भारतीय सेना और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के बीच पूर्वी लद्दाख में पीछे हटने (डिसइंगेजमेंट) की प्रक्रिया में गतिरोध आ गया है. मीडिया को एक व्यवस्थित कथानक मुहैया कराने वाले स्रोत चुप पड़ गए हैं. अग्रिम मोर्चे से आ रही खबरें राष्ट्रीय समाचर पत्रों के अंदर के पन्नों में चली गई हैं. ये स्थिति पीएलए के दक्षिणी शिंजियांग सैन्य क्षेत्र के कमांडर मेजर जनरल लिऊ लिन के कठोर और अड़ियल रवैये का नतीजा लगती है. लिन देपसांग और पैंगोग त्सो में किसी तरह के डिसइंगेजमेंट के लिए तैयार नहीं हैं और उन्होंने 14 जुलाई की बैठक में उनके चीनी भूभाग होने का दावा किया था.
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वादे पर खरा नहीं उतर रहा चीन
हॉट स्प्रिंग के उत्तर कुगरांग नदी और चांगलुंग नाला क्षेत्र में ऐसा लगता है कि पीएलए ने सीमित स्तर पर ही डिसइंगेजमेंट किया है जो कि समझौते के अनुरूप नहीं है. चीनी इस इलाके को लेकर बेहद संवेदनशील हैं क्योंकि यहीं से होकर गलवान नदी के ऊपरी क्षेत्रों तक के रास्ते निकलते हैं. गोगरा-कोंग्का ला इलाके में भी यही स्थिति है. इस प्रकार, कोर कमांडर स्तर की बैठक में बफर ज़ोन निर्मित करते हुए सेनाओं के पीछे हटने को लेकर जो सहमति बनी थी उस पर सिर्फ गलवान घाटी में ही अमल हुआ प्रतीत होता है.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 17 जुलाई को लद्दाख में सैनिकों को संबोधित करते हुए एलएसी की उपरोक्त स्थिति के बारे में बेबाक चर्चा की थी. उन्होंने कहा, ‘सीमा विवाद के समाधान के लिए बातचीत चल रही है, लेकिन किस हद तक ये समाधान हो पाएगा, मैं गारंटी नहीं दे सकता. लेकिन मैं आपको भरोसा दिला सकता हूं कि दुनिया की कोई भी ताकत हमारी एक इंच भूमि भी नहीं ले सकती है.’ मई में चीनी अतिक्रमण के बाद से ये पहला मौका था जब आधिकारिक रूप से पहली बार गंभीर ज़मीनी स्थिति की बात को स्वीकार किया गया कि चीन अतिक्रमित भूभाग पर अपना स्थायी नियंत्रण रखना चाहता है. हालांकि व्यापक संदर्भ में, सरकार अब भी इस बात से इनकार की मुद्रा में है कि अपनी भूमि पर कोई अतिक्रमण हुआ है.
विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ये आरोप लगाते हुए सीधा हमला कर चुका है कि अपनी ‘सख्त नेता की छवि’ के बचाव के लिए वह भारतीय भूभाग गंवाने के मुद्दे पर इनकार और भ्रम का सहारा ले रहे हैं, जिसे चीन मौन स्वीकृति के रूप में इस्तेमाल कर रहा है.
इसके बावजूद, यदि चीन भारत को विवशता में तय राजनीतिक उद्देश्य– चीन द्वारा अतिक्रमित इलाके को बफर ज़ोन बनाते हुए अप्रैल 2020 वाली स्थिति– भी हासिल नहीं करने देता है तो फिर वैसे में भारत के पास सैन्य विकल्प क्या होंगे? दो संभावित परिदृश्यों में संघर्ष हो सकते हैं– चीन का शुरू किया संघर्ष या भारत द्वारा आरंभ संघर्ष.
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चीन द्वारा शुरू संघर्ष का परिदृश्य
इस बात पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत-पाकिस्तान संघर्ष की तरह ही, चीन-भारत संघर्ष का भी एक परमाण्विक आयाम होगा. विडंबना ये है कि इस संघर्ष में अपनी संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता के बचाव के लिए परमाणु टकराव के खतरे का भय भारत दिखा रहा होगा.
यदि भारत आगे बढ़कर की गई चीनी कार्रवाई के चलते बनी वर्तमान स्थिति को मानने के लिए तैयार नहीं होता है, तो संभव है कि पीएलए तनाव की स्थिति को अनिश्चितकाल तक जारी रखने की बजाय अपनी बात थोपने के लिए भारत को निर्णायक रूप से पराजित करने की सोचे. चीन के संभावित सैन्य उद्देश्यों का मैं अपने पूर्व के एक कॉलम में उल्लेख कर चुका हूं.
भारत की मुख्य रक्षापंक्ति विकट ऊंचाई वाले क्षेत्रों में है, जो अलग-अलग इलाकों में एलएसी से 10 से 80 किलोमीटर तक दूर हैं. एलएसी की अवस्थिति के कारण पीएलए के लिए हमारी अग्रिम तैनाती को अलग-थलग करना संभव है. हालांकि यदि युद्ध होता है, तो संभावना यही है कि यह भारत की मुख्य रक्षापंक्ति से आगे अग्रिम मोर्चे पर लड़ा जाएगा.
मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारतीय सशस्त्र बलों ने पिछले तीन महीने की अवधि का उपयोग टकराव के बिंदुओं पर और उन इलाकों में जहां कि पीएलए हमारी अग्रिम तैनातियों को रोक सकती है, रक्षा के दुर्जेय इंतजामों के लिए किया होगा.
ऐसे परिदृश्य में, हमारा सैन्य उद्देश्य भूभाग के न्यूनतम नुकसान के साथ पीएलए को रोकने की और साथ ही, अधिक नहीं तो कम-से-कम उसी के बराबर चीनी क्षेत्र पर नियंत्रण की होनी चाहिए ताकि बाद में सौदेबाज़ी की जा सके. अपनी ज़मीन की रक्षा करने के साथ-साथ रणनीतिक स्तर पर जवाबी हमले कर शत्रु को पीछे धकेलने के लिए हमारे पास पर्याप्त संख्या में सैनिक हैं.
जाहिर तौर पर ये भारत के लिए अपेक्षाकृत फायदे वाला परिदृश्य है क्योंकि पीएलए को वर्चस्व वाली स्थिति में मौजूद भारतीय टुकड़ियों से जूझना पड़ेगा. हालांकि, ये काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि पिछले तीन महीनों में हम किस स्तर की तैयारी कर पाए हैं.
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भारत द्वारा शुरू संघर्ष का परिदृश्य
यदि चीन 1959 के अपने दावे के अनुरूप अपनी बढ़त बनाकर रखना चाहता है तो ये हमारे ऊपर होगा कि हम सैन्य कार्रवाई कर उसे पीछे हटने के लिए बाध्य करें. एक अपरिष्कृत विकल्प होगा चीनियों को पीछे धकेलने के लिए सीधे अतिक्रमण वाले बिंदुओं पर हमले करना. इसका एक फायदा ये है कि संभवत: लड़ाई का दायरा सीमित रहे और हम अपनी सुविधानुसार समय और मौसम के अनुरूप ऐसा कर सकते हैं. हालांकि, इसमें एक नुकसान भी निहित है– भारतीय सशस्त्र बलों के लिए चौंकाने वाले हमले करना अपेक्षाकृत मुश्किल होगा और हमारा सामना शत्रु की चौकस और तैयार रक्षापंक्ति से होगा.
हमारे लिए दूसरा विकल्प है चीन के खिलाफ बदले की कार्रवाई के तौर पर एलएसी के उन चुनिंदा ठिकानों पर हमले करना जहां वे कमज़ोर हैं– और फिर भारतीय सेना द्वारा कब्जा किए गए इलाकों के बदले में पीएलए को भारतीय भूभाग से पीछे हटने के लिए कहना. चूंकि हमले की पहल हम कर रहे होंगे, इसलिए उचित समय, स्थान और मौसम का चुनाव हमारे हाथों में होगा. समय के चुनाव में अपनी तैयारियों और दुश्मन को चौंकाने वाले रणनीतिक हमलों की संभावनाओं को आधार बनाना होगा. उल्लेखनीय है कि ‘इनकार और भ्रमित करने’ वाला रवैया, तथा सैन्य/राजनयिक वार्ताएं इस सामरिक चतुराई वाली योजना के लिए उपयोगी साबित होंगी. तार्किक रूप से, यह पसंदीदा विकल्प होना चहिए.
दोनों ही परिदृश्यों में, पूर्वी लद्दाख में पीएलए को पराजित करने के लिए हमें 3-4 बख्तरबंद ब्रिगेडों समेत सेना की 3-4 डिवीजनों की ज़रूरत होगी, जिनमें से हरेक में कम-से-कम दो सशस्त्र रेजिमेंट और दो मेकेनाइज़्ड इन्फैंट्री बटालियन शामिल होनी चाहिए. साथ ही उन्हें आवश्यक हवाई शक्ति, साजोसामान और अन्य ज़रूरी इंतजामों के रूप में समर्थन दिए जाने की दरकार होगी.
हमें किसी संभावित सैन्य झटके के राजनीतिक नतीजों को लेकर व्यर्थ में डरने या चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है. यदि कूटनीति विफल होती है तो राष्ट्र के सम्मान के खातिर हमें लड़ाई को दुश्मन के खेमे में ले जाना होगा. पूरी दुनिया हमें देख रही है.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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