scorecardresearch
Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतमोदी के भारत में संपादकों के पास दो ही विकल्प- अपनी आवाज़ बुलंद करें या बौद्धिक गुलामी मंजूर करें

मोदी के भारत में संपादकों के पास दो ही विकल्प- अपनी आवाज़ बुलंद करें या बौद्धिक गुलामी मंजूर करें

भारतीय लोकतंत्र का चौथा खंभा माने जाने वाले प्रेस को आज इसके बाकी तीन खंभों जितनी अहमियत नहीं दी जा रही, तो साफ है कि पत्रकारों के सामने आज कौन-से रास्ते खुले हैं.

Text Size:

क्या प्रेस को अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए? अगर वह ऐसा नहीं करता तो क्या उसे प्रेस माना जा सकता है? लेकिन वह बोले तो क्या बोले? ‘न्यूज़लांड्री’ ने हाल में एक ‘वेबिनार’ करके इन सवालों पर बहस की. ‘न्यूज़लांड्री’ एक साहसी न्यूज पोर्टल है, जो इस समय के दबंग संपादकों का आह्वान करने की हिम्मत करता रहता है. ‘द शिलांग टाइम्स ’ की संपादक होने के नाते मैं कबूल करती हूं कि 75 साल पुराने इस अखबार में करीब 12 साल के अपने सेवाकाल में पहली बार मुझे गुलामी का एहसास हो रहा है कि मैं संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत हासिल स्वतंत्रता की सांस नहीं ले पा रही हूं. यह अनुच्छेद हम सबको स्वाधीनता की गारंटी देता है.

क्या सिर्फ मुझे ही यह लगता है कि कहीं कोई मुहावरा या वाक्य बदल दूं ताकि किसी की भावना आहत न हो? एक समय था जब जनहित को चोट पहुंचाने वाले किसी मसले के खिलाफ कोई भी शोर मचा सकता था, बेशक इस उपदेश का ख्याल रखते हुए कि ‘मेरी आज़ादी वहीं पर आकर खत्म हो जाती है जहां से आपकी नाक शुरू होती है’.

भारतीय लोकतंत्र का चौथा खंभा माने जाने वाले प्रेस को इसके बाकी तीन खंभों—विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका— जितनी अहमियत क्यों नहीं दी जाती? ये तीन खंभे आज लगभग परम पावन और आलोचना से परे क्यों माने जाते हैं? ये तीनों खंभे, खासकर कार्यपालिका और न्यायपालिका, प्रेस को हमेशा उसकी औकात क्यों बताना चाहते हैं? हम मीडिया वाले आखिर गलत क्या कर रहे हैं? क्या हम आज वह कर रहे हैं जो पहले नहीं करते थे? कोई हमें बताएगा कि हम अपनी हदें कहां पार कर रहे हैं? और, ‘कोई’ से मेरा मतलब है तीसरा पक्ष, जो तटस्थ हो और जिसका चारों में से किसी खंभे के साथ कोई स्वार्थ न जुड़ा हो.


यह भी पढ़ें: रिटायर्ड आईएफएस अधिकारियों ने फॉरेस्ट सर्टिफिकेशन स्कीम और मोदी सरकार समर्थित एनजीओ पर उठाये सवाल


प्रेस का फर्ज़

प्रेस अपनी आवाज़ क्यों बुलंद करे और वह भी आज़ाद होकर? इस सवाल का जवाब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज जॉर्ज सदरलैंड ने बहुत पहले ही यह कहकर दे दिया था कि ‘लुप्त हो चुकी स्वाधीनता की याद में सबसे दुखभरी समाधि-लेख यही हो सकता है कि इसे हमने इसलिए खो दिया क्योंकि यह जिसके हाथों में थी उन्होंने समय रहते उसकी रक्षा के लिए हाथ नहीं बढ़ाया’. यह आज हम सबके ऊपर लागू होता है. भारत में मीडिया के एक पक्ष को दंडवत करते देखकर हम परेशान हैं. टीवी पर प्राइम टाइम पर जो पैनल बहस होती है उसका मकसद नरेंद्र मोदी सरकार का महिमागान करना ही होता है.

इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी जब चुनाव हार गई थीं और जनता पार्टी सत्ता में आई थी तब उसके सूचना व प्रसारण मंत्री बने लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ मीडिया वालों को फटकारा था, ‘आप लोगों से झुकने के लिए कहा गया और आप साष्टांग दंडवत हो गए थे.’

विडंबना यह है कि उन्हीं आडवाणी की भाजपा आज हदें तय कर रही है कि मीडिया को इन्हीं के अंदर रहकर काम करना होगा.

तो हमारे लिए स्थितियां कहां बेहतर हुईं? फिर भी हम इन बुरे प्रकरणों पर आपस में चर्चा करने के सिवा कुछ नहीं कर रहे. पत्रकारिता के इन दुष्कर्मों की ओर उंगली उठाने से हममें से हर कोई डर रहा है. इसलिए कुछ लोग आज सत्ता की बागडोर थामे लोगों की छाया के तले मजे ले रहे हैं. वे विशेषाधिकारों का उपभोग कर रहे हैं क्योंकि वे उन्हें अनुग्रहीत कर रहे हैं और यथास्थिति से कोई असहमति नहीं जाहिर कर रहे हैं.

इसके अलावा, कुछ ऐसे मीडिया घराने हैं, जिनकी कमाई का मॉडल सरकारी और कॉर्पोरेट विज्ञापनों पर अवांछित रूप से निर्भर है. कोरोनावायरस की महामारी ने कुछ बदनुमा पहलुओं को उजागर कर दिया कि यह मॉडल टिकाऊ नहीं है और इसकी पोल जल्दी खुल जाती है. सैकड़ों पत्रकारों की छुट्टी कर दी गई है, जिनमें से कई को तो इतना मुआवजा भी नहीं दिया गया है कि वे छह महीने भी गुजारा कर सकें. उन्हें अपनी नौकरी इसलिए गंवानी पड़ी क्योंकि मीडिया मालिकों ने अपनी कमाई के मॉडल पर कभी गहराई से विचार नहीं किया. महामारी ने ताश के पत्तों के महल को ढहा दिया और कई शहरों में प्रकाशनों को बंद कर दिया गया और कर्मचारियों को दरवाजा दिखा दिया गया. अब, हाशिये पर पड़े लोगों की आवाज़ का क्या होगा? क्या भारत चंद बड़े महानगरों का देश रह जाएगा, जिनमें चंद ताकतवरों की जिंदगी का मोल रह जाएगा?


यह भी पढ़ें: सोमनाथ, अक्षरधाम और अब राम मंदिर- 15 पीढ़ियों से मंदिर डिजाइन कर रहा है गुजरात का ये परिवार


बहुप्रतीक्षित सुधार

प्रेस बोले, यह क्यों जरूरी है? क्या यह सवाल इतना कठिन है कि इसका कोई जवाब नहीं दिया जा सकता? पत्रकारिता की पुरानी धारा वालों के लिए यह सवाल कतई कठिन नहीं है. प्रेस बेआवाज लोगों की आवाज़ होता है. इस पेशे के सीनियर लोग हमें यही घुट्टी पिलाते थे. प्रेस का काम यह है कि वह सामान्य नागरिकों को जिन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बुराइयों को रोज भुगतना पड़ता है उन्हें कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका के सामने लाए. अपेक्षा यह की जाती है कि इन खबरों से लोकतंत्र के तीन स्तंभों की अंतरात्मा जागेगी और वे उन बुराइयों को दूर करने में जुट जाएंगे.

कुछ दिनों तक तो ऐसा ही चला, जब तक कि सत्ता के गलियारों में मोदी सरकार का पदार्पण नहीं हुआ था और उसने यह फैसला नहीं किया कि वह सजग, सवालिया और मीन-मेख निकालने वाली मीडिया की कोई परवाह नहीं करेगी.

सो, आज कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका की जवाबदेही कौन तय कर रहा है? हां, मीडिया का एक भाग अभी भी यह करने में जुटा हुआ है, हालांकि उसका दम फूल रहा है. आज्ञाकारिता ही आज का कायदा है. अगर आप आज्ञाकारी नहीं हैं, तो मारे जाएंगे. हम बेहद ध्रुवीकृत दुनिया में जी रहे हैं. एक तरफ उदारवादी वामपंथ है, दूसरी तरफ धुर दक्षिणपंथ है. और हममें से ज़्यादातर लोग इनके बीच फंसे हैं (विचारधारा को किनारे करके, सिवा इसके कि संभव हो तो अपना जीवन कुछ अर्थपूर्ण ढंग से जी सकें). हमने आवाज़ लगाना जारी रखा है क्योंकि हमें अपना जीवन भी प्यारा है और बोलने-लिखने की आज़ादी भी प्यारी है, भले ही वह कमजोर हो गई हो.

हमारी आज़ादी के साथ कई अच्छाइयां जुड़ी हैं लेकिन आज जब हम इन आज़ादियों को छिनते और दिल्ली दंगों की जांच करने वाली कानूनी एजेंसियों का इतने करीब से राजनीतिकरण होते देखते हैं तो सन्न रह जाते हैं. लेकिन विकल्प दो ही हैं- बोलो और इसकी कीमत चुकाओ या बौद्धिक दासता कबूल करो. चुनना आपको है.

रूसी अराजकतावादी विचारक माइकल बुखानिन ने ‘फेड्रेलिज्म, सोशलिज़्म एंड एंटीथियोलॉजिन‘ में लिखा है- ‘बौद्धिक गुलामी, चाहे वह किसी भी तरह की हो स्वाभाविक रूप से हमेशा राजनीतिक और सामाजिक गुलामी को जन्म देगी.’

अगर हमें अपनी बौद्धिक आज़ादी वापस हासिल करनी है तो प्रेस को आगे बढ़कर परचम थामना होगा. अपने आप को सुधारते हुए लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंभों की खामियों को सुधारने की पहल करना भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है. जी हां, निंदा नहीं बल्कि सुधार क्योंकि लोकतंत्र के किसी एक खंभे को दूसरे खंभे पर अपना वर्चस्व जमाने की छूट नहीं दी जा सकती.

(लेखिका द शिलांग टाइम्स की संपादक और पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में उत्पन्न संकट से महात्मा गांधी कैसे निपटते, ये हैं नौ सूत्रीय कार्यक्रम


 

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. उदार बादी दक्षिणपंथी, धुर वामपंथी।।।।यह सही वाक्य है।।।महोदया।।।।।।

Comments are closed.