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Friday, 22 November, 2024
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बजट प्राइवेट स्कूलों को सता रहा ताला लगने का डर, महामारी के बीच फंड खत्म होने पर शिक्षकों को राशन बांट रहे

भारत में अधिकांश निजी स्कूल कम बजट वाले संस्थान हैं. कोविड महामारी के कारण कई छात्रों के माता-पिता को वेतन मिलना बंद हो गया है, जिससे स्कूलों की आय का प्रमुख स्रोत ही खत्म हो गया है.

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नई दिल्ली: चौधरी नाथू सिंह पिछले 30 सालों से दिल्ली के द्वारकापुरी क्षेत्र में एक बजट निजी संस्थान गांधी मेमोरियल स्कूल चला रहे हैं, लेकिन इस साल ने उनके सामने ऐसी चुनौतियां पेश कर दी हैं जिसका सामना उन्होंने पहले कभी नहीं किया.

उन्होंने बताया कि कोविड-19 लॉकडाउन की वजह स्कूल बंद किए जाने से उसका वित्तीय स्रोत पूरी तरह बंद हो गया है. उन्होंने कहा, ‘हमारे पास कोई फंड नहीं बचा है. फरवरी से हमारी बैलेंस शीट शून्य है. हमारा निजी स्कूल छोटा-सा है, जिसकी फीस प्रति माह लगभग 800-1,000 रुपये है. अभिभावक कहते हैं कि उनके पास फीस भरने के लिए कोई पैसा नहीं है.’

बहरहाल, सिंह का दावा है कि वह तो अपने स्कूल के शिक्षकों को भुगतान के लिए धन जुटाने में ‘किसी तरह सफल’ रहे हैं, लेकिन कई अन्य निजी स्कूलों का प्रशासन- महामारी और लॉकडाउन की चपेट में आने की वजह से- ऐसा करने में सक्षम नहीं है.

निजी स्कूल शब्द से आमतौर पर ऐसे संस्थानों की चमकदार छवि उभरती है जो बच्चों को पूरी शिक्षा देने के नाम पर लंबी-चौड़ी फीस लेते हैं. लेकिन कुछ अनुमानों के मुताबिक भारत में निजी स्कूलों का अधिकांश हिस्सा यानी लगभग 80 प्रतिशत, छोटे बजट वाले संस्थानों का है, जो कम फीस लेते हैं लेकिन तमाम अभिभावकों को वह सरकारी स्कूलों का बेहतर विकल्प नजर आते हैं.

थिंक-टैंक सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी (सीसीएस) के अनुसार बजट ‘निजी स्कूलों का ऐसा विस्तारित हिस्सा हैं’ जो आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों की जरूरत पूरी करते हैं और अक्सर इन्हें कुछ लोगों द्वारा अपने घर पर चलाया जाता है.’

सीसीएस ने अपनी 2018 की एक रिपोर्ट में कहा है, ‘बजट स्कूलों की पहचान के लिए निजी स्कूलों में फीस का स्तर निर्धारित करने के लिए विभिन्न तरीके हैं. आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले कुछ बेंचमार्क में न्यूनतम दैनिक भत्ता, सरकारी स्कूलों में प्रति छात्र व्यय या राज्य की प्रति व्यक्ति जीडीपी आदि शामिल होते हैं.’

शिक्षा क्षेत्र के थिंक-टैंक सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन (सीएसएफ) की तरफ से पिछले माह ‘स्टेट ऑफ द सेक्टर-प्राइवेट स्कूल इन इंडिया’ शीर्षक से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 70 प्रतिशत से अधिक भारतीय निजी स्कूल के छात्र 1,000 रुपये प्रतिमाह से कम फीस का भुगतान करते हैं, जबकि 45 फीसदी में फीस 500 रुपये प्रतिमाह से कम है.

चूंकि महामारी और लॉकडाउन ने रोजगार को बुरी तरह प्रभावित किया है, जिससे आबादी के विभिन्न तबकों खासकर भारत की एक बड़ी ताकत दैनिक मजदूरों, के लिए आर्थिक संभावनाएं घट गई थीं. ऐसे में तमाम बजट स्कूलों की आय के प्रमुख स्रोत खत्म हो गए हैं और स्थिति इसलिए और भी विकट है क्योंकि स्कूल ऑनलाइन कक्षाएं चलाने में आ रही मुश्किलों को एक और बड़ी चुनौती बता रहे हैं.

‘रास्ते बंद हुए’

चौधरी नाथू सिंह ने नियमित खर्चों – किराया, पानी, बिजली शुल्क आदि का हवाला देते हुए कहा कि इस साल के अंत तक स्कूल को चलाना संभव नहीं हो सकता है.

दिल्ली के उत्तम नगर में आइडियल रेडिएंट नामक एक बजट निजी स्कूल चलाने वाले प्राइवेट लैंड्स पब्लिक स्कूल ट्रस्ट के महासचिव चंद्रकांत सिंह ने कहा, ‘अगर हम उन स्कूलों की बात करें जिनकी मासिक फीस 1,500 रुपये से कम है, तो ऐसे 90 फीसदी स्कूल अपने शिक्षकों को वेतन नहीं दे पा रहे हैं.’

उन्होंने बताया, ‘जुलाई में 44 बच्चों ने अपनी फीस का भुगतान किया, और अगस्त में अब तक केवल 14 ने ही भुगतान किया है. मेरे स्कूल में 725 छात्र हैं. इतनी कम फीस मिलने के साथ हम वेतन देने के लिए पर्याप्त धन कैसे जुटाएंगे?’

चंद्रकांत ने बताया कि वह पैसे के बदले शिक्षकों को राशन किट दे रहे हैं.

उन्होंने आगे कहा, ‘मेरे स्कूल में लगभग 40 शिक्षक हैं. राशन किट देने में मेरे लिए लगभग 60,000-80,000 रुपये का खर्च आएगा, जो कुल वेतन की तुलना में सस्ता है. इसके अतिरिक्त स्थानीय खाद्य विक्रेताओं के साथ वर्षों से बने रिश्तों के कारण हम सामान उधार लेने में भी सक्षम हैं.’


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हैदराबाद के स्कॉलर मॉडल स्कूल के निदेशक हुसैन अब्बास जुनैदी भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘मुझे आपको यह बताने में बहुत ही दुख हो रहा है कि मैं पिछले चार महीनों से अपने शिक्षकों को भुगतान करने में अक्षम हूं. हमारे बिजली के बिल और किराया आदि बकाया हैं. अभिभावकों से स्कूल की फीस मिलनी बंद हो चुकी है.’

उन्होंने बताया, ‘हमारे छात्रों के माता-पिता दैनिक-वेतनभोगी, किसान या सीजनल कामगार हैं. हर साल हम उनके अनुरोधों को मान लेते हैं और जब भी उनके पास धन होता है तब फीस चुकाना स्वीकार लेते हैं. लेकिन इस साल जब स्कूल प्रशासन को उनकी मदद की जरूरत थी, तब अभिभावकों ने स्कूल की स्थिति के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचा.’

जुनैदी के अनुसार, हैदराबाद में लगभग 500 सस्ते निजी स्कूल धन की कमी के कारण बंद कर दिए गए हैं.

फीस एकत्र करना एक चुनौती

जून में जारी एक सर्वेक्षण में बजट निजी स्कूलों में कोविड के कारण फीस जुटाने में आ रही समस्या को आंकड़ों में दर्शाया गया था. एक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी इंडियन स्कूल फाइनेंस कंपनी, जो शिक्षा संस्थानों को वित्त पोषित करती है, की तरफ से कराए गए सर्वेक्षण में 1,678 उत्तरदाताओं को शामिल किया गया था. निजी स्कूलों, कॉलेजों और व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों के मालिकों और प्रधानाचार्यों को शामिल करके किए गए इस सर्वे में बजट निजी स्कूलों को भी एक सेगमेंट बनाया गया था.

इसके परिणामों के अनुसार, 87.5 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने फीस जुटाने में चुनौतियों का हवाला दिया. सर्वे के मुताबिक चुनौतियों के प्रमुख कारण हैं- माता-पिता के पास फीस भुगतान के लिए आय का साधन नहीं है (55 प्रतिशत), लॉकडाउन के कारण फीस या भुगतान के लिए स्कूल या बैंक परिसर जाने में अक्षम (24.5 प्रतिशत), देरी से वेतन मिलने के कारण समय पर भुगतान करने में असमर्थ (12 प्रतिशत), और ऑनलाइन कक्षाओं के लिए भुगतान के इच्छुक नहीं (8.5 प्रतिशत) हैं.

यह निष्कर्ष ऊपर उल्लेखित सीएसएफ द्वारा तैयार ‘स्टेट ऑफ सेक्टर- प्राइवेट स्कूल इन इंडिया’ की रिपोर्ट की लाइन पर ही है. रिपोर्ट के एक हिस्से में ‘निजी स्कूलों पर कोविड-19 के प्रभाव’ का विश्लेषण किया गया है, जिसमें ‘90 से अधिक हितधारकों’–30 स्कूल लीडर, 24 शिक्षक, 24 अभिभावक और 18 सेवा प्रदाताओं- से बातचीत के आधार पर करीब तीन हफ्ते चले अध्ययन के नतीजे शामिल हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस अवधि के लिए स्कूल बंद होने, परीक्षाएं स्थगित होने और व्यापक स्तर पर फीस का भुगतान न होने के कारण कम फीस वाले स्कूलों के राजस्व पर सबसे ज्यादा असर दिखाई दिया है.

सीएसएफ के प्रबंध निदेशक बिक्रम दौलत सिंह ने कहा, ‘कम फीस वाले तमाम निजी स्कूलों ने हमें बताया कि लॉकडाउन के दौरान कोई शुल्क नहीं लिया गया था और इस वजह से कई शिक्षकों को भुगतान नहीं किया जा सका.’

सिंह ने कहा, ‘महामारी का समय ऐसा था जिसने स्कूलों को बुरी तरह प्रभावित किया (मार्च के मध्य तक सभी स्कूल बंद हो गए थे). यह वह समय था जब स्कूल अपना नया सत्र शुरू करते हैं और फीस का भुगतान होता है. कई स्कूलों ने तो हमें यहां तक बताया कि वे कुछ छात्रों से अंतिम सत्र की फीस भी नहीं ले पाए थे.’

उन्होंने कहा, ‘इस समस्या का कोई तात्कालिक समाधान नहीं है क्योंकि सरकार इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती क्योंकि ये निजी स्कूल हैं. जब तक चीजें अपनी स्वाभाविक स्थिति में नहीं आती और महामारी से जुटी समस्याएं खत्म नहीं होती हैं, तब तक कोई तात्कालिक समाधान नजर नहीं आता है.’

भारत सरकार के पूर्व सचिव अनिल स्वरूप, जिन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय (जो अब शिक्षा मंत्रालय है) में काम किया है, ने कहा कि ये ‘अभूतपूर्व समय’ हैं और समाधान सीधे हितधारकों की तरफ से आने चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘केंद्र या यहां तक कि राज्य सरकारें भी… इस समस्या का समाधान नहीं कर सकती. आप माता-पिता को शुल्क देने के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं या फिर स्कूलों को अनिवार्य रूप से शुल्क एकत्र करने का निर्देश भी नहीं दे सकते.’

हितधारकों के इस समस्या का निकालने में पूरी तरह जुटे होने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, ‘कई ऐसे किफायती स्कूल हैं जो यह समस्या सुलझाने के लिए तमाम तरीके आजमा रहे हैं. कुछ ने अभिभावक संघों के साथ गठजोड़ किया है और भुगतान टाल दिया है, कुछ ने शुल्क वसूली प्रक्रिया आगे बढ़ा दी है और कुछ एक साथ धन जुटाने में लगे हैं.’

ऑनलाइन कक्षाएं एक और चुनौती

धन की समस्या के अलावा स्कूल ऑनलाइन कक्षाएं चलाने में भी खासा संघर्ष कर रहे हैं, जो कि शिक्षा का प्राइमरी मोड बन गया है क्योंकि शैक्षणिक संस्थान महामारी के कारण बंद कर दिए गए हैं.

बरेली स्थित गिरीश प्रसाद मेमोरियल स्कूल की सीईओ अपर्णा शर्मा ने कहा, ‘चूंकि हमारे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे निम्न और मध्यम आय वर्ग के हैं, इसलिए उनके घर में लैपटॉप, सेलफोन या मोबाइल नहीं है. इसका सीधा मतलब सीमित वीडियो सेशन है.’


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स्कॉलर मॉडल स्कूल के जुनैदी ने भी इसी तरह की चिंताओं की ओर ध्यान आकृष्ट कराया, लेकिन ‘इस कठिन समय में शिक्षकों की तरफ से दिखाए गए धैर्य और दृढ़ संकल्प’ के लिए उनकी प्रशंसा भी की.

उन्होंने कहा, ‘अपनी तनख्वाह न मिलने के बावजूद, शिक्षक छात्रों को पढ़ाना जारी रखते हैं. आय के कम स्रोतों के कारण उनके पास बहुत अधिक डाटा नहीं होता है, लेकिन फिर भी वे सुनिश्चित करते हैं कि पाठ्यसामग्री और फीडबैक समय पर उपलब्ध करा पाएं. मेरी जानकारी में यह बात भी आई है कि शिक्षक पढ़ाने की प्रक्रिया जारी रखने के लिए अब अपने पड़ोसियों से वाई-फाई पासवर्ड उधार ले रहे हैं और छोटे डाटा पैक भी खरीद रहे हैं.’

मॉडल अधिक उपयोगी बनाने के प्रयास

शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले गैरसरकारी संगठनों का कहना है कि वे निजी स्कूलों को ऐसी विषम परिस्थितियों में आय के वैकल्पिक स्रोत तलाशने में मदद पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं.

मुंबई में पिछले चार साल से काम कर रहे एनजीओ बेयरफुट एडू फाउंडेशन की सहसंस्थापक और निदेशक सौम्या अग्रवाल ने कहा, ‘शहर के कुछ निजी स्कूलों से बात करने के बाद हमने महसूस किया कि वे कई चुनौतियों का सामना कर रहे थे, जिनमें से अधिकांश वित्तीय संकट से उकता चुके हैं.’

उन्होंने कहा, ‘यह जानना बहुत ही चौंकाने वाला था कि प्री-प्राइमरी ग्रेड के शिक्षक इन्हें छोड़ने की सोच रहे हैं. स्कूल आमतौर पर उन्हें 3,000 और 7,000 रुपये के बीच भुगतान करते हैं… यह आय बंद होने से उन्होंने दूसरे साधन तलाशने की योजना बनाई. इसे दूर करने के लिए हम स्कूल लीडर के लिए इन्क्यूबेशन प्रोग्राम ‘रहनुमा’ शुरू कर रहे हैं. यहां, उन्हें धन संग्रह करने, राजस्व के वैकल्पिक स्रोतों को पहचानने और स्कूलों के लिए वार्षिक योजनाएं बनाने के बारे में सिखाया जाएगा.’

मुंबई के आठ साल पुराने संगठन 321 फाउंडेशन ने भी ऐसे स्कूलों की मदद के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया है.

इसके संस्थापक गौरव सिंह ने कहा, ‘हमने जो कुछ पेशकश की है वह बजट निजी स्कूलों के लिए लागत-मुक्त है. हम काफी अच्छे कंटेंट वाली पाठ्यसामग्री मुहैया कराते हैं ताकि शिक्षक उन्हें व्हाट्सएप पर पढ़ा सकें.’

उन्होंने कहा, ‘व्यापक स्तर पर सिम्पलीफाइड लेसन प्लान को व्हाट्सएप पर आसानी से साझा किया जा सकता है…इस प्लान के अंत में एक एक्टीविटी होती है जिसे छात्र अपने शिक्षक को इमेज के तौर पर भेज सकते हैं.’

गौरव के मुताबिक, उनके पास अब तक 700 स्कूल पंजीकृत हैं. उन्होंने बताया, ‘शिक्षकों ने इस बात से राहत मिली है कि उन्हें पाठ्य सामग्री तैयार करने में अपना समय और इंटरनेट खर्च करने की जरूरत नहीं है, इसके बजाये वह सिखाने के लिए छात्र-शिक्षक के बीच बातचीत पर ही ध्यान केंद्रित कर सकते हैं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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