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Thursday, 21 November, 2024
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क्या भोजन और रहन-सहन बस्तर के आदिवासियों को कोविड से बचाने के पीछे का रहस्य है

क्या आदिवासियों की वाइल्ड फुड हैबिट है मामले ज्यादा ना बढ़ने का कारण, विशेषज्ञों का मानना है कि यह हो सकता है शोध का विषय.

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रायपुर: नक्सलवाद से पीड़ित छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य बस्तर क्षेत्र का ज्यादातर भाग दुनिया को त्रस्त कर देने वाली कोविड-19 महामारी से अभी भी तकरीबन अछूता ही है. राज्य में कुल कोरोना पॉजिटिव मरीजों की तादात में बस्तर क्षेत्र का शेयर सिर्फ 2.5 प्रतिशत ही है जबकि शेष 97.5 प्रतिशत मरीज चार अन्य संभागों से हैं.

राज्य में कोविड-19 की संभागवार सैंपलिंग के आंकड़े करीब एक ही जैसे हैं फिर भी बस्तर में पॉजिटिव मरीजों की संख्या अन्य संभागों की अपेक्षा काफी कम है. प्रदेश में बिलासपुर संभाग एक मात्र जिला है जहां सैंपलिंग की संख्या करीब 31,643 है. बस्तर संभाग में 18,189 सैम्पलों की जांच हो चुकी है, वहीं रायपुर में 21,600 से ज्यादा और दुर्ग में यह आंकड़ा 18,961 के करीब है. सरगुजा संभाग में करीब 9,688 सैम्पलों की जांच हुई है जिसमें 208 पॉजिटिव मामले पाए गए हैं. बिलासपुर, रायपुर और दुर्ग संभागों में पॉजिटिव मरीजों की संख्या क्रमशः 647, 329 और 293 है.

ऐसे समय में जब प्रवासी मजदूरों के आने से राज्य में कोविड-19 पॉजिटव मरीजों की संख्या में करीब 12 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है. बस्तर के पांच जिलों सुकमा, नारायणपुर, दंतेवाड़ा बीजापुर और कोंडागांव में आज तक एक भी कोरोना पॉजिटिव केस नहीं पाया गया है.

प्रदेश के शेष सभी 23 जिलों में कोरोना के एक्टिव केस मिले हैं. दो दिन पहले यानि 13 जून तक दंतेवाड़ा और कोंडागांव भी जीरो कोविड-19 की सूची में शामिल थे लेकिन पिछले दो दिनों में इन दोनों जिलों में 3 बिना लक्षण वाले केस मिले हैं.


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बस्तर के आदिवासी जीवन शैली के जानकारों और विशेषज्ञों का कहना है कि 19 हजार से भी अधिक सैम्पलों की जांच के बाद सिर्फ 36 पॉजिटिव केस मिलने का कारण यहां के आदिवासियों की वाइल्ड फुड हैबिट को माना जा सकता है. इन जानकारों का कहना है कि ये श्रमिक वनों में प्राकृतिक तौर पर पाए जाने वाले नॉन टिम्बर फॉरेस्ट प्रोड्यूस जैसे कंदमूल, विशेष हर्बल सागें और अन्य शुद्ध खाद्य पदार्थों का सेवन करते हैं जिससे इनमें शारीरिक तौर पर बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है.

स्वास्थ्य विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार कोरोना से संबंधित मिल रहे डाटा को विभाग इस दिशा में भी गंभीरता से ले रहा है. इस अधिकारी ने यह भी कहा अभी पुख्ता तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि इस विषय पर कोई वैज्ञानिक डेटा विभाग के पास उपलब्ध नहीं है.

बता दें कि इस क्षेत्र में कांकेर, दंतेवाड़ा, कोंडागांव और जगदलपुर जिलों में ही कोविड-19 ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है वह भी राज्य के दूसरे हिस्सों के मुकाबले यह संख्या बहुत ही कम है. वर्तमान में जगदलपुर में 2 और कांकेर में 8, कोंडागांव 3 और दंतेवाड़ा में 2 एक्टिव कोविड-19 केस हैं. चारों जिलों को मिलाकर बस्तर में अधिकतम कोरोना पॉजिटिव मरीजों की संख्या 36 ही रही है जिसमें 21 मरीज ठीक होकर अपने घर जा चुके हैं.

बस्तर के सातों जिलों में जांच के आंकड़ों को देखा जाए तो 9,698 सैंपल जगदलपुर से, कांकेर से 2,051 सैम्पल, 1,565 सैम्पल कोंडागांव से, सुकमा से 1,729 सैंपल, दंतेवाड़ा से 1,168 सैंपल, बीजापुर 1,239 और नारायणपुर से 804 सैम्पलों की जांच हुई है.

स्थानीय अधिकारियों के अनुसार लिए गए सैंपलों में 90 प्रतिशत से भी ज्यादा प्रवासी मजदूरों के हैं जो महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से लौटे हैं. श्रम विभाग के अधिकारियों के मुताबिक बस्तर क्षेत्र से सीजनल पलायन करने वाले आदिवासी श्रमिकों की अनुमानित संख्या 20 हजार के आस पास है. बस्तर की 70 प्रतिशत आबादी जनजातियों की है.

बस्तर में कोरोना का पहला केस 21 मई को कांकेर में पाया गया था. यह संख्या 1 जून तक 23 हो गयी थी और अभी 26 है लेकिन बाद में ठीक होने वाले मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती रही है और 15 जून को यह आंकड़ा 8 पहुंच गया. इसी दौरान जगदलपुर में पहला पॉजिटिव केस 27 मई को मिला और कुछ दिनों के अंतराल में यह आंकड़ा 5 तक पहुंचा. कोंडागांव और दंतेवाड़ा में क्रमशः 5 और 2 केस पिछले सप्ताह मिले हैं.

प्रदेश के डॉक्टर और आदिवासी क्षेत्रों में कार्य कर रहे जानकारों का मानना है कि संभाग में कोरोना पॉजिटव केसों की संख्या कम मिलने के संभवतः मुख्य दो कारण हो सकते हैं. एक वनवासियों का प्राकृतिक खान-पान और रहन-सहन, दूसरा उनके द्वारा स्वयं की अपनायी गयी क्वारेंटाइन पद्धति (आदत).

दिप्रिंट से बात करते हुए राज्य कंट्रोल एंड कमांड सेंटर कोविड-19 के डाटा प्रभारी डॉक्टर अखिलेश त्रिपाठी ने बताया, ‘अदिवासी क्षेत्रों के लोग ज्यादार कंदमूल, फल एवं सब्जियों को ही अपने भोजन के लिए दैनिक जीवन में अपनाते हैं. इससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता शहरी और अन्य ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की अपेक्षा काफी ज्यादा होती है. हालांकि यह एक शोध का विषय भी है. हमें यह भी देखना पड़ेगा कि लिए गए सैंपलों में प्रवासी मजदूरों की वास्तविक संख्या कितनी है. डॉक्टर त्रिपाठी कहते हैं, ‘यद्यपि यह सर्वमान्य है कि प्रवासी श्रमिकों की संख्या ही ज्यादा है लेकिन फिर भी एनालिसिस करना आवश्यक है.’

जगदलपुर में कार्यरत वनवासी जीवन पर शोध करने वाले डॉक्टर राजेन्द्र सिंह का कहना है, ‘जड़, कंदमूल, मोटे अनाज और लघुवानोपज के मुख्य आहार पर जीवन यापन करने वाले बस्तर के ग्रामीणों ने क्वारेंटाइन की शिक्षा समय रहते ही ले लिया था. केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जारी दिशा-निर्देशों को इन्होंने स्थानीय प्रशासन की मदद से पहले ही आत्मसात कर लिया था जिसके कारण बाहर से आने वाले प्रवासियों को स्वयं ही गांव के बाहर रोक लिया जाता है.’


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लाल साग खून को बढ़ाता है और इसमें आयरन सहित कई खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में होते हैं/फोटो: विशेष प्रबंध

बस्तर के आदिवासियों की वाइल्ड फूड हैबिट

विशेषज्ञों का कहना है कि बस्तर के आदिवासियों में अधिक प्रतिरोधक क्षमता का एक विशेष कारण उनकी वाइल्ड भोजन पद्धति (संस्कृति) है. हमसे बात करते हुए कृषि विशेषज्ञ और आदिवासियों के भोजन व्यवस्था को करीब से समझने वाले डॉक्टर तुषार ने बताया, ‘बस्तर के आदिवासी अपने भोजन में स्थानीय बोली के अनुसार बोडा फंगस जो साल के वृक्षों में पाए जाते हैं, मशरूम की एक किस्म फुटू, बांस के पौधे का बास्ता का भरपूर इस्तेमान करते हैं. इसके अलावा बस्तर के ग्रामीण सागों की कई किस्में जैसे चरोटा, भोहार, कलियारी भी काफी अधिक मात्रा में खाते हैं.’

तुषार कहतें हैं, ‘ये ऐसे साग और कंदमूल हैं जो बस्तर में प्राकृतिक तौर पर पाए जाते हैं. यहां के ग्रामीण इन्हें भोजन के रूप में जीवन भर लेते हैं. इनमें एमिनो एसिड, विटामिन सी, आयरन, फोलिक एसिड की मात्रा पर्याप्त होती है जिससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता प्राकृतिक रूप से बढ़ती है.’ तुषार के अनुसार बस्तर के आदिवासियों की आम दिनचर्या भी सालभर क्वारेंटाइन रहने जैसी ही रहती है.

उनका कहना है, ‘वाइल्ड फुड हैबिट के अलावा ये ग्रामवासी सालभर आम लोगों से बहुत ही कम मिलना-जुलना करते हैं जिसके कारण उनकी प्राकृतिक रूप में क्वारेंटाइन जीवन शैली रहती है.’

स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार हेमंत कौशिक का कहना है कि यहां के वनवासी यदि अन्य राज्यों में काम करने जाते हैं तो वे अपने साथ भोजन की पूरी व्यवस्था करके जाते हैं.

हो सकता है शोध का विषय

हमारे द्वारा कुछ और विशेषज्ञों से संपर्क करने पर उन्होंने बताया कि आदिवासियों की वाइल्ड फ़ूड हैबिट स्वाभाविक रूप से उनकी शारीरिक और प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है लेकिन इसकी वास्तुस्थिति का पता उपयुक्त शोध के बाद ही चल पाएगा. इन शोधकर्ताओं का मानना है की बस्तर के वनवासी ग्रमीणों का भोजन प्राकृतिक तौर पर पाए जाने वाले कंदमूल, हर्बल साग, जंगलों में पाई जाने वाली कई जड़ी-बूटी युक्त सब्जियां हैं जो प्रतिरोधक क्षमता वृद्धि का लाभ देते हैं.

मानव वैज्ञानिक एवं बस्तर यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ एंथ्रोपोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर स्वपन कुमार ने हमें बताया, ‘बस्तर के आदिवासियों की वाइल्ड फूड हैबिट उनकी इम्यूनिटी बढ़ाती है. यह एक आम धारणा है लेकिन इसका कोई वैज्ञानिक पहलू स्थापित नहीं हुआ है. यह एक शोध का विषय जरूर है. शहरी जीवन और बस्तर के ग्रामीणों की प्रतिरोधक क्षमता का एक तुलनात्मक अध्यन और उनके वनोत्पादित खाद्य सामग्रियों की न्यूट्रिशनल वैल्यू पर शोध करने के बाद ही इन तथ्यों का वैज्ञानिक पहलू स्थापित हो सकता है.’

डॉक्टर कुमार कहते हैं, ‘हमें इस दावे को पुख्ता करने के लिए ऐसा करना पड़ेगा. इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता है कि बस्तर के अदिवासी अंचलों का भोजन शुद्ध और मिलावट रहित न्यूट्रिशनल कारकों से भरा होता है जिससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता आमतौर पर अधिक मानी जाती है.’

डॉक्टर कुमार का कहना है कि डब्ल्यूएचओ के दिशा-निर्देशों के अनुसार कोरोना से लड़ाई में प्रतिरोधक क्षमता वाले खाद्य सामग्रियों का उपयोग करना ही उचित माना गया है और इसलिए यह आवश्यक है कि बस्तर के भोजन में इस्तेमाल की जाने वाली चीजों का वैज्ञानिक आधार सामने आये.

बस्तर यूनिवर्सिटी के ही मानव विज्ञान के प्रोफेसर आनंद मूर्ति मिश्रा कहते हैं, ‘यह कोई हाइपोथिसिस वाली थ्यौरी नहीं है बल्कि सच्चाई है की बस्तर के कोर क्षेत्र में रहने वाले लोग लॉ ऑफ नेचर के अनुसार वहां पर पाए जाने वाले वाइल्ड फ़्लोरा और फौना पर जीवन यापन करतें है. बोडा और बांस का बास्ता यहां के वनवासियों का आम भोजन है जिसका सेवन शहरी लोग शायद ही करते हों जिससे उनकी इम्युनिटी बढ़ती है.’ डॉक्टर मिश्रा कहते हैं, ‘ऐसे कई नॉन टिम्बर फॉरेस्ट प्रोडक्ट्स हैं जिनका सेवन आदिवासी जाने-अनजाने में करतें हैं जिससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है लेकिन इसके वैज्ञानिक पहलू को पूरी तरह से स्थापित करना अभी बाकी है.’

बता दें की बस्तर के आदिवासी ग्रामीणों की अपेक्षा पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के बॉर्डर जिलों के ग्रामीणों की फुड हैबिट वाइल्ड नही है. डॉक्टर तुषार के अनुसार, ‘हम जैसे ही तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के बॉर्डर क्षेत्रों में जाते हैं वहां के ग्रामीणों का मुख्य भोजन इडली डोसा या फिर अन्य स्थानीय खाद्य सामग्री होता है ना कि बस्तर के ग्रमीणों जैसे वाइल्ड फुड हैबिट.’

बाहर से आई महामारी का बस्तर में कम रहा है असर

बस्तर के वनवासियों का महामारी से लड़ने का अपना ही इतिहास रहा है. हालांकि बस्तर में मलेरिया से होने वाली मौतें और कुपोषण के केस चर्चा का विषय हमेशा ही रहें हैं लेकिन यहां के जानकारों का कहना है कि बाहर से आने वाली महामारी का स्थानीय लोगों पर असर बहुत कम पाया गया है. पूर्व केंद्रीय मंत्री और जनजातीय संस्कृति और प्रथाओं पर पकड़ रखने वाले अरविंद नेताम कहते हैं, ‘हमारे रिश्तेदारों और बड़ों के द्वारा यह बताया गया है कि 1940 के दशक में हैजा जैसी महामारी से भी बस्तर में बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था. मौतों का आंकड़ा भी ना के बराबर था. उन दिनों बीमारी से मरने वाले लोगों की लाश उठाने वाले अपने शरीर पर महुए का रस मलकर जाया करते थे. हमें बताया गया था कि इसका बहुत फायदा हुआ. लेकिन इस बात का अभी तक कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है. मेरी हमेशा से मांग रही है कि बस्तर के वनांचलों में पाये जाने वाले खाद्द पदार्थों की गुणवक्ता और महुए का केमिकल एनालिसिस होना चाहिए. आखिर पता तो चले की इसमें क्या सच्चाई है.’

फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

रिकवरी रेट मात्र 48 प्रतिशत के करीब

प्रदेश में 15 जून देर रात तक कोरोना पॉजिटिव मरीजों की संख्या 1715 हो गई है. इसमें 34 दिनों के अंदर एक्टिव मरीजों की संख्या 3 से बढ़कर करीब 8,75 हुई है. तकरीबन 831 मरीज ठीक होने के बाद डिस्चार्ज किये जा चुके हैं. रिकवरी का यह आंकड़ा करीब 48 फीसदी है जो राष्ट्रीय औसत के 50 प्रतिशत से काफी कम है. 10 दिन पहले तक यह 27 प्रतिशत था.


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कोरोना से कुल चार मौतें

छत्तीसगढ़ में शानिवर को 19 साल की एक युवती सहित कोरोना संक्रमित दो लोगों की मृत्यु हो गई. दोनों मरीजों के मौत की पुष्टि एम्स ने की है. बिलासपुर निवासी 34 वर्षीय एक युवक 5 जून को एम्स में भर्ती किया गया था जिसकी शानिवर करीब 11.30 बजे मौत हो गई. दूसरी मौत ल्यूकेमिया (ब्लड कैंसर) की मरीज जगदलपुर निवासी युवती की हुई जिसका इलाज रायपुर के रामकृष्ण केयर अस्पताल में चल रहा था. मृतका की कोविड-19 रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद उसे 1 जून को एम्स में भर्ती कराया गया था. इसके बाद बिलासपुर और दुर्ग में दो और कोरोना पॉजिटिव मरीजों की मृत्यु हो गई.

करीब 10 दिन पहले हुई इन 7 मौतों के बाद प्रदेश में कोरोना संक्रमण से मारने वाले मरीजों को संख्या 9 हो गयी है. इससे पहले झारखंड का श्रमिक और भिलाई की 55 वर्षीय महिला भी कोरोना का शिकार हो चुके हैं. हालांकि राज्य सरकार कोरोना से हुई मौतों की संख्या सिर्फ दो ही मान रही है. सरकार के अनुसार बांकी 7 मौतें कोमोर्बिडिटी के कारण हुई हैं.

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