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Friday, 10 May, 2024
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बाबा साहब से भी पहले बौद्ध धम्म अपनाने वाले दलित थे मनीषी अयोत्तिदास

अयोत्तिदास ने भी दलितों की हिंदुओं से पृथक पहचान बनाने पर जोर दिया था. उन्होंने ब्रिटिश सरकार से दलितों के लिए राजनीतिक अधिकार मांगे और 1898 में बौद्ध धम्म स्वीकार कर लिया.

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पंडित अयोत्तिदास (20 मई, 1845 – 5 मई, 1914) और बाबा साहब आंबेडकर भले ही समकालीन नहीं थे, लेकिन जाति विरोधी आंदोलन और बौद्ध धम्म पर उनके विचार एक जैसे ही थे. बाबा साहब आंबेडकर ने दलितों की पृथक पहचान बनाने पर जोर दिया. उन्होंने दलितों के लिए अलग राजनीतिक अधिकार मांगे और जीवन के संध्या काल में (1956 में) पांच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म अपनाया. अयोत्तिदास ने बाबा साहब आंबेडकर से लगभग पचास साल पहले इन विचारों की रूपरेखा रख दी थी. अयोत्तिदास ने भी दलितों की हिंदुओं से पृथक पहचान बनाने पर जोर दिया था. उन्होंने ब्रिटिश सरकार से दलितों के लिए राजनीतिक अधिकार मांगे और 1898 में बौद्ध धम्म स्वीकार कर लिया. इस प्रकार पंडित अयोत्तिदास को बाबा साहब आंबेडकर का अग्रवर्ती या पथ प्रदर्शक भी कहा जा सकता है.

पंडित अयोत्तिदास का जन्म मद्रास प्रेसिडेंसी में परिया जाति में हुआ था. वे तमिल साहित्य और तमिल दर्शन के धुरंधर ज्ञाता थे. वे संस्कृत, इंग्लिश, पाली सहित कई भाषाओं के विद्वान थे. परिया जाति को अछूत माना जाता था. यह जाति उसी तरह से थी, जैसे उत्तर भारत में चमार और महाराष्ट्र में महार. ब्रिटिश सेना में खासी संख्या में भर्ती होने के कारण परिया समाज में अपने अधिकारों के लिए चेतना थी. पंडित अयोत्तिदास ने उस चेतना को एक सशक्त अभिव्यक्ति दी. भारत सरकार ने 2005 में अयोत्तिदास पर एक डाक टिकट भी जारी किया. भारत में बौद्ध धर्म के आंदोलन का जिक्र करते समय समाजशास्त्री गेल ऑम्वेट ने अयोत्तिदास की भूमिका का विस्तार से जिक्र किया है.

बौद्ध धम्म अपनाना

पंडित अयोत्तिदास ने हिन्दू धर्म और भारतीय इतिहास का गंभीर अध्ययन किया. वे इस निष्कर्ष पर पंहुचे कि जो जातियां अछूत कही जाती हैं, वे मूल रूप से बौद्ध लोग हैं. सम्राट अशोक के शासन तक भारत में अछूतपन का विचार नहीं था. उसके बाद जब ब्राह्मण भारत भूमि के शासक बने, तो बौद्ध लोगों ने ब्राह्मण संस्कार और जाति व्यवस्था का विरोध किया. इस वजह से ब्राह्मणों ने उन बौद्धों को अछूतपन का टैग दे दिया.


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अयोत्तिदास ने कहा कि भारत का इतिहास ब्राह्मण और बौद्धों में संघर्ष का इतिहास है. उन्होंने बताया कि बौद्ध धम्म ने ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को चुनौती दी थी. उन्होंने भारतीय इतिहास को बौद्ध दृष्टिकोण से देखा. उन्होंने भारतीय इतिहास पर एक पुस्तक भी लिखी, जिसका नाम है Indirar Desa Sarithiram. इस पुस्तक को भारत में वंचित वर्ग के दृष्टिकोण से लिखी गई इतिहास की पहली पुस्तक कहा जा सकता है.

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उन्होंने 1898 में खुद बौद्ध धम्म ग्रहण किया और बाकी लोगों को भी बौद्ध धम्म स्वीकार करने का आह्वान भी किया. उन्होंने कहा कि मैं कोई धर्म परिवर्तन नहीं कर रहा हूं, बल्कि अपने पुराने धर्म में वापस जा रहा हूं.

बौद्ध धम्म ग्रहण करने के बाद उन्होंने जगह-जगह शाक्य बौद्ध सोसायटी की स्थापना की. इसकी शाखाएं न केवल मद्रास प्रांत में, बल्कि देश में कई स्थानों पर और विदेशो में भी थी. इन शाखाओं में बौद्ध धम्म से संबंधित शिक्षाएं दी जाती थीं और उन पर चर्चा होती थी. विदेशों में इसकी शाखाएं मुख्य रूप से फिजी, दक्षिण अफ्रीका, बर्मा (म्यांमार), मलेशिया आदि देशो में थी, जहां दलित खासी संख्या में रहते हैं. यहां नौकरी करने के लिए दक्षिण भारत से काफी लोग गए थे और उन्होंने भारत से संपर्क बनाए रखा था.


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दलितों की अलग पहचान पर जोर

पंडित अयोत्तिदास ने दलितों की अलग पहचान पर जोर दिया. वे सभी अछूत जातियों को एक झंडे के नीचे लाना चाहते थे और इस कोशिश में लगे रहे. उन्होंने 1885 में अपने एक मित्र के साथ एक पत्रिका द्रविड़ पांडियन प्रकाशित किया. वह इस पत्रिका के द्वारा सामाजिक-आर्थिक मसलों का जवाब देते थे. इस पत्रिका में उन्होंने 1886 में लिखा कि अछूत हिन्दू नहीं हैं. बाबा साहेब ये बात काफी बाद में कहते हैं. 1891 और 1901 की जनगणना में इन्होंने अछूतों का आह्वान किया कि वे अपने को हिन्दू नहीं, बल्कि जाति रहित द्रविड़ लिखें. 1911 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार से निवेदन किया कि अछूतों को बौद्धों के रूप में मान्यता दी जाये और अछूत समाज की जनसंख्या को बौद्धों में दिखाया जाये. इन्हीं के प्रयासों का परिणाम था कि मैसूर की जनगणना रिपोर्ट में अछूतों की जनसंख्या को बौद्धों में दिखाया गया.

कांग्रेस के कार्यक्रमों से असहमति

कांग्रेस के विचार और कार्यक्रमों से उनकी तीखी असहमति थी. ये कांग्रेस को अमीर पढ़े-लिखे सवर्ण हिन्दुओं की पार्टी मानते थे. इनका कहना था कि कांग्रेस का स्वराज आंदोलन दलितों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं ला पायेगा, क्योंकि कांग्रेस केवल राजनीतिक परिवर्तन पर जोर दे रही है, जबकि देश में राजनीतिक परिवर्तन से ज्यादा, सामाजिक परिवर्तन की जरूरत है. इस मामले में उनके विचार बाबा साहेब और ज्योतिबा फुले से पूरी तरह मेल खाते हैं. उन्होंने कांग्रेसी नेताओं की आलोचना यह कहकर की कि ये जिन अधिकारों की मांग अंग्रेजों से करते हैं, वे उन्हीं अधिकारों को स्वयं दलितों को नहीं देते.

अयोत्तिदास के आंदोलन समाज के आमूलचूल परिवर्तन के विचारों पर आधारित थे, जिसमें छुआछूत उन्मूलन से लेकर जाति उन्मूलन भी शामिल था. उन्होंने ब्रिटिश सरकार से पढ़े-लिखे अछूत लोगों को नौकरी में प्राथमिकता देने की मांग की.

द्रविड़ आंदोलन का पितामह

अयोत्तिदास को द्रविड़ आंदोलन का पितामह भी कहा जा सकता है. द्रविड़ आंदोलन को बाद में रामासामी नायकर पेरियार ने आगे बढ़ाया. उन्होंने 1891 में द्रविड़ महाजन सभा की स्थापना की. 1882 में जॉन रत्नम के साथ मिलकर उन्होंने एक आंदोलन चलाया, जिसे द्रविड़ कड़गम नाम से जाना गया.

सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में अयोत्तिदास का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक रहे हैं.)

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