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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टना ब्ल्यू कॉलर ना व्हाइट, इन बनियान पहने मजदूरों की अहमियत भूल गया था मोदी का भारत

ना ब्ल्यू कॉलर ना व्हाइट, इन बनियान पहने मजदूरों की अहमियत भूल गया था मोदी का भारत

अपने घरों की तरफ लौट रहे लाखों गरीब आकांक्षी भारतीय श्रमिक वर्ग की नई पीढ़ी है. मोदी और उनकी सरकार ने उनके भाग्य के बारे में सोचा ही नहीं.

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कामगारों को हम प्रायः उनकी कमीज के कॉलर के रंग के हिसाब से अलग-अलग खांचों में बांटते हैं— सफ़ेद कॉलर वाले और नीले कॉलर वाले. लेकिन हमारे राजमार्गों पर इन दिनों जो दु:खद, स्तब्ध कर देने वाला सिलसिला चल रहा है उसने हमारे कामगार तबके के एक तीसरे वर्ग के वज़ूद को सामने ला दिया है. इनकी कमीज के कॉलर का कोई रंग नहीं है, इन्हें आप गमछाधारी या अंग्रेजी में ‘कॉलरलेस’ कामगार कह सकते हैं.

आप पूछेंगे, ‘कॉलरलेस’ क्यों? इसकी वजह है. मैं चाहूंगा कि अपने घरों की ओर लौट रहे इन हजारों लोगों को आप जरा गौर से देखें, जो हमारी जिंदगी को किस तरह सुरक्षित और आसान बनाते रहे हैं. वे जो ट्रकों से ईंट, सीमेंट की बोरियां, लोहा-लक्कड़ उतारते हैं, बन रहीं इमारतों के लिए ईंट-गारा ढोते हैं, हमारे पड़ोस में किसी कोने पर दिनभर खड़े होकर हमारे कपड़ों की इस्तरी करते हैं, हमारे लॉन-बगीचों की देखभाल करते हैं, रिक्शा खींचते हैं, बाल काटते हैं, मोहल्ले के हलवाई के यहां समोसे-जलेबी तलते हैं.

आपने उनमें से कितनों को कमीज पहने देखा होगा? कमीज तो उनके काम में बाधा बनती है. इसलिए अक्सर वे अपनी कमीज उतारकर बनियान या पुरानी टी-शर्ट में ही काम करना पसंद करते हैं.

लेकिन कमीज विहीन उनकी पीठ उनके काम के महत्व को कम नहीं करती. आपका काम उनके बिना चल नहीं सकता. उदाहरण के लिए नाई के बिना प्रधानमंत्री जी की मूंछ भी ज्यादा बढ़ी हुई नज़र आती है. उनकी पुरानी तस्वीरों से मिलान कर लीजिए. हम सब अपने ‘प्रेस वाले’, माली, रद्दी वाले, यहां तक कि कचरा बीनने वाले तक की कमी महसूस कर रहे हैं.

कामगारों का यह तीसरा वर्ग, जो अब तक हमारी नज़रों और ख्यालों से ओझल था, ‘कॉलर वाले’ कामगारों के दो वर्गों से कहीं ज्यादा बड़ा है. ये कामगार हमारी जिंदगी में इतने घुले-मिले हैं कि हमें उनका ख्याल ही नहीं आता, हम उन्हें महत्व नहीं देते क्योंकि वे खामोश रहे हैं. लेकिन अब वे मुखर हो रहे हैं और अपनी अहमियत जता रहे हैं.

वे अपने बच्चों को साथ लेकर पैदल चल रहे हैं. आगरा में पैदल जाते एक परिवार के बच्चे को तो सूटकेस से झूलते हुए देखा गया, हालांकि किसी कंपनी ने सूटकेस में शायद ही ऐसे पहिये बनाए होंगे जो 500 किलोमीटर तक चल सकें. कुछ लोग अपने बूढ़े माता-पिता को कंधे पर उठाए चल रहे हैं. आखिर, भारतीय अर्थव्यवस्था की इस कॉलर विहीन रीढ़ की हड्डी ने जिंदगी भर के शारीरिक श्रम से अपने कंधों को इतना तो मजबूत कर ही लिया है!

कुछ महिलाएं पैदल सफर के दौरान बच्चों को भी जन्म दे रही हैं. इस सफर में कई तो अपनी जान भी गंवा रहे हैं. कोई ट्रक या ट्रेन उन्हें कुचल रही है, तो कुछ लोग बीमार होकर मर रहे हैं. मसलन, 68 वर्षीय राम कृपाल के बारे में ‘दिप्रिंट’ की ज्योति यादव और बिस्मी टस्कीन की रिपोर्ट पढ़िए कि किस तरह उन्होंने उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर में अपने घर तक पहुंचने के लिए मुंबई से चार दिनों तक एक ट्रक में 1600 किमी की यात्रा की मगर घर के करीब पहुंचकर दम तोड़ दिया. प्यासे, थके-मांदे राम कृपाल और ज्यादा बर्दाश्त न कर पाए. मौत के बाद जांच में पाया गया कि वे कोरोनावायरस से संक्रमित थे.

अच्छी बात यह है कि इस गुमनाम कामगार तबके की पहचान के बाद हम सब उसकी मदद करना चाह रहे हैं. लेकिन बुरी बात यह है कि हम अभी भी गलत रास्ते पर हैं. दरअसल, हम अभी भी यह नहीं समझ पा रहे कि वे कौन हैं. या वे लाखों लोग कौन हैं, इसकी पहचान करने के लिए आइए हम एक क्विज़ करें.


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जाहिर है कि हम कहेंगे कि वे गरीब हैं, वे भूखे हैं, बेघर-बेरोज़गार हैं, उनके पास आमदनी का कोई ज़रिया नहीं है, उनके पैरों में जूते नहीं हैं, उनके पांवों में फफोले पड़े हैं, वे बेज़ार हैं. किस्मत के मारे! अज्ञानता और हताशा में वे घरों की ओर भाग रहे हैं. काश वे समझ पाते कि शहर में वे शायद ज्यादा सुरक्षित रहते, आदि-आदि.

हमारा यह सारा सोचना गलत है. इसकी वजह यह है कि हम उन्हें समझ ही नहीं पा रहे हैं और हम उनके लिए जो समाधान दे रहे हैं वे तो और भी बुरे हैं— चाहे वे खाने के पैकेट हों या पुराने कपड़े हों, या ट्विटर-फेसबुक-इंस्टाग्राम पर उनके लिए अफसोस जताना या आहें भरना हो या लगातार जारी पलायन पर ‘मेरा तो दिल टूट गया’ या ‘…बुरा हो इस मरदूद कोरोनावायरस का!’ जैसे बयान देना. ये सब आपके ढोंग को ही उजागर करते हैं. अगर आपने कभी रुककर इन कामगारों से यह पूछा होता कि वे आपके शहर में क्या कर रहे हैं, कैसे गुजारा कर रहे हैं तब आपको समझ में आ जाता कि आप कितने गलत हैं. माल उतारने-चढ़ाने जैसा शारीरिक श्रम करने वाला मजदूर रोज 500 से लेकर 1000 रुपये तक कमाता है. बेशक वह केवल आठ घंटे काम नहीं करता, लेकिन वह इसके लिए शहर में नहीं आया था.

यह वह तबका है जिसे हम ‘अकुशल कामगार’ कहते हैं. थोड़ी हुनर वाले— दर्जी, नाई, बधाई, आदि— ज्यादा कमाई करते हैं. वे दरिद्र, भूखे, बेसहारा नहीं हैं. किस्मत से वे तीन जून का खाना जुटा लेते हैं. इन सबने अपना गांव इसलिए नहीं छोड़ा कि वे वहां भूखों मर रहे थे, वे तो बेहतर जिंदगी की तलाश में शहर आए थे.

देश के अंदर, गांव से शहर और कस्बे से महानगर की ओर पलायन वैसी ही महत्वाकांक्षा का नतीजा है जैसी किसी इंजीनियर को एच-1बी वीसा की होती है या उस ग्रीन कार्ड की मृगतृष्णा, जिसे दक्षिण भारत के विवाह बाज़ार में ‘जीसी’ के नाम से पुकारा जाता है. विवाह के विज्ञापन में यह शब्दों की बचत भी कराता है और पैसों की भी. हमारे मध्यवर्गीय बेटे-बेटियों और भावी बहू-दामादों के लिए ‘जीसी’ का जो महत्व है वही महत्व बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, झारखंड या पश्चिम बंगाल के सीमांत, गरीब किसान के बच्चे के लिए 600 रुपये प्रति पाली की आमदनी कराने वाली मजदूरी का है. वे भूख, अभाव, गरीबी से भागने के लिए शहर नहीं आते.

उनसे रहम खाते हुए नहीं, धीरज से पूछिए कि वे शहर क्यों आए, यहां जो कमाया उस पैसे का क्या किया? उनसे आपको कुछ इस तरह के जवाब मिल सकते हैं— मैं अपने परिवार, अपने बच्चों, खुद को बेहतर जिंदगी देना चाहता हूं, हर दिन कुछ पैसे बचाकर घर भेजना चाहता हूं ताकि मेरे बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ सकें. घर लौट रहे इन लाखों लोगों में कोई भिखारी नहीं दिखेगा. वे उस आशावादी भारतीय कामगार तबके के लोग हैं जिनके स्वाभिमान और आत्मविश्वास को भारी झटका लगा है. भारत के सबसे मेहनतकश लाखों लोगों का इतना बड़ा सामूहिक अपमान शायद ही पहले कभी हुआ होगा.

वे हमारी फलती-फूलती अर्थव्यवस्था के निर्माता हैं, वे ‘सरप्लस’ पैदा करते हैं, वे हमारी सामूहिक प्रतिभा में दिन-ब-दिन हो रहे सुधार में योगदान दे रहे हैं और ऐसा वे उस सपने की खातिर अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की कोशिश करके कर रहे हैं, जो सपना हरेक प्रगतिशील राष्ट्र तथा समाज देखता है. वह सपना है— मेरे बच्चों का जीवन मेरे जीवन से बेहतर हो. हमारे बच्चे जिस देश का ‘जीसी’ हासिल करने का सपना देखते हैं उस देश में इसे ‘अमेरिकन ड्रीम’ कहा जाता है.


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नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार चोट पहुंचा रही है. उन्हें पता है कि उन्होंने इस संकट से निपटने में गड़बड़ी कर दी है. देश के हर कोने, खासकर हिंदी पट्टी से, जहां उनके मतदाता बसते हैं, से उनके सामने तस्वीरें और आवाजें आ रही हैं.

सरकार की यह समझ भी गलत साबित हुई है कि उन्हें अपने बैंक खाते में थोड़े पैसे जमा करवा देना ही उन्हें फौरन राहत दे देगा. वे यह नहीं समझ पाए कि अचानक, सदमे में डालने वाला लॉकडाउन इन लाखों लोगों के भविष्य का हिसाब रखने में विफल रहा कि उनका जीवन पूरी तरह तबाह हो गया. लुटिएंस की दिल्ली की नौकरशाही ने इस लॉकडाउन का खेल जिस तरह खेला उसकी खामियों का सबसे बड़ा खामियाजा इस ‘कॉलर विहीन’ कामगार तबके को ही भुगतना पड़ा.

यह सब कितना गलत हुआ है, यह जानने के लिए अपने अपार्टमेंट या कॉलोनी के फाटक पर ताला लगाकर खड़े होने वाले सिक्योरिटी गार्ड से बात करना काफी होगा, जो भारत में मध्यवर्ग के लिए किम जोंग-उन के अवतार बने ‘रेजीडेंट्स वेलफ़ेयर एसोसियशन’ (आरडब्लूए) के हुक्म पर ‘अवांछित’ लोगों को अंदर आने से रोकते हैं. इन गार्डों से आप पूछिए कि क्या उन्हें अपने परिवार की चिंता नहीं है? क्या उन्हें वायरस से डर नहीं लगता? क्या वे गरीब नहीं हैं?

लेकिन सब कुछ के बावजूद वे डटे हुए हैं, क्योंकि उन्हें वेतन मिलने का भरोसा है और वे जानते हैं कि वे अपने परिवार का जीवन स्तर सुधारने के लिए शहर आए हैं. वे सब-के-सब दो-दो पालियों में काम करते हैं, बारह-बारह की संख्या में वे एक कमरे में रहते हैं और पैसे की बचत करके घर भेजते हैं. फर्क इतना है कि उनके मालिकों ने उन्हें नौकरी से नहीं निकाला है. बाकी सबके साथ भी कुछ सप्ताह के लिए ऐसा ही होता तो करोड़ों भारतीयों को यह पीड़ा नहीं झेलनी पड़ती और भारत को दुनियाभर में शर्मसार न होना पड़ता.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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