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Wednesday, 20 November, 2024
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भारत की नई शिक्षा नीति के उद्देश्यों को संविधान के मौलिक कर्तव्यों से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता

भारत की नई शिक्षा नीति के प्रमुख उद्देश्यों में संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण एक प्रमुख उद्देश्य स्वीकार किया गया है. संविधान के पीछे स्वतंत्रता का एक लंबा संघर्ष रहा है.

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भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति जो जुलाई के अंतिम सप्ताह में लागू की गई उसकी प्रस्तावना में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि शिक्षा का उद्देश्य ऐसे आदर्श मनुष्य तैयार करना है जो जिज्ञासु और तार्किक क्षमता से युक्त हों, जिनमें धैर्य और सहानुभूति के गुण हों, साहस और लचीलापन हो, वैज्ञानिक चेतना हो, परिपक्व नैतिक मूल्य हों. ऐसे नागरिक ही उस समाज का निर्माण करने में सक्षम होंगे जिसकी कल्पना भारत के संविधान द्वारा की गई है.

एक ऐसा समाज जो न्यायसंगत हो, समावेशी हो और विविधता तथा बहुलताओं को समेटे हो जो भारत की असल पहचान है. नई शिक्षा नीति में वे मूलभूत नैतिक, मानवीय और संवैधानिक मूल्य जो शिक्षा व्यवस्था को निर्देशित करेंगे वे हैं- विद्यार्थियों में ऐसे गुणों को विकसित करना कि उनमें सहानुभूति हो, वे दूसरों का सम्मान करें, साफ-सफाई का महत्व समझें, उनमें विनम्रता हो, लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति प्रेम हो और सेवा भाव हो. वे सार्वजनिक संपत्ति का सम्मान करना सीखें, उनमें वैज्ञानिक चेतना विकसित हो, उन्हें स्वतंत्रता, उत्तरदायित्व, समानता और न्याय के मूल्यों का ज्ञान हो और वे विविधता का सम्मान करें.

इस प्रकार भारत की नई शिक्षा नीति के प्रमुख उद्देश्यों में संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण एक प्रमुख उद्देश्य स्वीकार किया गया है. यहां यह बताना आवश्यक है कि भारत का संविधान एक निश्चित समय पर घटने वाली घटना नहीं बल्कि इसके पीछे स्वतंत्रता का एक लंबा संघर्ष है. इसका संरक्षण करने का दायित्व केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का ही नहीं बल्कि प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है.


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स्वर्ण सिंह समिति और मौलिक कर्तव्य

हमारे संविधान का एक एक शब्द हजारों सालों की सभ्यता, संस्कृति और जीवन मूल्यों को प्रतिस्थापित करने का प्रयास है. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही वे लक्ष्य स्पष्ट कर दिए गए हैं. मूल अधिकारों की व्यवस्था, संवैधानिक उपचारों का अधिकार, नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख सभी इसकी उद्घोषणा करते हैं.

भारत का संविधान 1950 में लागू हुआ. इसके कुछ उपबंध ऐसे भी हैं जो बाद में जोड़े गए. और उनमें से एक है संविधान के मूल कर्तव्य. संविधान में नागरिकों को केवल मूल अधिकार प्रदान किये गए थे.

सरदार स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में 1976 में एक समिति का गठन किया गया जिसका उद्देश्य मौलिक कर्तव्यों के संबंध में सुझाव देना था. इस समिति ने संविधान में मौलिक कर्तव्यों के अध्याय को शामिल करने का सुझाव दिया. इसकी सिफारिशों के अनुसार संविधान में 42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भाग 4(क) में एक अलग अनुच्छेद 51 (क) के अंतर्गत जोड़ा गया.

मूल रूप से पहले केवल दस कर्तव्यों को इसमें जोड़ा गया था लेकिन 2002 में 86वें संविधान संशोधन द्वारा इनकी संख्या 11 कर दी गई.

मौलिक कर्तव्यों की परिकल्पना को यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के संविधान से ग्रहण किया गया था. ये मूल कर्तव्य इस प्रकार हैं-


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मौलिक कर्तव्य बनाम मौलिक अधिकार

मौलिक अधिकार राज्य के अपने नागरिकों के प्रति कर्तव्यों को दर्शाता है वहीं मौलिक कर्तव्य राज्य के नागरिकों से यह अपेक्षा करता है कि वे भी राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाएंगे. प्रसिद्ध आदर्शवादी पाश्चात्य विचारक टीएच ग्रीन का कहना था, ‘अधिकार और कर्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं.’

अधिकारों का कोई महत्व नहीं रह जाता जब हम केवल कुछ पाना चाहते हैं और अपने कर्तव्यों को नहीं निभाते. भारतीय संस्कृति भी कर्तव्य पालन पर जोर देती रही है. गीता में कहा गया है ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते ’ अर्थात कर्म में ही व्यक्ति का अधिकार है.

26 नवंबर 2019 को भारतीय संविधान को अंगीकार किये जाने की 70वीं वर्षगांठ पर संसद के संयुक्त अधिवेशन में सांसदों को संबोधित करते हुए भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इस बात पर जोर दिया कि अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे से बड़ी गहराई से जुड़े हुए हैं.

जैसे यदि भारत का संविधान सभी नागरिकों को भाव अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है तो उन पर ये कर्तव्य भी अपेक्षित करता है कि वे सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान न पहुंचाएं और हिंसा के कार्यों से दूर रहें. यदि कोई अन्य नागरिक उन्हें हिंसा और तोड़फोड़ से रोकता है तो वह एक कर्तव्यपरायण नागरिक है. जब एक नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करता है तो वे परिस्थितियां स्वयं उत्पन्न होती हैं जहां उसके और अन्य नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण हो सके.

संविधान में उल्लिखित ये मूल कर्तव्य नागरिकों के आचार और व्यवहार के कुछ नियम तय करते हैं. वैसे ये प्रावधान कानूनी नहीं हैं, ये केवल व्यक्ति के नैतिक दायित्व हैं परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने एक नागरिक को अपने कर्तव्य के उचित पालन के लिए सक्षम बनाने को लेकर राज्य को इस संबंध में निर्देश जारी किये हैं.


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वर्मा समिति और मौलिक कर्तव्य

सर्वोच्च न्यायालय ने मई 1998 में भारत सरकार को एक अधिसूचना जारी की कि राज्य का कर्तव्य है कि वह मौलिक कर्तव्य के बारे में जनता को शिक्षित करें ताकि अधिकार तथा कर्तव्य के मध्य संतुलन बन सके. इस अधिसूचना के बाद भारत सरकार ने जस्टिस जेएस वर्मा समिति का गठन किया जिसके प्रमुख कार्यों में यह था कि समिति प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक एवं विश्व विद्यालय के स्तर पर मौलिक कर्तव्य की शिक्षा के लिए विषय वस्तु विकसित करें.

वर्मा समिति ने पाया कि देश में मौलिक कर्तव्यों के प्रति जन सामान्य में जागरूकता की कमी है. समिति ने मूल कर्तव्यों के क्रियान्वयन के लिए कानूनी प्रावधानों को लागू करने की सिफारिश की.

वैसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक अवसरों पर कहा है कि मौलिक कर्तव्यों के पालन के लिए रणनीति बनाना कार्यपालिका या सरकार का दायित्व है. सरकारें इस दिशा में समय-समय पर कानून भी बनाती रही हैं जो वन संपदा के अनुचित दोहन, राष्ट्रीय अखंडता, राष्ट्र गान, राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान करने, स्त्रियों के प्रति हिंसा और अपराध, बालकों की शिक्षा आदि के संबंध में हैं.

कुछ समय पहले ही उत्तर प्रदेश की सरकार ने कुछ कठोर कानून बनाए हैं जो दंगों आदि की परिस्थिति में सार्वजनिक संपत्ति और वाहनों को नुकसान पहुंचाने पर उनकी भरपाई से संबंधित हैं. कई कानूनों पर विवाद भी उठते रहे हैं. लेकिन यदि समग्र रूप में देखा जाए तो नैतिक और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा राज्य द्वारा कठोर कानूनों को बनाने मात्र से नहीं होती बल्कि अपने नागरिकों को ऐसी परिस्थितियां उपलब्ध करवाने से होती है जिनमें इन गुणों का स्वतः विकास हो सके.

इस दृष्टि से देखा जाए तो यह काम शिक्षा द्वारा किया जा सकता है. शिक्षा ऐसी हो जो विद्यार्थियों में मानवीय गुणों, नैतिक और संवैधानिक मूल्यों का संचार करे. उनका समग्र विकास करके उन्हें सच्चे अर्थों में मानव बनाए. हमारी नई शिक्षा नीति सर्वांगीण विकास की इसी अवधारणा पर आधारित है. हम इन लक्ष्यों को कितना और कैसे प्राप्त करेंगे यह तो इसका सही समय पर सही क्रियान्वयन ही बताएगा.

(लेखिका नारी शिक्षा निकेतन पीजी कॉलेज लखनऊ में राजनीति विज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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