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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतनामदेव: सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाने और समानता का गीत गाने वाला संत

नामदेव: सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाने और समानता का गीत गाने वाला संत

भजन गाते थे, और उन पर नाचते भी थे. इनकी रचनाओं को अभंग कहा जाता है. इनके गानों में ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा होती है. ईश्वर के अतिरिक्त ये हर किसी को ठुकराते हैं, जाति व्यवस्था को नहीं मानते.

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मध्यकालीन भारत में अनेक ऐसे प्रसिद्ध संत, महात्मा, कवि और समाज सुधारक हुए, जिन्होंने समाज में व्याप्त असमानता और बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया. उनका मानना था कि सभी मनुष्य ईश्वर के सामने समान हैं. इसलिए हर किसी को ईश्वर की प्रार्थना करने का समान अधिकार है. किन्तु इन संतों के लिए ईश्वर कोई देवता या सगुण ईश्वर नहीं था, बल्कि वह निर्गुण ईश्वर था. जिसे इन्होंने कई नाम से पुकारा जैसे राम, खुदा, हरि, सतगुरु आदि. इसी धारा के एक प्रमुख संत हैं संत नामदेव (26 अक्टूबर 1270 – 3 जुलाई 1350).

मध्यकाल में भारतीय समाज में मुख्य रूप से दो विचारधाराओं का संघर्ष चल रहा था. पहली विचारधारा, ब्राह्मणवादी विचारधारा है, जो ऊंच-नीच के विचार पर आधारित है. शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, मध्वाचार्य, तुलसीदास, चैतन्य आदि इसी विचार समूह से आते हैं. दूसरी ओर, श्रमणवादी विचाधारा है जो मानव श्रम पर आधारित विचारधारा है. कबीर, रविदास, नामदेव, नानक, तुकाराम, नामदेव आदि संत इस विचारधारा से आते हैं. ये मानव मात्र की समानता में विश्वास रखते हैं.

श्रम और आध्यात्म का संगम

इन संतों का भारतीय समाज में बड़ा गहरा प्रभाव है. ये संत ज्यादातर हिन्दू समाज व्यवस्था की तथाकथित नीची माने जाने वाली जातियों से आते हैं, जैसे कबीर जुलाहा थे, रविदास मोची थे, नामदेव दर्जी थे. ये सब श्रमिक परिवारों से थे और ज्ञान की साधना के क्रम में भी उन्होंने श्रम करना बंद नहीं किया. उनकी रचनाओं के रूपक और उदाहरण भी इसलिए आस-पास के जीवन से ही लिए गए हैं.

इन्होंने सामाजिक बुराइयों के खिलाफ प्रतिरोध किया तथा जाति व्यवस्था और जन्मजात सर्वोच्चता के सिद्धांत को नकार दिया. इनकी समाज में काफी लोकप्रियता भी थी. इन संतो का काल भी वही है जब इस्लामिक सिद्धांतों में विश्वास रखने वाले सूफी संत समानता और भाईचारे का समाज में सन्देश दे रहे थे. इस क्रम में सूफी संत अपने धर्म की कट्टरता से टकरा भी रहे थे.

कुछ इतिहासकार इस काल को भक्ति काल का नाम देते हैं, वैसे यह नामकरण ठीक नहीं है. इन संतों ने केवल भक्ति ही नहीं की, बल्कि जाति व्यवस्था और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज भी उठायी. इस मायने में ये विद्रोहकाल भी है.

एकेश्वरवाद के समर्थक

इस काल में अनेक ऐसे पंथ उभरे, जिन्होंने जाति व्यवस्था को नकार दिया जैसे कर्नाटक में लिंगायत सम्प्रदाय. इसी प्रकार का एक सम्प्रदाय तमिलनाडु में हुआ – सिद्धार संप्रदाय. महाराष्ट्र में इन्ही विचारों को संत नामदेव ने लोकप्रिय बनाया. यह पक्के एकेश्वरवादी संत थे जिन्होंने जातिवाद, ऊंच-नीच और मूर्ति पूजा का विरोध किया. इस मामले में इनको संत कबीर का पूर्ववर्ती या पथ प्रदर्शक भी कहा जा सकता है.


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नामदेव लोक भाषा में लोगों को उपदेश दिया करते थे. वे गाने और भजन के माध्यम से अपना संदेश फैलाते थे. ये भजन मराठी भाषा में भजन लिखते थे जो इंसानी प्रेम और ईश्वर भक्ति पर आधारित होते थे. भजन और गाने के माध्यम से वे बहुत लोकप्रिय हो गए. वे पेशे से दर्जी थे, सिलाई का कार्य करते थे. ये कहा जाता कि संत बनने से पूर्व उनमें कई ऐब थे. लेकिन ऐसा लगता है कि ये बातें गलत मकसद से फैलाई गई हैं, क्योंकि वे पोंगापंथियों की आंखों में खटकते थे. चूंकि वे एक तथाकथित नीची जाति से आते थे, इसलिए उनकी महानता का आसानी से स्वीकार नहीं किया गया और उनके बारे में कई बातें फैलाई गईं.

संत नामदेव का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था. श्रमणवादी विचारधारा के इस युग के ज्यादातर संतों की जन्म दिवस और मृत्यु दिवस निश्चितता से पता नहीं है. ऐसा माना जाता है कि संत नामदेव का जीवन काल 1270 से लेकर 1350 तक है. किन्तु भक्ति काल के फ्रेंच विशेषज्ञ चार्लो वॉडविल मानते हैं कि इनका काल चौदहवी सदी के मध्य में है.

ईश्वर के प्रति समर्पण

नामदेव मौखिक यानी वाचिक परम्परा में विश्वास रखते थे. क्योंकि इनके ज्यादातर शिष्य पढ़े-लिखे नहीं थे. इनकी स्वयं की भी कोई स्कूली शिक्षा नहीं थी. फिर भी इनका समाज के बारे में अध्ययन गजब का था.

ये भजन गाते थे, और उन पर नाचते भी थे. इनकी रचनाओं को अभंग कहा जाता है. इनके गानों में ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा होती है. ईश्वर के अतिरिक्त ये हर किसी को ठुकराते हैं, जाति व्यवस्था को नहीं मानते, कर्मकांडों को व्यर्थ मानते हैं. ये ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह के रूप में गाने और संगीत को प्रयोग करते हैं.

उनके 61 पद और 3 श्लोक सिखों के पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित हैं. संत नामदेव वारकारी पंथ से आते थे. उस समय यह सम्प्रदाय महाराष्ट्र में बहुत लोकप्रिय था. उनके गाने और भजन गहरा आध्यात्मिक अर्थ रखते हैं. उनके भजन गाने के स्वरुप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचे हैं. उन्होंने अपने भजन सतगुरु को सम्बोधित करके लिखे हैं. यहाँ सतगुरु का अर्थ कहीं-कहीं गुरु और कहीं-कहीं आध्यात्मिक शक्ति भी है.वह एक आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास रखते हैं, किसी देवी देवता में नहीं.

गृहस्थ जीवन

अन्य पंथों के ज्यादातर संत उस समय संन्यासी होते थे. इसके विपरीत संत नामदेव का परिवार था. उन्होंने गृहस्थ की जिंदगी जी. यह उस समय की भारतीय धार्मिक परम्परा में बहुत बड़ा क्रन्तिकारी कदम था. अपने परिवार की जीविका के लिए वे कुछ काम करते थे. इस प्रकार एक तरफ वे समाज सुधार के काम करते थे, दूसरी तरफ परिवार के दायित्वों का निर्वहन भी करते थे.


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उनका बहुत बड़ा परिवार था. उनके परिवार में उनकी पत्नी, बेटा-बेटी के अतिरिक्त उनके शिष्य भी रहते थे. वे जरूरतमंदों की अक्सर सहायता किया करते थे. वे अपने परिवार में भी उनको शरण दे देते थे. उनके अनेक शिष्य थे. उनकी एक महिला शिष्य थी ज्ञानबाई. वह उनके घर काम करने आती थी, उनके सम्पर्क में आकर वह भी संत बन गयी. वह भी गाने-भजन लिखने लगी. वह अछूत जातियों में आती थी. उनके अन्य प्रमुख शिष्यों में शामिल थे – चोखा मेला और उसका भाई बंका. चोखामेला की गिनती भी परम आदरणीय संतों में की जाती है.

नामदेव वारकारी सम्प्रदाय से जुड़े थे. वारकारी सम्प्रदाय भक्ति आध्यात्मिक परम्परा से जुड़ा था जो महाराष्ट्र में प्रसिद्ध था. वारकारी सम्प्रदाय के लोग अपने आराध्य विट्ठल की पूजा करते थे. माना जाता है कि विट्ठल ईश्वर का ही एक रूप था. वारकारी संप्रदाय महाराष्ट्र की संस्कृति से जुड़ा हुआ है.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक रहे हैं.यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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