचती हैं. पिछले चुनावों के दौरान कैम्ब्रिज एनालिटिका के डेटा का इस्तेमाल करने का आरोप कुछ नेताओं पर लगा.

भारत में इन विषयों पर गंभीर बातचीत इसलिए भी नहीं हो पाती है क्योंकि यहां का सामाजिक विज्ञान बुरी तरीके से मार्क्सवादी विचारधारा के असर में है. मार्क्सवादी स्कॉलर बिहेवेरियल साइंस यानि व्यवहारवादी विज्ञान को नहीं मानते. हमारे यहां इतिहास और महापुरुषों के बारे में पढ़ने पर काफी जोर है. इसके उलट व्यवहारवादी विज्ञान लोगों के व्यवहार (पसंद-नापसंद) के अध्ययन से यह देखने की कोशिश करता है कि लोग जैसा सोच रहे हैं और व्यवहार कर रहे हैं, वैसा क्यों कर रहे हैं.

सोशल मीडिया से लोगों के व्यवहार के बारे में मिले डेटा का इस्तेमाल कंपनियां अपना समान बेचने के प्रचार और विज्ञापनों में करती हैं और प्रोडक्ट में आवश्यक फेरबदल भी करती हैं. राजनीतिक पार्टियां इस डेटा का प्रयोग यह पता लगाने में करती हैं कि कौन सा सामाजिक समूह किस तरह का राजनीतिक व्यवहार करता है और उसे कैसे अपने पक्ष में मोड़ा जा सकता है. इस बारे में जोनाथन हेथ और युवाल नोवा हरारी की किताबें काफी कुछ बताती हैं.


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असमानता को बढ़ावा- सोशल मीडिया के बारे में शुरुआत में समझा जा रहा था कि यह हर व्यक्ति को अपने विचार रखने का बराबरी का मौका देगा. लेकिन पिछले साल ट्विटर द्वारा भारत में दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज के व्यक्तियों के अकाउंट वेरिफाई न किए जाने के विवाद के बाद ये पता चला कि भारत में कुछ समूहों के साथ अकाउंट वेरिफिकेशन में भेदभाव हो रहा है. साथ ही कुछ खास लोगों के अकाउंट को वेरिफाई कर ट्विटर नए तरीके के एलीट पैदा कर रहा है और आम लोगों को सिग्नल दे रहा है कि किसी मुद्दे पर इनकी बात आप सुनो क्योंकि यह महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं.

वेरिफिकेशन को लेकर कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है. भारत में वेरिफिकेशन विवाद को भेदभाव से देखा गया लेकिन मूल रूप से यह सामाजिक असमानता को फिर से स्थापित करने का मामला है जिसके तहत प्रभावशाली सामाजिक समूह के लोग डिजिटल दुनिया में प्रभावशाली हो जाते हैं.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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