ज़रा सोचिए -कोविड महामारी दिन ब दिन फैलती जा रही है और ऐसे में देश में पहली पंक्ति में खड़े कोविड योद्धा अपने हाथ खड़े कर दें – कह दें कि बस अब और नहीं. कोरोना से हम अब और नहीं लड़ सकते, आप किसी और को ढूंढ लें. पहली पंक्ति में खड़े हैं हमारे सफाई कर्मचारी, डॉक्टर, नर्स, एंबुलेंस चलाने वाले, शवों का अंतिम संस्कार करने वाले.
ये मामला तब और भी गंभीर हो जायेगा जब आपकी दुनिया को चलाने वाले सभी कामगर हड़ताल पर चले जायें. ये कोई कोरी कल्पना नहीं. अगर ज़रूरी सेवा देने वालों को समय पर पैसे नहीं मिले तो ये कल का सच बन सकता है. हाल की कुछ छुट पुट घटनाओं ने खराब आर्थिक हालात की ओर इशारा किया है.
हाल ही में दिल्ली के कस्तूरबा गांधी और हिन्दू राव अस्पताल के रेसिडेंट डाक्टरों ने कहा कि वे सब इस्तीफा दे देंगे क्योंकि उनको तीन महीने से तनख्वाह नहीं मिली है, ये वो डाक्टर हैं जो कि कोरोना महामारी से लड़ाई में सबसे आगे खड़े हैं. अगर पहली पंक्ति के कोविड वारियर्स इस हाल में है तो हम कैसे इस महामारी से लड़ेंगे?
ये देश का अकेला अस्पताल नहीं जहां से ऐसी शिकायतें आ रही हैं, देश की राजधानी दिल्ली के ही कई और सरकारी अस्पतालों में भी हालात ऐसे ही हैं. मेडिकल स्टाफ को तनख्वाह नहीं मिल रही, उपकरणों, पीपीई किट्स आदि पर तो पहले भी हजारों लेख छप चुके हैं. सफाई कर्मचारी, म्युनिसिपैलिटी के कर्मचारी सड़कों पर हैं – उन्हें तनख्वाह नहीं मिल रही. पिछले साल दिल्ली की सड़कों पर लगे कचरे के ढेर याद हैं? बात दिल्ली तक भी सीमित नहीं.. ये कहानी हर राज्य में दोहराई जा रही है.
अब याद कीजिए एक महीने पहले का नज़ारा, प्रवासी मजदूर अपनी गठरी उठाए मीलों का सफर तय कर घरों की ओर पलायन कर गए. न खाना-पानी, न पैरों में चप्पल – जान माल गंवा कर किसी भी हाल में घर जाने के लिए आतुर. इसके पीछे का कारण सिर्फ एक ही था कि उनकी जेब खाली थी और बेगाने शहर में मरने से अच्छा अपने घर में जीने मरने की तमन्ना हावी हो गई थी. फैक्ट्रियां बंद हो गईं, लॉकडाउन में तनख्वाह मिली नहीं. किसी तरह पेट भर भी लेते तो बिना पैसे सिर पर छत कैसे बचा पाते. कुछ ने पैसे की मांग करते हुए फैक्ट्रियों में तोड़फोड़ की तो कुछ ने चक्का जाम और कुछ निराश हताश अपने गांव के सुरक्षित आगोश में समाने निकल पड़े.
ऐसा नहीं कि यह मार सिर्फ पहली पंक्ति खड़े हमारे लोगों पर पड़ी है बल्कि छोटे व्यवसाई से लेकर कुटीर उद्योग वालों पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा है.
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आश्ववासन, सैलरी और बेरोजगारी
छोटे उद्योगों के सामने तो बहुत ही विकट समस्या हैं, फैक्टरी है पर बंद पड़ी है. उसमें उत्पादन नहीं है पर उसके कुछ खर्चे जारी है – मसलन किराया, बिजली आदि. उसके मज़दूर तनख्वाह मांग रहे हैं पर मालिकों के पास कोई कमाई नहीं, कई के श्रृण भी बकाया है- फैक्टरी मालिक चाहे भी तो पैसे नहीं दे पा रहे.
इसबीच कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ट्वीट कर दावा करते हैं कि शहरों में 62% और गांवो में 50 % की आय छिन गई है. शहरों में 14 करोड़ लोग बचत पर टिके हैं और जून के अंत तक ये भी खत्म हो जाएगी. फिर क्या होगा. फिर क्या होगा – ये ख्याल आशंकित करता है .
सरकार ने हालांकि लॉकडाउन के वक्त कहा था कि किसी की तनख्वाह न काटी जाये, न किसी को नौकरी से हटाया जाये पर उसके साथ तनख्वाह देने वालों के लिए कोई व्यवस्था नहीं की. नतीजा हम सबके सामने है.
सरकार हालांकि दावा करती रही कि उसका तीन लाख करोड़ का पैकेज घायल अर्थव्यवस्था को मलहम लगायेगा. मज़दूरों, छोटे उद्योगों, कृषि सभी का ख्याल रखा जा रहा है. पैकेज बांट दिए गए पर इसके लाभार्थी वास्तव में कब नज़र आयेंगे ये कहना अभी भी आसान नहीं.
एक आम आदमी के लिए जब तक उसकी जेब में पैसा नहीं इन पैकेजों का उसके लिए क्या मायने हैं? क्या सरकार को सीधे हर प्रभावित व्यक्ति के जेब में पैसा नहीं भेजना चाहिए था? क्या सीधे सहायता पहुंचाने का तरीका इस आर्थिक मार से निपटने का सबसे सही तरीका नहीं था? बहुत से अर्थशास्त्री ऐसा मानते हैं कि इस समय जेब में पैसा स्वावलंबन और स्वाभिमान दोनो के लिए जरूरी है और सरकार को इस बारे में सोचना चाहिए. ऐसा तो नहीं है कि देश कंगाल है , उसके विदेशी मुद्रा भंडार रिकार्ड स्तर पर है. वित्त घाटा भी लगभग नियंत्रण में है. तो फिर सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही है.
अब तो छोटे उपक्रम, निजी क्षेत्र के उपक्रम , अस्पतालों के अलावा देश में सबसे ज्यादा नौकरी देने वाले रेलवे ने भी उन लोगों को नौकरी से हटाने का मन बना लिया है जिन्हें उसने सेवानिवृति के बाद रखा था.
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विदेशों की सरकार का भी हाल बेहाल
हालांकि ये मंदी और महामारी सिर्फ भारत में नहीं है बल्कि इसने दुनिया को अपने चपेट में ले रखा है. उद्योग धंधे की ये समस्या केवल भारत में ही है ऐसा नहीं. कई सरकारों ने पैसा देकर मदद पहुंचाने की कोशिश की है. इटली की सरकार ने दो महीने की तंख्वाह अपने 20 लाख कर्मचारियों को देने की पेशकश की जिनपर लॉकडाउन की मार पड़ी. बैंकों से कहा कि वो इसमें मदद करें. पर वहां भी लालफीताशाही के कारण ये पैसे लोगों तक नहीं पहुंच पाये. अमरीका में भी हर वयस्क को 1000 डॉलर और बच्चे को 500 डॉलर नगद हस्तांतरण का कार्यक्रम तैयार करने पर विचार हुआ. दक्षिण पूर्व एशिया के देश जैसे थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि में ये कार्यक्रम लागु हुआ तो पड़ोसी पाकिस्तान में भी डायरेक्ट ट्रांस्फर की पेशकश हुई.
पर भारत में जन धन, आधार और मोबाइल के जरिए सीधे पैसे खाते में पहुंचाए जा सकते हैं. जिस रास्ते सरकार उनको सब्सिडी, राशन आदि पहुंचाती भी है. शुरू में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उस दिशा में घोषणा भी की थी पर बहुत कम – ‘ऊंट के मुंह में ज़ीरे की तरह.’ मनरेगा में भी काम के बदले पैसा मिलता है औऱ उस में भी कितनो को रोजगार मिलेगा ये सोचने की बात है.
भारत के पास दुनिया में सबसे बड़ा कैश ट्रांसफर करने का सिस्टम है. इस समय भ्रष्टाचार और दुरुपयोग के डर से ऊपर उठ कर सरकार को लोगों की जेब में सीधे पैसे पहुंचाने का कोशिश करनी चाहिए. इसमें सरकार अपने डायरेक्ट कैश ट्रांसफर मैकेनिजम का इस्तेमाल कर सकती है और साथ ही गैर सरकारी संगठनों, निजी क्षेत्र से मिलकर लाभार्थी तक ये पहुंचे , इसे सुनिश्चित भी कर सकती है.
क्योंकि, अगर उन तक सहायता नहीं पहुंचती तो लोग सड़कों पर होंगे और कोविड की इस कठिन होती लड़ाई को जीत पाने में न केवल एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा पर इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ेगी. और इस आफत में सबसे पहले आफत से लड़ने वालों की मदद करना जरूरी है. लेकिन अभी तक लॉकडाउन के निर्णय से लेकर आर्थिक मदद और अनलॉक तक जो नजर आया वो टुकड़ो टुकड़ो में बनाई गई नीति और राज्यों और केंद्र के बीच समन्वय कमी के अलावा राजनीतिक टकराव ही हावी रहा. अब समय आ गया है कि पैकेज से निकल मोदी सरकार पॉकेट की बात करें ताकि इस संकट से निपटने के लिए उसे जनता का साथ भी मिले.
(यह लेख निजी विचार हैं)