भारतीय मीडिया इन दिनों भारी दबाव में है और ये दबाव सिर्फ कोविड-19 महामारी के साइड इफेक्ट्स के रूप में ही नहीं है.
राइट्स एंड रिस्क्स ग्रुप की एक रिपोर्ट के अनुसार, 25 मार्च से 31 मई के बीच, मुख्यतया विभिन्न राज्य सरकारों और उनके समर्थकों द्वारा कम से कम 55 पत्रकारों को कोरोनावायरस महामारी पर सरकारी प्रयासों से जुड़े तथ्यों को उजागर करने के लिए निशाना बनाया गया है.
रिपोर्ट में ऐसी घटनाओं को सूचीबद्ध किया गया है जब पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया, उन पर शारीरिक हमले किए गए, उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई गई और उन्हें समन या कारण बताओ नोटिस भेजे गए.
इनमें पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ भाजपा पदाधिकारियों द्वारा दायर दो एफआईआर– एक दिल्ली में, दूसरी हिमाचल प्रदेश में– शामिल हैं, जिसने आतंकित करने के अंग्रेजों के जमाने के उन प्रावधानों को फिर से चर्चा में ला खड़ा किया है जो राजद्रोह और मानहानि कानूनों के रूप में जाने जाते हैं और जिनका इस्तेमाल वैध असंतोष और पत्रकारिता का गला घोंटने के लिए किया जाता है.
विनोद दुआ का मामला पुलिस-याचिका व्यवस्था की खराब कार्यप्रणाली को उजागर करता है. हिमाचल प्रदेश में एफआईआर दर्ज किए जाने के 35 दिनों तक पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की लेकिन जैसे ही दिल्ली में दर्ज एक मिलते-जुलते मामले में दुआ को हाईकोर्ट से थोड़ी राहत मिली, हिमाचल प्रदेश की पुलिस अचानक सक्रिय होकर कुछ ही घंटों के भीतर उनके घर तक पहुंच गई, और उन्हें जांच कार्य में सहयोग देने के लिए 48 घंटे से भी कम का समय दिया गया.
दुआ की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें गिरफ्तारी के खिलाफ सुरक्षा तो दी लेकिन पुलिस जांच पर रोक का आदेश देने से इंकार कर दिया. देश की शीर्ष संवैधानिक अदालत के लिए ये एक अच्छा अवसर है कि वह राजद्रोह के आरोपों वाले मामलों के वास्ते कानून प्रवर्तन एजेंसियों और अधीनस्थ न्यायालयों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश तय करे. साथ ही, मानहानि संबंधी कानूनों पर भी तत्काल पुनर्विचार किए जाने की ज़रूरत है. मीडियाकर्मियों को डराने-धमकाने की घटनाओं पर रोक लगनी चाहिए और ये दायित्व अब सुप्रीम कोर्ट का है.
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राजद्रोह के कानून का दुरुपयोग
ब्रितानियों को इस बात पर हैरत हो सकती है कि भला स्वतंत्रता सेनानियों पर राजद्रोह के मामले चलाना क्यों गलत था जब स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई ‘लोकप्रिय’ राज्य सरकारों के लिए घटिया शासन की आलोचना करने या मुख्यमंत्री पर सवाल उठाने भर के लिए अपने नागरिकों पर यह कानून लगाना गलत नहीं है.
भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के असंतोष से निपटने के लिए 25 नवंबर 1870 को इस विवादास्पद प्रावधान को लाने वाले जेम्स स्टीफन ये विडंबना देखकर अपनी कब्र में ठहाके लगा रहे होंगे कि उनके कानून का इस्तेमाल स्वतंत्र भारत की सरकारें अपने नागरिकों के असंतोष को दबाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने के लिए कर रही हैं.
कानून में ये सुस्थापित विचार है कि सरकार की आलोचना, सरकार से सवाल करना, भारत विरोधी नारे लगाना और, जैसा कि न्यायविद फली नरीमन ने लिखा है, ‘भारत-विरोधी’ होना भी राजद्रोह के दायरे में नहीं आता है.
लेकिन, नए भारत में हमें युवाओं और बुजुर्गों सभी पर, अधिकांशत: बनावटी आरोपों के आधार, राजद्रोह के मामले दायर किए जाने की चिंताजनक प्रवृति देखने को मिल रही है, और अदालतें नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में नाकाम साबित हो रही हैं.
राजद्रोह के अनुचित मामले का सबसे बढ़िया उदाहरण अमूल्य लियोना नामक छात्रा से संबंधित है, जिसे 4 महीने जेल में बिताने पड़े क्योंकि अदालतों ने उसकी जमानत याचिका तक को ठुकरा दिया. आखिरकार पुलिस द्वारा तय समय सीमा में चार्जशीट दायर नहीं कर पाने के कारण उसे स्वत: ही रिहाई मिली.
उसका अपराध: नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी रैली में ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ और ‘हिंदुस्तान ज़िंदाबाद’ कहना.
समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट नरेंद्र मोदी सरकार से उन देशों की सूची सार्वजनिक करने को कहे जो कि आधिकारिक तौर पर भारत के दुश्मन हैं. वरना इस बात को कैसे उचित ठहराया जा सकता है कि ‘दुश्मन’ पाकिस्तान के नेतृत्व और नौकरशाही के साथ तो प्रधानमंत्री और उनकी सरकार संपर्क बनाएं लेकिन दोनों देशों की सलामती की बात करने पर एक लड़की के ऊपर राजद्रोह का मामला लगाया जाए?
सुप्रीम कोर्ट को स्प्ष्ट दिशा-निर्देश जारी करने चाहए कि कौन से मामले राजद्रोह की श्रेणी में आएंगे और कौन से नहीं. क्योंकि सत्ता के मद में चूर नेता और अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रखने में व्यस्त कानून प्रवर्तन एजेंसियां राजद्रोह पर सुस्थापित विधिक परंपरा की अवहेलना करते रहेंगे. और यह तमाशा चलता रहेगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट समेत विभिन्न अदालतें दोषी पुलिस अधिकारियों को फटकार तक लगाने से बचती रहेंगी.
दुआ के मामले में, सुप्रीम कोर्ट के लिए केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में करीब पांच दशक पहले सुनाए अपने फैसले तथा बलवंत और अन्य बनाम पंजाब राज्य मामले में 15 साल पहले के अपने फैसले के पुनर्मूल्यांकन का अवसर है. शीर्ष अदालत को सख्त और कानूनी रूप से बाध्यकारी दिशा-निर्देश जारी करने चाहए ताकि सरकार और उसके प्रतिनिधि– सरकार के भीतर और बाहर दोनों ही जगह– स्वतंत्र मीडिया और असंतोष के स्वरों को राजद्रोह के मामले का डर दिखाकर चुप नहीं करा सकें.
ये शीर्ष अदालत का संवैधानिक दायित्व है कि नागरिकों और सरकारों के बीच जब मामला अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा का हो तो वह ये सुनिश्चित करें कि न्याय का पलड़ा नागरिकों के पक्ष में झुका हो.
सबसे अहम, उसे नागरिकों को आश्वस्त करना चाहिए, चूंकि सरकार कभी ऐसा नहीं करेगी, कि ‘घृणा, अवमानना या असंतोष फैलाए बिना या ऐसा करने का प्रयास किए बिना प्रशासनिक या अन्य कारणों से सरकार की अस्वीकृति में की गई टिप्पणी’ राजद्रोह के अपराध के दायरे में नहीं आती हैं.
मानहानि और आईपीसी की धारा 505 पर भी पुनर्विचार हो
सरकारों और उनके समर्थकों द्वारा असंतुष्टों और स्वतंत्र प्रेस को डराने-धमकाने के लिए अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले अन्य प्रावधान हैं- आपराधिक मानहानि का कानून और आईपीसी की धारा 268 (सार्वजनिक शांतिभंग), 501 (मानहानि करने वाली सामग्री का प्रकाशन या उत्कीर्णन) और 505 (हमारे रक्षाकर्मियों को विद्रोह के लिए उकसाने या जनता में घबराहट फैलाने पर केंद्रित बयान).
हिमाचल प्रदेश पुलिस से अपनी शिकायत में भाजपा नेता ने दुआ के खिलाफ आईपीसी की ये सभी धाराएं इस्तेमाल की हैं. हमारे जैसे देश में जहां कानूनी प्रक्रिया ही सज़ा से कम नहीं होती है, इतनी सारी धाराओं के इस्तेमाल का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गंभीर और नुकसानदेह असर पड़ेगा. इनमें मानहानि के मुकदमे में घसीटे जाने का डर भी जोड़ लें तो डर वास्तविक बन जाता है.
सुप्रीम कोर्ट को आपराधिक मानहानि के कानून की मौजूदा परिस्थितियों के अनुरूप पुनर्व्याख्या करनी चाहिए. उसने 2016 में अपने फैसले में आपराधिक मानहानि संबंधी प्रावधान को संवैधानिक बताया था और हर किसी से ये समझने की अपेक्षा की थी कि उन्हें ‘किसी की प्रतिष्ठा को धूमिल करने की खुली छूट’ नहीं है.
सही बात. लेकिन क्या राजनीतिक नेताओं के समर्थकों को एक सुस्थापित कानून के तहत सम्मान पर कथित चोट के नाम पर विपक्षी नेताओं और मीडियाकर्मियों के खिलाफ बेतरतीब मामले दायर करने देना इस कानून का मजाक बनाए जाने के समान नहीं है?
यदि कोई राजनीतिक अपने बारे में कुछ नकारात्मक या अपमानजनक लिखे जाने से आहत होता है, तो उसे खुद मामला दायर करना चाहिए. बहुत दुरुपयोग किया जाने वाला ये विशेषाधिकार उसके समर्थकों को क्यों मिले?
और क्या एक लोकतंत्र में किसी राजनीतिक, सत्तासीन नेता भी शामिल, की मानहानि का मानदंड एक आम आदमी के मुकाबले बहुत ऊंचा नहीं होना चहिए?
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सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मानहानि की संवैधानिकता के मुद्दे पर 2016 के अपने फैसले में ये भी कहा था कि वह ‘इस विचार से सहमत नहीं है कि आपराधिक मानहानि का बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर निरोधक प्रभाव पड़ता है’.
यह बयान उस समय भी वास्तविकता से उतना ही दूर था जितना आज है. पर सुप्रीम कोर्ट कोई बीच का रास्ता निकालने का प्रयास कर सकता है– मोटी चमड़ी के हमारे नेताओं को अपने समर्थकों के जरिए, सवाल पूछने वाले मीडिया या नागरिकों को डराने के लिए, इस प्रावधान के उपयोग की अनुमति नहीं दी जाए.
भारतीय विधि आयोग ने 2014 में मीडिया कानूनों पर अपने परामर्श पत्र में उल्लेख किया था, ‘…मानहानि के कानूनों के तहत दंडात्मक क्षतिपूर्ति के साथ कानूनी कार्रवाई की धमकी का स्वतंत्र और बेबाक समाचार लेखों के प्रकाशन पर ‘निरोधक असर’ पड़ता है और पत्रकारों एवं प्रकाशन संस्थानों पर अनुचित दबाव बनता है’.
मानहानि और राजद्रोह के प्रावधानों के सहारे भयादोहन की कार्रवाइयों पर रोक लगाने का समय आ गया है, और केवल सुप्रीम कोर्ट ही ऐसा कर सकता है. लेकिन, क्या वो ऐसा करेगा?
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(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार उनके अपने हैं.)
All the Nazayaz Aulad of Islamic extremists and terrorists including Nehru and Gandhi Family working as a journalist in our country but they are not original journalists but dalal of Islamic terrorists ,Nehru Gandhi Family, Pakistan and China. Shameless dalal always trying to defame our country but so called secular bastard never believe in democracy only believe in shameless, characterless,murderer and Islamic terrorists and Chinese supporters Nehru Gandhi Family. All the bastard journalists should be behind bar or eliminating from our country.
This arlicle by print is wanting India as anarchist country. All laws which print opposes and want sc to strike down, are laws pevelent in all other countries of the world.
But the print ndtv and other such media shops want that there should be no law against people shouting “bharat tere tukde honge hazar. Or afzal hum sharminda hain tere Katil abhi jinda hai. Or who want to turn every nook and corner of country in a Shahin bagh
M.s.singh
Well said
You shows the mirror to them who are doing against the country and telling self a journalists…