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Friday, 22 November, 2024
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अमेरिका और रूस को भारत कैसे अपने पाले में ले आया जिससे चीन अलग-थलग होने पर मजबूर हुआ

चीन एलएसी से पीछे हट रहा है और उसे यह संदेश भी मिल चुका है कि भारत के पास आज दुनिया में और भी ज्यादा मित्र हैं. निश्चित तौर पर पिछले 24 घंटे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रहे हैं.

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राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के रविवार को चीन के विदेश मंत्री वांग यी से बात करने के कुछ घंटे बाद सोमवार को चीनी सैनिकों ने लद्दाख में गलवान घाटी और यहां तक कि पैंगोंग त्सो से भी पीछे हटना शुरू कर दिया. माना जाता है कि इस मुलाकात के दौरान डोभाल ने शांति और अमन की पूर्ण और स्थायी बहाली पर जोर दिया.

जानकारी के मुताबिक, लद्दाख में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच तीन किलोमीटर का बफर जोन बनाया गया है, दोनों पक्ष अपने तंबू, जवान और वाहनों को लेकर वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अपने-अपने इलाकों की तरफ लौट रहे हैं, इस सारी प्रक्रिया पर ड्रोन से नज़र रखी जा रही है. पैंगोंग त्सो में वापसी की प्रक्रिया अभी धीमी है क्योंकि गलवान और श्योक नदियां उफान पर हैं लेकिन इसका वास्तविक आकलन होने में अभी समय लगेगा.

पूरी तरह वापसी की प्रक्रिया में कुछ दिन लगें या कुछ सप्ताह या कुछ माह लेकिन यह तो साफ है कि चीनी पक्ष को झटका लगा है. एलएसी पर घुसपैठ के दो महीने बाद उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ रहा है.

अमेरिका साथ आया

एक चीज जो चीनी निश्चित तौर पर अपने साथ लेकर लौट रहे हैं वो ये कि एक पड़ोसी एशियाई शक्ति जो दुर्भावना में तो इससे काफी कमतर है लेकिन जिसे यह इल्म है कि आज उसके साथ चीन से कहीं ज्यादा देश दोस्त की तरह साथ खड़े हैं.

जरा सोचिए. चीन के पक्ष में तब कौन खड़ा हुआ जब उसने आक्रामकता दिखाते हुए एलएसी को पार करने का फैसला किया और तय किया कि उसे वह इलाका वापस लेना चाहिए जिस पर कभी चिंग वंश का शासन था?

यहां तक कि चीनी कर्ज के बोझ में सबसे ज्यादा दबे, जैसे लाओस ( जिसे हाईस्पीड रेलवे के जरिये जोड़ने का काम चीनी ही कर रहे हैं) और जिबूती (जहां चीनियों ने सैन्य अड्डा बनाया है) तक खुलकर ड्रैगन के समर्थन में नहीं आए हैं.

इसके विपरीत, भारत ने दुनिया के कुछ सबसे शांत के साथ-साथ सबसे अशांत खिलाड़ियों को भी अपने साथ खड़ा कर लिया है, उनमें से कुछ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के शक्तिशाली सदस्य हैं.

निश्चित तौर पर अमेरिकी सबसे ज्यादा मुखर रहे, जैसा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पिछले सप्ताह कहा कि ‘भारत-चीन सीमा पर चीन का आक्रामक रुख दुनिया के अन्य हिस्सों में चीनी आक्रामकता का ही एक और बड़ा उदाहरण है…’

ट्रम्प सही थे. पिछले हफ्ते ही, रूसी और चीनी सोशल मीडिया पर तब आपस में भिड़ गए थे जब चीनी मीडिया में ऐसे कुछ दावे सामने आए कि रूस का पूर्वी शहर व्लादिवोस्तोक किसी समय चिंग राजवंश के मंचूरियन होमलैंड का हिस्सा हुआ करता था लेकिन 1860 में चीन के सेकेंड ओपियम वार में ब्रिटेन और फ्रांस से हारने के बाद रूस ने इस पर कब्जा कर लिया.


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इससे पहले, अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) को ‘दुष्ट कलाकार’ तक करार दे दिया था और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) पर ‘भारत के साथ सीमा पर तनाव’ बढ़ाने का आरोप लगाया था.

निश्चित रूप से, अमेरिका का व्यापार को लेकर चीन से बड़ा झगड़ा चल रहा है और तथ्य यह भी है कि बीजिंग के कोरोनावायरस महामारी के बारे में शुरुआत में जानकारी न देने से अमेरिका को अनकहा नुकसान हुआ है- लेकिन लद्दाख सीमा पर संघर्ष एक हादसे से कहीं ज्यादा बड़ा है.

इसीलिए अमेरिका ने शनिवार को दक्षिण चीन सागर में दो विमानवाहक पोत उतार दिए, जिसे एक बड़ा शक्तिप्रदर्शन कहा जा रहा, जिसमें नेविगेशन की आजादी पर जोर दिया गया. वहीं पोम्पियो ने विदेश मंत्री एस जयशंकर से बातचीत में मदद का वादा किया है.

रूस आगे आया

जहां तक रूस की बात है तो वह रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की हाल की मॉस्को यात्रा के दौरान ‘कुछ मिसाइलों और बमों’ को देने में तेजी लाने पर राजी था, जब द्विपक्षीय रक्षा संबंधों की पूर्ण समीक्षा हुई थी.

अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, गौरतलब है कि रूस ने भारत को हथियार न बेचने के चीनी अनुरोध को चुपचाप दरकिनार कर दिया है, जबकि रूस अपनी जीडीपी बढ़ाने के लिए काफी हद तक चीन को हथियारों की बिक्री पर निर्भर करता है. सीसीपी के मुखपत्र, पीपुल्स डेली ने रूस को चीन का संदेश भेजने के लिए फेसबुक का सहारा लिया था.

इस बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत-रूस ब्रह्मोस मिसाइल को ऑपरेशनलाइज करने का फैसला किया है.

एक नया ‘स्वैच्छिक गठबंधन’

साउथ ब्लॉक लगातार अन्य प्रमुख देशों तक संपर्क साध रहा था. जापान से (जापानी राजदूत सातोशी सुजुकी ने ट्वीट किया ‘विदेश सचिव श्रृंगला के साथ अच्छी बातचीत हुई. एलएसी की स्थिति पर उनकी जानकारी की सराहना करता हूं’), ऑस्ट्रेलिया तक पूरी दुनिया भारत के साथ खड़ी हो गई.

यहां तक कि पाकिस्तान, चीन के रणनीतिक सहयोगी और साझेदार ने भी दूसरा मोर्चा खोलने के लिए स्थिति का फायदा उठाने से परहेज किया.

बीजिंग अब भी गलवान घाटी पर दावा जता रहा है, यद्यपि यहां तक कि वांग यी को भी एहसास है कि वह उस स्वैच्छिक गठबंधन के आगे टिक नहीं सकता जिसकी तैयारी दूसरी तरफ नज़र आ रही है.

निश्चित तौर पर, पिछले 24 घंटे पीएम मोदी के रहे हैं. उन्होंने भारतीय क्षेत्र से दूर रहने की चुनौती देकर चीन की धौंस का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है. 19 जून की सर्वदलीय बैठक में की गई उनकी टिप्पणी कि ‘किसी ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया, किसी चौकी पर कब्जा नहीं हुआ’ अब भी सच हो सकती है.


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पुनरावलोकन में, यह स्पष्ट नज़र आता है कि जब उन्होंने पिछले शुक्रवार को लेह में संबोधित किया, मोदी ने अपनी साझेदारी पहले ही मजबूत कर ली थी ताकि ‘विस्तारवादी युग’ के खिलाफ खुलकर हमला बोल सकें, यह चीन के लिए एक मामूली संकेत नहीं है.

निश्चित रूप से, पूर्ण वापसी की एक लंबी प्रक्रिया शुरू हो गई है. संभव है कि भारत अब यूरोपीय संघ और अमेरिका आदि के साथ मुक्त व्यापार समझौतों के जरिये अपनी नई मित्रता मजबूत करेगा. अगर वह क्रमिक आधार पर चीन का मुकाबला करना चाहते हैं तो मोदी को उन सभी दोस्तों की जरूरत है जिन्हें वह साथ ला सकते हैं, यहां तक कि आरएसएस के स्वदेशी जागरण मंच के साथ अच्छे संबंधों की कीमत पर भी.

लद्दाख संकट चौतरफा घिरने जैसी एक स्थिति है. पुरानी दोस्ती निभाने और पड़ोस में भारत का प्रभाव फिर से बढ़ाने के अलावा मोदी को घर पर विपक्ष को नए सिरे से साधना चाहिए. राजनीतिक मतभेदों को बढ़ने देना विदेश नीति के लिए बहुत अधिक जोखिम भरा रवैया है.

जहां तक राहुल गांधी की बात है, यदि वह कांग्रेस अध्यक्ष बनना चाहते हैं तो उन्हें अधिक जिम्मेदार बनना सीखना होगा. राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर एक विधिवत निर्वाचित प्रधानमंत्री पर हमला करने से उन्हें क्षणिक फायदा हो सकता है लेकिन यह शायद ही एक गंभीर राजनेता की पहचान है.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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