1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से ही भारत में ‘बिग बैंग रिफॉर्म’ एक भारी भरकम शब्द बना हुआ है. पत्रकार, उद्योगपति और अर्थशास्त्री – हर कोई बड़ी सहजता के साथ इसका उपयोग करता है. यह इंतजार इतना लंबा हो चुका है कि हर केंद्रीय बजट के साथ यह अपेक्षा लगी रहती है कि शायद इस बार सरकार कोई ठोस एवं गहरे प्रभावों वाले दूसरी पीढ़ी के संरचनात्मक आर्थिक सुधारों की शुरुआत करेगी, क्योंकि 1991 के सुधार सिर्फ ईस्ट इंडिया कंपनी की मानसिक प्रतिछाया से उभरने और विदेशी निवेश की अनुमति देने के बारे में हीं थे.
मनमोहन सिंह से लेकर पी चिदंबरम, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण जेटली तक ने इस उम्मीद के साथ बार-बार धोखा ही किया. यहां तक कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी 2019 में नरेंद्र मोदी को मिले बड़े चुनावी जनादेश के बाद भी बिग बैंग रिफॉर्म्स के लिए उठ रहीं मांगो की पूर्ति नहीं कर पायी.
आख़िरकार भारत को अपने इस राजनैतिक रूप से सबसे हठीले आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए उस वैश्विक महामारी का समय चुनना पड़ा जिसने तेज़ी से गिरती हुई वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने 2008 के ग्रेट रिसेशन (महान आर्थिक मंदी) के बाद का सबसे बड़ा संकट खड़ा कर इसे एकदम से पंगु बना दिया है.
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लॉकडाउन के कारण बेतहाशा बढ़ती बेरोजगारी, शहरों से हजारों प्रवासी श्रमिकों के पलायन करने, और विकास दर के 1.9 प्रतिशत तक संकुचित हो जाने की आशंका के बीच हर कोई सरकार से एक उदार राजकोषीय प्रोत्साहन और लोगों की जेब में सीधे पैसा डालने की मांग कर रहा था. परंतु नरेंद्र मोदी सरकार ने इसके बजाए बड़े आर्थिक सुधारों की तरफ बढ़ने का कठिन फ़ैसला ले लिया.
इस फ़ैसले में बाधा-रहित कृषि व्यापार से लेकर किसानों की बाजारों तक पहुंच को मुक्त करने, रक्षा उत्पादन में 74 प्रतिशत तक के विदेशी निवेशी की अनुमति, एमएसएमई की परिभाषा को बदलना, कोयला और खनिज खनन क्षेत्र के व्यपाका सुधार तक शामिल कर लिए गये, इनमे अगर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में श्रम कानून में किए गये बदलाव को भी शामिल कर लें तो एक साल पहले तक यह सब अकल्पनीय सा लगता था.
ये सभी लंबे समय से लटके हुए महत्वपूर्ण क्षेत्रों से जुड़े आर्थिक सुधार हैं जो राजनैतिक रूप से काफ़ी विवादास्पद रहें हैं. ऐसे में इन्हें लागू करने के लिए संकट काल से उपयुक्त समय हो हीं नही सकता था. इसका अनुमान 12 मई को मोदी के राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में हीं मिल गया था जब उन्होने कहा था कि इस महामारी का एक संदेश संकट को अवसर में बदलना भी है.
संकट काल में परिवर्तन आवश्यक
वास्तव में, भारत ने संकट के समय में विपरीत परिस्थतियों का सामना करते हुए भी निर्भीक सुधारों की अपनी परंपरा को बनाए रखा है. प्रख्यात लेखक शंकर अय्यर ने उनकी पुस्तक ‘एक्सीडेंटल इंडिया: ए हिस्ट्री ऑफ द नेशन’स पैसेज थ्रू क्राइसिस एंड चेंज’ में हरित क्रांति से लेकर 1991 के उदारीकरण तक के व्यापक प्रभाव वाली नीतियों को संकट के आकस्मिक परिणामों – ना कि दूरदर्शिता और सावधानीपूर्वक योजना वाले कदम – के रूप में हीं उद्धृत किया है.
प्रतिकूल परिस्थितियां हमेशा से भारतीय नीति निर्धारण प्रक्रिया के लिए लंबी छलांग वाले क्षण साबित होती रहीं हैं. ज़्यादातर बड़े आर्थिक फैसले तब लिए जाते हैं जब हमें लगता है कि देश की सामने अब और कोई विकल्प नही बचा है. परंतु वास्तविकता में यह सहज ज्ञान से परे है.
आदर्श रूप से, कठिन संरचनात्मक सुधार तब किए जाने चाहिए जब अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही हो ताकि वह इनके परिणामस्वरूप उत्पन्न झटके और व्यवधानों का सामना कर सके. लेकिन भारत में, जब अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही होती है, तो नेतागण अक्सर रेवड़ी बांटने की राजनीति में व्यस्त रहते हैं.
यही कारण है कि संकट काल उनका सुधारों हेतु चुनिंदा मंच होता है. अत्यधिक विपत्ति के समय सुधारों को बिना किसी राजनीतिक विरोध या व्यापक परिचर्चा के पेश और लागू कर दिया जाता है.
उदाहरण के लिए, आज, किसी भी विपक्षी दल ने योजनाबद्ध रूप से किए जा रहे निजीकरण और श्रम क़ानूनों में बदलाव के खिलाफ आंदोलन की धमकी नहीं दी है, संकट के समय में किए गये सुधार स्थिति ठीक होने तक इतना आगे बढ़ चुके होते हैं उन्हें वापस लेना संभव नही होता.
लेकिन अचानक बदलावों में अक्सर सर्वसम्मति का अभाव होता है, अपर्याप्त तैयारी के साथ किए गये ये सुधार अक्सर अनियंत्रित भी होते हैं और इनके अनेक अनपेक्षित परिणाम भी हो सकते है. विपक्ष को विश्वास में ना लिए जाने के कारण यह भविष्य मे विरोधी पक्षों को कहीं अधिक रियायतें देने के लिए मजबूर कर सकता है, यह वर्षों बाद भी हो सकता है – जैसे कि वामपंथी दलों ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में किया था. इसका एक और दुष्परिणाम यह भी है कि सामूहिक विश्वास या आम सहमति के बिना बदलावों को लागू करने वाले हमेशा भारत की राजनीतिक संस्कृति में दोषी माने जाते हैं और आने वाले वर्षों में उन्हें इसकी और बड़ी क्षतिपूर्ति करनी पड़ती है.
बंधे हुए हाथों के साथ निर्णय
1991 में अर्थव्यवस्था को खोले जाने का फ़ैसला भुगतान संतुलन-के गंभीर संकट से प्रेरित था. आगे चलकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1998 के परमाणु परीक्षणों और वैश्विक निंदा के कारण अमेरिका द्वारा लगाए गये गंभीर प्रतिबंधों को झेलने के समय में आई टी डी सी होटल, वी एस एन एल, यू टी आई और मॉडर्न ब्रेड जैसे सार्वजनिक उपक्रमों की रणनीतिक बिक्री शुरू की.
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और अब, कॉविड संकट से प्रभावित अर्थव्यवस्था के कारण मोदी सरकार के हाथ बंधे होने बीच निर्मला सीतारमण ने यह साहसिक कदम उठाया है तो इस से मीडिया जगत में सुर्खियां तो बनेगी हीं.
उन्होंने यह भी कहा कि कॉविड संकट की अवधि के दौरान उत्पन्न ऋण के बारे मे सूचना देने वाली कंपनियों को डिफॉल्टर्स नहीं माना जाएगा, एक साल के लिए कोई भी दिवालिया प्रक्रिया शुरू नहीं की जाएगी और व्यवसायों द्वारा किए जाने कुछ उल्लंघनों को अब गैर अपराधिक मामला माना जाएगा.
भारतीय कंपनियां विदेशों में अपनी प्रतिभूतियों को भी सूचीबद्ध कर सकती हैं, और निजी व्यवसायों को अब उन क्षेत्रों में भी काम करने की अनुमति दी जाएगी जो पहले केवल सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे.
यह निवेशकों का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए बहुत बड़ा कदम साबित होगा और सही तरीके से लागू होने पर इसके तीन से पांच साल में अच्छे परिणाम हो सकते हैं.
एकदम से नई दुनिया मे ले जाने वाले कदम
अब यह लगभग स्पष्ट है कि कोविड के उपरांत की अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से निपटने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार की दोहरी रणनीति वित्तीय तरलता (फाइनेंशियल लिक्विडिटी) को समर्थन और संरचनात्मक सुधार पर आधारित है ना कि मांग में वृद्धि पर. लगता है कि सरकार के पास उपभोग को बढ़ावा देने के लिए लोगों के हाथों में सीधे पैसा पहुंचाने -जिसकी मांग कांग्रेस पार्टी के राहुल गांधी ने भी की थी- की तत्काल जरूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त राजकोषीय संसाधन नहीं है.
वास्तव में, जैसा कि मॉर्गन स्टेनली के रुचिर शर्मा ने कहा है, महामारी की अवस्था मे प्रवेश करने से पहले हीं सरकार उच्च राजकोषीय घाटे की स्थिति का सामना कर रही थी. इसने दिल खोल कर खर्च करने की सरकार की क्षमता को सीमित कर दिया है. शायद, इसलिए मोदी सरकार के लिए अछूते क्षेत्रों में आर्थिक सुधार आसान बात प्रतीत होती है, विशेषकर इस कारण भी कि फिलहाल लोकसभा का कोई भी चुनाव होने नही जा रहा है.
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अब तक, मोदी की प्राथमिकताएं हमेशा राजनीति रहीं है. उन्होंने कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम लाने जैसे विवादास्पद कदमों के लिए अधिक दुस्साहस दिखाया, लेकिन भूमि अधिग्रहण कानून जैसे व्यापारिक हित से जुड़े सुधार जैसे उपायों से वह पीछे हट गए.
लेकिन अब भारत एक परिवर्तनकारी संभावना के आरंभिक बिंदु पर खड़ा है. पश्चिमी देशों कि कंपनियां चीन से परे देखने की तैयारी कर रहीं हैं, और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बीजिंग के साथ संबंध विच्छेद की धमकी भी दी है. ऐसे में भारत अपने आप को दुनिया के लिए एक कारखाने में बदलने और मेक-इन-इंडिया को असली गति प्रदान करने के लिए अभूतपूर्व संभवनाएं उत्पन्न होते देख रहा है.
पिछले महीने हीं, आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने लिखा था कि ‘यह कहा जाता है कि भारत केवल संकट काल में हीं सुधार करता है,’ और उन्होंने यह भी कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि कोविड -19 की ‘अनियंत्रित त्रासदी’ भारत को आर्थिक सुधारों की आवश्यकता की तरफ देखने में मदद करेगी.
और, अब ऐसा लगता है कि मोदी ने भी उनका बयान पढ़ लिया है.
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(यहां लिखित विचार निजी हैं)