नई दिल्ली: पिछले शुक्रवार 22 मई को गुजरात हाईकोर्ट तब सुर्ख़ियों में आया, जब अहमदाबाद सिविल अस्पताल की ‘काल कोठरी जैसी’ हालत के लिए, उसने बहुत कड़े शब्दों में गुजरात सरकार को फटकार लगाई.
लेकिन, दो महीने पहले भारत में कोविड-19 का प्रकोप फैलने के बाद से, ये पहला मौक़ा नहीं था जब गुजरात हाईकोर्ट ने राज्य सरकार, केंद्र सरकार और निजी अस्पतालों को फटकार लगाई. नोवेल कोरोनावायरस को लेकर हाईकोर्ट अभी तक वास्तव में 11 आदेश जारी कर चुका है.
ये पहला हाईकोर्ट था जिसने 13 मार्च को कोरोनावायरस (कोविड-19) वैश्विक महामारी को लेकर ‘एहतियाती उपायों’ का स्वत: संज्ञान लिया था, जब प्रदेश में पहले केस का पता भी नहीं चला था. तब से ये केस कोर्ट की प्राथमिकता में पहले स्थान पर बना हुआ है.
मुख्य न्यायाधीश विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति जे शास्त्री ने याचिका की पहल की, और अब तक आठ आदेश जारी किए हैं, जिनमें अलग-अलग वर्गों के लोगों को तरह-तरह की राहत दी गई. न्यायमूर्ति जेबी पार्दीवाला और न्यायमूर्ति ईलेश जे वोरा की एक दूसरी बेंच ने, तीन आदेश जारी किए हैं.
इन 11 आदेशों के पीछे हाईकोर्ट ने, अख़बारों में छपे लेखों व ख़बरों, 15 से अधिक जनहित याचिकाओं, 10 अर्ज़ियों, और यहां तक की एक गुमनान चिट्ठी तक का संज्ञान लिया है.
कोर्ट की सुरक्षा से बड़े मुद्दों तक
कोविड-19 पर गुजरात हाईकोर्ट के आदेश की शुरूआत में, निर्देश जारी किए गए कि कोर्ट परिसर में क्या एहतियात बरतनी हैं. स्वत: संज्ञान जनहित याचिका में अपने पहले आदेश में, अदालत ने प्रवेश द्वार पर टेम्प्रेचर गन्स और कोर्ट परिसर के अंदर सैनिटाइज़ेशन इस्तेमाल करने का निर्देश जारी किया.
कोर्ट ने ये भी आदेश दिया कि लोगों की भीड़ से बचा जाए और उसी हिसाब से अपने कामकाज को लेकर भी कोर्ट ने व्यापक गाइडलाइन्स जारी की.
यह भी पढ़ें: राहुल गांधी बोले- पीएम मोदी बताएं आगे का क्या है प्लान, लॉकडाउन तो हो गया फेल
लेकिन अगले कुछ आदेशों में कोर्ट ने कुछ बड़े मुद्दों पर ढेर सारे निर्देश जारी किए, जैसे कि हेल्थकेयर में लगे लोगों के लिए मुनासिब उपकरण, कोविड-19 के मरीज़ों के इलाज के लिए निजी अस्पतालों की सहायता लेना, अधिक संख्या में टेस्टिंग किट्स की ख़रीद, हेल्थकेयर वर्कर्स की जांच, एक कोविड-19 कंट्रोल सेंटर की स्थापना, और प्रवासी मज़दूरों के लिए ट्रेन का एकतरफा किराया माफ़ी.
14 मई को जारी एक आदेश में, कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि कोविड-19 का प्रकोप एक ‘युद्ध जैसी स्थिति’ है और ऐसा समय नहीं है जिसमें मुनाफ़े का कारोबार किया जाए. कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि कोरोनावायरस के मरीज़ों के इलाज के लिए, निजी अस्पतालों द्वारा वसूली जा रही, ‘अत्याधिक फीस’ को नियमित करे.
कोर्ट ने कहा था कि सरकार के निर्देश के बावजूद, अगर अस्पताल नहीं मानते और ‘बहुत ऊंची रकम मांगते’ हैं, तो उनके खिलाफ उपयुक्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी, जिसमें उनका लाइसेंस भी रद्द हो सकता है.
पिछले शुक्रवार को जारी आदेश में, निजी अस्पतालों को भी फटकार लगाई गई, जिन्होंने कोविड-19 मरीज़ों का इलाज शुरू नहीं किया था, जबकि राज्य सरकार के साथ उनका इस आशय का समझौता हो चुका था. कोर्ट ने सरकार से यहां तक कहा कि ऐसे अस्पतालों के खिलाफ, भारतीय दंड संहिता और आपदा प्रबंधन अधिनियम के प्रावधानों के तहत अपराधिक कार्रवाई शुरू करे.
इसके अलावा सुनवाईयों के दौरान हाईकोर्ट में कई रिपोर्ट्स भी पेश की गईं, जिनमें गुजरात उपभोक्ता मामले, खाद्य व नागरिक आपूर्ति विभाग, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण विभाग और गुजरात प्रदेश विधि सेवा प्राधिकरण आदि की रिपोर्ट्स शामिल हैं.
अनेकों जनहित याचिकाएं व अर्ज़ियां
इस बीच, अलग-अलग लोगों ने 15 से अधिक जनहित याचिकाएं और 10 अर्ज़ियां गुजरात हाईकोर्ट में दाख़िल की हैं, जिनमें बहुत से कदम उठाने की मांग की गई, जैसे कोविड-19 का फ्री टेस्ट और इलाज, बेघरों के लिए पका हुआ भोजन, वरिष्ठ नागरिकों के लिए आवश्यक वस्तुएं, हर किसी को एक महीने का राशन, जेल में कैदियों की जांच, स्वास्थ्य कर्मियों के लिए पीपीई, लॉकडाउन में ज़ब्त किए गए वाहनों को छोड़ना, विधवाओं और अनाथ बच्चों को बुनियादी सुविधाएं, खाद्य सुरक्षा, साफ-सफाई, और बीमा राशि के भुगतान की समय सीमा को आगे बढ़ाना शामिल हैं.
इन सभी याचिकाओं की सुनवाई कोर्ट की स्वत: संज्ञान याचिका के साथ की गई, जिसमें कोर्ट ने हर दस दिन में राज्य सरकार से जवाब तलब किए, और उनमें ख़ामियां पाई जाने पर उसे फटकार भी लगाई.
लेकिन 3 अप्रैल को, कोर्ट ने चेतावनी दी कि जनहित याचिकाएं ‘लोकप्रियता के निजी लाभ, या किसी निहित स्वार्थ से प्रेरित अथवा प्रायोजित न हों, या हल्की न हों.’ कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि संकट के ऐसे समय में, गैर-सरकारी संस्थाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को, ढेरों जनहित याचिकाएं दाख़िल करने की बजाय, ‘सरकार के हाथ में हाथ मिलाकर’ चलना चाहिए.
इनमें से अधिकतर याचिकाओं और अर्ज़ियों का 17 अप्रैल को निपटारा कर दिया गया, जब कोर्ट ने कहा कि ये स्वभाव से विरोधात्मक नहीं थीं, और इनमें केवल कुछ चिंताओं पर रोशनी डाली गई थी.
यह भी पढ़ें: पालघर में हुई साधुओं की हत्या में ‘ईसाई मिशनरी का हाथ’ तो नहीं जांचेगी वीएचपी की फैक्ट फाइंडिंग टीम
कोर्ट का मानना था कि ‘व्यक्त की गई चिंताएं राज्य एवं केंद्र तक पहुंच गईं हैं. अधिकतर को दूर कर लिया गया है और कुछ दूर की जा रही हैं’ और उनका मकसद पूरा हो गया है.
अख़बारों की ख़बरें
मार्च से गुजरात हाईकोर्ट ने कोविड-19 के बारे में छपी खबरों पर भी निगाह रखी है और सक्रियता के साथ लेखों का संज्ञान लिया है.
ऐसा एक पहला आदेश 1 अप्रैल को जारी हुआ, जब कोर्ट ने दिल्ली में तबलीग़ी जमात के जमावड़े पर अखबारों में छपे लेखों का संज्ञान लिया, जो कोविड-19 का हॉटस्पॉट बन गया था. ये केस असल में 3 अप्रैल को सुना जाना था, लेकिन अख़बारों में छपी ख़बरों के चलते, कोर्ट ने इसकी सुनवाई पहले ही कर ली.
कोर्ट ने राज्य सरकार और साथ ही केंद्र सरकार के उच्च कानूनी अधिकारियों से जवाब मांगे और केंद्र को निर्देश दिया कि ऐसे तमाम तबलीग़ियों की एक लिस्ट मुहैया कराई जाए, जो गुजरात में दाख़िल हुए थे, और लिस्ट में उनकी राष्ट्रीयता और वीज़ा का ब्यौरा भी दिया जाए. ये जानकारी एक सील किए हुए कवर में दी जानी थी.
इसके बाद एक चेतावनी दी गई कि अगर सरकार की ओर से दाख़िल रिपोर्ट्स ‘संतोषजनक नहीं पाई गईं’ तो कोर्ट ‘कठोर कदम’ उठाएगा.
11 मई को कोर्ट ने अहमदाबाद मिरर के दो, और इंडियन एक्सप्रेस के दो आलेखों का संज्ञान लिया.
इनमें से एक आलेख में कहा गया था कि लॉकडाउन के चलते, गैर-कोविड-19 मरीज़ चिकित्सा सेवाएं नहीं ले पा रहे हैं. दूसरे में दिहाड़ी मज़दूरों की दुर्दशा पर रोशनी डालते हुए दावा किया गया था कि उन्हें कई दिन से खाने को नहीं मिला है. तीसरा लेख प्रवासी मज़दूरों के बारे में था, जिन्हें यूपी की ट्रेन पकड़ने के लिए 19 घंटे इंतज़ार करना पड़ा, जबकि चौथा गुजरात के पुलिस महानिदेशक पर था, जिन्होंने कहा था कि प्रवासी मज़दूरों को पैदल चलने से रोक कर, शरण स्थलों में भेज दिया जाए.
कोर्ट ने सरकार से कहा कि प्रवासी मज़दूरों की सहायता के लिए कुछ ‘ठोस योजना’ बनाए. कोर्ट ने कहा कि गरीब लोग कोविड-19 से ‘नहीं डरे’, बल्कि ‘इस बात से डरे हैं कि वो भूख से मर जाएंगे’.
गुमनाम चिट्ठी
पिछले शुक्रवार के आदेश में, कोर्ट ने एक गुमनाम चिट्ठी का भी संज्ञान लिया, जो अहमदाबाद सिविल अस्पताल में काम कर रहे, किसी 25 वर्षीय रेज़िडेंट डॉक्टर ने लिखी थी.
यह भी पढ़ें: महाराष्ट्र में कोविड से निपटने का जिम्मा शरद पवार के हाथ, शिवसेना को कोई ऐतराज नहीं है
इस बात को स्वीकार करते हुए कि कोर्ट आमतौर पर ऐसी गुमनाम चिठ्ठियों का संज्ञान नहीं लेतीं, कोर्ट ने कहा कि ‘स्थिति इतनी गंभीर है कि हमें चिठ्ठी में लिखी बातों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए’ और ये भी कि ये ‘बहुत विचलित करने वाली है.’
चिठ्ठी लिखने वाले ने दावा किया था, कि 2 मई को उसका कोविड-19 टेस्ट पॉज़िटिव आया, लेकिन उसके ख़ुद को पांच दिन आइसोलेट करने के बाद, टेस्ट निगेटिव आ गया. अपनी चिठ्ठी में उसने दावा किया कि उसके व कुछ अन्य लोगों के पॉज़िटिव आने के बाद भी उनके सम्पर्कों को ट्रेस नहीं किया गया और उसकी बजाय अपने टेस्ट कराने के लिए उनकी ‘आलेचना’ की गई.
चिठ्ठी में सिविल अस्पताल के कामकाज में फैली बदइंतज़ामी की कई मिसालों पर प्रकाश डाला गया, जिनमें पीपीई किट्स, एन-95 मास्क और डॉक्टरों के लिए उपयुक्त ग्लव्ज़ की कमी शामिल थीं. इसमें कहा गया कि गैर-कोविड-19 वार्ड्स में दो दिन रहने के बाद, अस्पताल के सामान्य मरीज़ों के कोविड-19 टेस्ट भी पॉज़िटिव आ रहे हैं.
गुमनाम डॉक्टर ने फिर दावा किया कि अगर हालात ऐसे ही रहे तो, ‘यहां काम कर रहे डॉक्टर कोविड-19 के सुपर स्प्रैडर्स हो जाएंगे’.
उसी दिन कोर्ट ने एक रिपोर्ट का भी संज्ञान लिया, जिसे अहमदाबाद सिविल अस्पताल के एक ‘ज़िम्मेदार मेडिकल ऑफिसर’ ने तैयार किया था.
रिपोर्ट में अहमदाबाद के कोविड-19 अस्पतालों में उठाई गईं शिकायतों, वहां के मौजूदा कामकाज और संभावित समाधानों की बात की गई थी.
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वो इस रिपोर्ट की सच्चाई से वाक़िफ नहीं है, लेकिन उसने तीन वरिष्ठ मेडिकल ऑफिसर्स की एक टीम गठित कर दी, जो इसकी जांच करके कोर्ट को उससे अवगत कराएगी.
आवश्यक आदेश या न्यायपालिका का हस्तक्षेप
कोविड-19 के प्रकोप को रोकने के लिए, जब से देशव्यापी लॉकडाउन घोषित किया गया, तब से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में, अलग-अलग कदम उठाए जाने के लिए, जनहित याचिकाओं की बाढ़ सी आ गई है.
सुप्रीम कोर्ट ने काफी हद तक कार्यपालिका के ऊपर छोड़ दिया है कि वो इन चिंताओं का निपटारा करे, लेकिन कई हाईकोर्ट्स ने न सिर्फ कुछ मामलों का स्वत: संज्ञान लिया, बल्कि जनहित याचिकाओं का भी संज्ञान लिया, जिनमें किसी आदमी का क्वारेंटाइन कितने दिन का हो और शवों का कोविड-19 टेस्ट करने के आदेश जैसे विषय शामिल थे.
लेकिन इस सब ने बहुत समय से चली आ रही इस बहस को, फिर से चिंगारी दे दी है कि क्या न्यायपालिका कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है.
यह भी पढ़ें: एलएसी पर यथास्थिति चाहता है भारत, निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की चीन कर रहा मांग
वरिष्ठ एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने कहा ‘कोर्ट्स के पास कोविड-19 जैसी समस्याओं से निपटने के लिए अनुभव या क्षमता नहीं है’, लेकिन उन्होंने कहा कि प्रवासी मज़दूरों के बारे में उनकी दखल-अंदाज़ी जायज़ है.
द्विवेदी के अनुसार, ‘वे (अदालतें) वहां दख़ल नहीं देतीं, जहां देना चाहिए और ऐसे क्षेत्रों में दख़ल देना चाहती हैं, जिनपर उनका कोई नियंत्रण नहीं है.’
उन्होंने ज़ोर देकर कहा, ‘हम अमूमन ये नहीं कह सकते कि कोर्ट को अलग रहना चाहिए, लेकिन आदेशों के हर पहलू को अलग-अलग जांचना ज़रूरी है, ये देखने के लिए कि ये न्यायिक अतिसक्रियता है कि नहीं.’
लेकिन सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने, सक्रियता दिखाने के लिए गुजरात हाईकोर्ट की सराहना की.
दवे ने कहा, ‘संवैधानिक कोर्ट्स को आदेश जारी करने होते हैं. उन्हें ये करना ही है. वो अपनी ज़िम्मेदारियों से बच नहीं सकते और मुझे लगता है कि वो आदेश सही भावना के साथ जारी किए गए.’
सीनियर एडवोकेट ने आगे कहा, ‘इन आदेशों के लिए गुजरात हाईकोर्ट की सराहना होनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के लिए ये एक अच्छा संकेतक है, जो किसी भी तरह का आदेश जारी नहीं कर सका है.’
उन्होंने पूछा, ‘कोर्ट का वाक़ई एक फ़र्ज़ होता है. आख़िरकार, अगर संवैधानिक अदालत सरकार के कर्म और अकर्म के मनमानेपन को, धारा 14 की कसौटी पर परख कर, अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करती, तो फिर कौन करेगा?’
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)