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Tuesday, 5 November, 2024
होमदेशकोविड-19 को लेकर दिए दिल्ली सरकार के आदेश से टूूट रही है 50 बेड वाले अस्पतालों की कमर

कोविड-19 को लेकर दिए दिल्ली सरकार के आदेश से टूूट रही है 50 बेड वाले अस्पतालों की कमर

अस्पताल मालिकों की शिकायत है कि कोविड इलाज पर जो कैपिंग हुई है उससे छोटे अस्पताल मालिकों को धक्का लगा है. कुछ अस्पताल मालिक दिल्ली सरकार को खत लिखने की योजना बना रहे हैं कि वह उनके अस्पतालों को टेकओवर कर ले और एवज में जो कमाई पहले हो रही थी उतना पैसा दे दे.

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नई दिल्ली: दिल्ली सरकार द्वारा 24 मई को जारी किए गए एक आदेश ने नर्सिंग होम और प्राइवेट अस्पतालों के मालिकों के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है. आदेश में 50 या इससे अधिक बेड वाले 117 नर्सिंग होम और प्राइवेट अस्पतालों को 20% बेड कोविड- 19 के मरीज़ों को समर्पित करने को कहा गया था. आदेश का पालन कर रहे अस्पतालों पर इसकी दोहरी मार पड़ रही है.

ज़्यादातर छोटे अस्पतालों के कोविड बेड नहीं भर रहे और ऊपर से इन्हें गैर-कोविड मरीज़ों से भी हाथ धोना पड़ रहा है. यही हाल रोहिणी स्थित ‘धर्मवीर सोलंकी अस्पताल’ का है. इसके मालिक डॉ. पंकज सोलंकी ने दिप्रिंट से कहा, ‘मेरा छोटा सा (50) अस्पताल है. पिछले दो हफ़्ते से कोई गैर कोविड मरीज़ का दाख़िला नहीं हुआ है. अभी तक कोविड के महज़ सात मरीज़ आए हैं.’

डॉ. पंकज ने 14 जून को कोविड फ़ैसिलिटी शुरू कर दी थी. कोविड फ़ैसिलिटी शुरू होने के बाद उन्हें अपना ऑपरेशन थियेटर बंद करना पड़ा. उन्होंने कहा, ‘प्राइवेट अस्पतालों की आधी कमाई सर्जरी और आईसीयू से होती है. लेकिन काफ़ी दिनों से मैं कोई सर्जरी भी नहीं कर पाया.’हर दिन करीब 15-20 मरीज आते थे जिनमें ऑपरेशन वाले भी होते थे.

पंकज समेत जिन अन्य अस्पताल मलिकों से दिप्रिंट ने बात की उन्होंने इस पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया कि मरीज़ों की संख्या कम होने की वजह से उनकी कमर टूट रही है. कोविड के बेड नहीं भरते और ग़ैर कोविड मरीज़ डर से नहीं आते. दिल्ली फ़ाइट्स कोरोना पोर्टल के नंबरों से भी ये साफ़ है कि 10 बेड वाले ज़्यादातर अस्पताल खाली पड़े हैं.


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बुराड़ी में ऐसे ही एक अस्पताल के मालिक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, ‘मेरे अस्पताल के कोविड डेडिकेटेड होने की जानकारी दिल्ली सरकार के पोर्टल पर है. इसकी वजह से गैर कोविड मरीज बिदके हुए हैं.’ ऐसे अस्पतालों में आम तौर पर 15-20 मरीज़ होते थे. उनसे मिलने वाले पैसे से इनकी अच्छी कमाई हो जाती थी. लेकिन अब गुज़ारा मुश्किल है.

जिन अस्पताल मालिक से दिप्रिंट ने बात की उनमें से कई कोविड पॉज़िटिव भी हैं. पंकज का अस्पताल डेढ़ से दो साल पुराना है. फ़़ायदा नहीं हो रहा था पर घाटा भी नहीं था. उन्हें उम्मीद थी कि अस्पताल चल निकलेगा. लेकिन कोरोना महामारी ने हाल ये कर दिया कि वो अपने लोन की किश्तें और घर का बिजली बिल भी नहीं भर पा रहे.

अस्पतालों में कैपिंग से हालत बिगड़े

मुंडका स्थित सीडी ग्लोबल अस्पताल सहित छोटे अस्पताल चला रहे कई डॉक्टरों और मालिकों  की शिकायत ये भी है कि कोविड इलाज पर जो कैपिंग हुई है उससे छोटे अस्पताल मालिकों को धक्का लगा है. दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन (डीएमए) नर्सिंग होम फ़ोरम के सेकरेट्री अजय बेदी ने बताया, ‘उसी कीमत में अगर मैक्स में इलाज मिल जाएगा तो कोई छोटे अस्पताल में इलाज कराने क्यों जाएगा?’

दिप्रिंट से बातचीत में कम से कम आधा दर्जन अस्पताल मालिकों ने बताया कि दिल्ली सरकार के आदेश को लागू करने में उन्हें ‘काफ़ी ख़र्च’ करना पड़ा. इनकी शिकायत ये है कि कॉर्पोरेट अस्पतालों को तो सरकारी मदद या मुफ़्त की ज़मीन मिल जाती है. लेकिन ये इससे महरूम है. और कोविड फ़ैसलिटी चलाने में स्टाफ़ से लेकर साज़ो-सामान तक के ख़र्च से इनकी कमर टूट रही है.

‘सरकार ने सिर्फ आदेश दिया है लेकिन कोविड के लिए अस्पताल में विशेष तैयारी करने में हमारी कम टूट गई है, स्टाफ की सुरक्षा से लेकर अपनी सुरक्षा तक का ध्यान रखना पड़ रहा है.’

करीब आधा दर्जन से ऊपर अस्पताल मालिकों ने कहा कि कोविड के डर से काफ़ी सारे स्टाफ़ ने ‘नौकरी छोड़ दी.’ बड़े अस्पतालों में बेड भर गए हैं. उन्हें स्टाफ़ की ज़रूरत है. ऐसे में वो इन अस्तालों के स्टाफ़ को लुभाकर ले जा रहे हैं. अस्पताल मालिकों का कहना है कि सारे नियम सिर्फ़ उनके लिए क्यों, ऐसे स्टाफ़ के लिए भी नियम बनने चाहिए.

वहीं, सामान पर हो रहे ख़र्च पर नांगलोई स्थित ऐसे ही एक अन्य अस्पताल मालिक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, ‘कोविड बेड का मतलब सिर्फ़ बेड नहीं होता. इंफ़्रास्ट्रक्चर पर काफ़ी ख़र्च आता है. हर बेड के अंदर ऑक्सीजन प्वाइंट, आईसीयू में मॉनिटर, कार्डियक मॉनिटर और वेंटिलेयर के अलावा मैनपावर मिलाएं तब जाकर एक बेड बनता है.’

राधा स्वामी सत्संग व्यास में 10,000 बेड की फ़ैसिलिटी पर सवाल उठाते हुए नांगलोई स्थित अस्पताल मालिक ने कहा कि यहां हर बेड पर क्या फ़ैसिलीटी है, कितने टॉयलेट हैं और ये टॉयलेट कितने दूर हैं ये ज़्यादा अहम है? सांस का मरीज़ कितनी दूर जाएगा टॉयलेट के लिए? उन्होंने कहा, ‘अगर फ़ैसिलिटी नहीं है तो फ़िर तो कहीं भी बेड के नाम पर कुछ भी लगा दीजिए.’

अस्पताल मालिकों का कहना है कि अगर सरकार को ये कदम उठाना ही था तो ये प्राइवेट पब्किल पार्टनरशिप (पीपीपी) मोड में होना चाहिए था. अगर पीपीपी मॉडल नहीं अपना सकते तो सरकार सब्सिडी या स्टाफ़ ही दे दे. पंकज ने बताया कि मई-जून में उनके अस्ताल में एक महीने में 15-16 लाख़ का ख़र्च हो गया है लेकिन कमाई 4-5 लाख़ की हुई है. महीने का अंत आ गया है और अब सैलरी देनी है.

उन्होंने कहा, ‘सैलरी दे दूंगा तो बिल कैसे भरूंगा. मुझे नहीं पता कि मैं कैसे बैलेंस बिठाउंगा. सरकार को लिखित में देने की सोच रहा हूं कि वो (अस्पताल) टेकओवर कर लें. ओवरटेक के एवज में जो मेरी कमाई पहले हो रही थी उतना पैसा दे दे.’ ऐसा बयानों से अस्पताल मालिकों की हताशा साफ़ दिखाई देती है.


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मुंडका स्थित सीडी ग्लोबल अस्पताल से जुड़े एक व्यक्ति ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि कोविड काल में सरकारें घोषणा तो कर रही हैं लेकिन कोई नीति नहीं है. घोषणा करने से पहले सरकार को नीति बनानी चाहिए. डीएमए नर्सिंग होम फ़ोरम के सेकेरेट्री अजय बेदी ने कहा कि अगर स्थिति ऐसी ही बनी रही तो हम कोई बड़ा कदम उठाने की सोच रहे हैं.

इस विषय पर दिप्रिंट ने ऐसे अस्पतालों और नर्सिंग होम की चिंताओं और समस्याओं से जुड़े कुछ सवाल दिल्ली सरकार को भेजे थे. स्टोरी पब्लिश होने तक उनका कोई जवाब नहीं आया है. जवाब आने पर इसे अपडेट किया जाएगा.

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