न्यायपालिका, विशेषकर उच्चतर न्यायपालिका, की स्वतंत्र और निष्पक्षता वाली छवि पर हाल के वर्षों में बार-बार उंगलियां उठाई गयी हैं. इसकी एक वजह उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कुछ न्यायाधीशों की उनके कार्यकाल के दौरान और कुछ न्यायाधीशों की सेवानिवृत्त होते ही की गयी नियुक्तियां हैं. न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होते ही उन्हें नयी जिम्मेदारियां सौंपे जाने की वजह से ऐसे न्यायाधीशों के कतिपय महत्वपूर्ण फैसलों पर भी टिप्पणियां की जा रही हैं.
अगर हम वास्तव में न्यायपालिका की निष्पक्ष और स्वतंत्र छवि के प्रति गंभीर हैं तो यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि किसी भी न्यायाधीश को अवकाश ग्रहण करने के बाद कम से कम दो साल तक किसी भी प्रकार की नयी जिम्मेदारी नहीं सौंपी जाये. इस तरह का कदम उठाकर जहां न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद संभावित प्रलोभनों के आकर्षण से बचाया जा सकता है वहीं ऐसे न्यायाधीशों के फैसलों को लेकर होने वाली टिप्पणियों पर भी अंकुश पाया जा सकेगा.
चूंकि, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में कार्यपालिका आमतौर पर प्रधान न्ययाधीश से परामर्श करती है, इसलिए प्रधान न्यायाधीश की भी इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीशों को कम से कम दो साल तक किसी भी नयी जिम्मेदारी से परे रखने के लिये न्यायपालिका को ही पहल करनी होगी.
देश के प्रधान न्यायाधीश चाहें तो न्यायाधीशों के अवकाश ग्रहण करने के चंद महीनों के भीतर ही नयी जिम्मेदारी सौंपने की परपंरा पर अंकुश लगा सकते हैं. न्यायपालिका इसके लिये कार्यपालिका को स्पष्ट निर्देश दे सकती है और अगर इस पर अमल नहीं होता है तो उच्चतम न्यायालय को संविधान में प्रदत्त अपने विशेष अधिकार का इस्तेमाल करके इस संबंध में अपनी न्यायिक व्यवस्था देनी चाहिए.
भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों के बारे मे यह व्यवस्था है कि वे अवकाशग्रहण करने की तारीख से कम से कम दो साल तक कोई नयी जिम्मेदारी नहीं ले सकते. उच्चतर न्यायपालिका के सदस्यों के बारे में भी ऐसी ही व्यवस्था की जानी चाहिए.
डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान 2012 में भारतीय जनता पार्टी ने संसद में जोर शोर से कहा था कि अवकाशग्रहण करने वाले न्यायाधीशों को कम से कम दो साल तक कोई जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए. लेकिन 2014 में जब भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बनी तो उसने भी इस आदर्श स्थिति के बारे में चुप्पी लगाना बेहतर समझा.
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सत्ता में आने के बाद इस विषय पर भाजपा नेताओं की खामोशी से यही संकेत मिलता है कि सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सत्तासीन होने वाले राजनीतक दलों और गठबंधनों का रवैया एक जैसा ही रहता है.
नतीजा यह हुआ कि राजग सरकार के कार्यकाल में पूर्व प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम केरल के राज्यपाल बने और उन्हें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने पद की शपथ दिलायी. इसी तरह, शीर्ष अदालत के नयायाधीश न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल को सेवानिवृत्त होने से पहले ही राष्ट्रीय हरित अधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया. यही नहीं, न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल को अवकाश ग्रहण करते ही राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निपटान आयोग की कमान सौंप दी गयी थी. रही सही कसर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के सेवानिवृत्त होने के बाद राज्य सभा में मनोनयन ने पूरी कर दी.
इसी कड़ी में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुनील गौड़ का नाम भी आता है जिन्हें अवकाशग्रहण करते ही धन शोधन रोकथाम अपीलीय अधिकरण के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया तो सवाल उठा कि उन्हें किन कामों के लिये उपकृत किया गया. इसके बाद जहन में पहला जवाब यही आता है कि उन्होंने पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम की अग्रिम जमानत रद्द की थी और बाद में नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ओर उनके सांसद पुत्र राहुल गांधी तथा पार्टी के अन्य नेताओं पर मुकदमा चलाने की अनुमति दी थी.
वैसे न्यायाधीशों के अवकाश ग्रहण करते ही उन्हें किसी अधिकरण या दूसरे शासकीय कार्यों की जिम्मेदारी सौंपने की प्रवृत्ति नई नहीं है. न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल से पहले उनके पूर्ववर्ती अध्यक्ष न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की नियुक्ति भी कुछ इसी तरह से राष्ट्रीय हरित अधिकरण के अध्यक्ष पद पर हुयी थी. नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रखर आलोचक न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू की भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति भी इसी कड़ी का हिस्सा थी.
उच्चतम न्यायालय से हाल ही में सेवानिवृत्त हुये न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने इस बार यह मुद्दा काफी प्रमुखता से उठाया है. अवकाश प्राप्त करने वाले न्यायाधीशों को दो-तीन साल तक कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपने के बारे में न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की राय में काफी वजन है क्योंकि न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होते ही या अवकाश ग्रहण करने से पहले ही किसी अन्य अधिकरण में अध्यक्ष पद अथवा दूसरे पदों पर नियुक्तियां लंबे समय से विवाद का विषय बनी हुयी हैं. न्यायाधीशों के कार्यकाल के अंतिम चरण अथवा सेवानिवृत्त होते ही किसी न किसी पद पर उनकी नियुक्तियों को उनके फैसलों से जोड़ने में भी अब लोग संकोच नहीं करते हैं.
न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होने के बाद कम से कम दो-तीन साल तक उन्हें कोई शासकीय या अर्द्ध न्यायिक जिम्मेदारी नहीं सौंप कर कार्यपालिका भी कई तरह के विवादों से बच सकती है और उसे ऐसा करना चाहिए. लेकिन यह समझ से परे है कि आखिर कोई भी सरकार न्यायाधीशों के अवकाशग्रहण करने के बाद दो-तीन साल तक उन्हें नयी जिम्मेदारी नहीं सौंपने का फैसला लेने का साहस क्यों नहीं दिखा पा रही है.
देश में पहले से ही पूर्व प्रधान न्यायाधीशों के अलावा बड़ी संख्या में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीश उपलब्ध हैं. इनमें से ही प्रधान न्यायाधीश से परामर्श करके विभिन्न अधिकरणों या दूसरी जिम्मेदारियों के लिये उनका चयन किया जा सकता है.
यह पहला मौका नहीं है जब उच्चतम न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने इस मुद्दे पर अपनी बेबाक राय रखी है. न्यायपालिका के कामकाज को लेकर जनवरी, 2018 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ आवाज उठाने वाले न्यायाधीशों में शामिल न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर ने नवंबर, 2018 में अवकाशग्रहण करते समय कहा था कि वह अब कोई नयी जिम्मेदारी लेने के पक्ष में नहीं हैं. एक अन्य पूर्व न्यायाधीश वी गोपाल गौडा का कहना था कि अवकाशग्रहण करने के बाद न्यायाधीशों द्वारा दूसरे पद स्वीकार करने की परंपरा से वह असहमत हैं.
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यही नहीं, सितंबर, 2014 में देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढा ने भी कहा था कि न्यायाधीशों को पद से हटने के बाद कम से कम दो साल तक कोई नयी जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए. न्यायमूर्ति लोढा ने न्यायाधीशों को नयी जिम्मेदारियों के प्रलोभन से बचाने के इरादे से ऐसी व्यवस्था बनाने का सुझाव दिया था जिसके अंतर्गत उनके अवकाश ग्रहण करने से तीन महीने पहले ही अन्य भत्तों के बगैर दस साल के लिये पूरा वेतन प्राप्त करने अथवा कानून के अनुसार पेंशन प्राप्त करने का विकल्प दिया जाना चाहिए.
लेकिन न्यायपालिका के इस सुझाव पर भी कार्यपालिका ने ध्यान नहीं दिया और न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होते ही उन्हें नयी जिम्मेदारियां सौंपने का सिलसिला यथावत चला आ रहा है.
यह भी दिलचस्प है कि न्यायमूर्ति लोढा के उत्तराधिकारी न्यायमूर्ति एच एल दत्तू की अध्यक्षता वाली पीठ ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को एक निश्चित अविध तक कोई नयी जिम्मेदारी नहीं देने के निर्देश के लिये दायर एक जनहित याचिका अक्टूबर, 2014 में खारिज कर दी थी.
सेवानिवृत्त होने पर नये पद से नवाजे जाने और इसे स्वीकार करने के मामले में सबसे अधिक आलोचना पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की हुयी जिन्होंने प्रधान न्यायाधीश के रूप में अपने कार्यकाल के अंतिम कुछ महीनों में कई महत्वपूर्ण फैसले सुनाये थे.
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने भी कुछ अन्य पूर्व प्रधान न्यायाधीशों और न्यायाधीशों के इस विचार को दोहराया है कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीश को दो-तीन साल के बाद ही कोई नियुक्ति स्वीकार करनी चाहिए. हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया, ‘मैं सेवानिवृत्ति के बाद दो-तीन साल बाद भी इस तरह की कोई जिम्मेदारी लेने के पक्ष में नहीं हूं.’
न्यायमूर्ति गुप्ता स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक राजनीतिक दल, जो भी सत्ता में हो, न्यायपालिका को अपने नियंत्रण में करने का प्रयास करता है लेकिन स्वतंत्र बने रहना तो न्यायाधीशों का काम है. कोई भी व्यक्ति, जो ताकतवर होता है, निश्चित ही न्यायपालिका को प्रभावित करने का प्रयास करता है.
न्यायमूर्ति गुप्ता की इस स्वीकारोक्ति की अगर मीमांसा की जाये तो किसी भी न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होते ही उसे कोई नयी जिम्मेदारी सौंपे जाने के सरकार के निर्णय को संबंधित न्यायाधीश के हालिया या कुछ महत्वपूर्ण फैसलों के साथ जोड़ने से खुद को रोक नहीं पायेगा.
न्यायपालिका को अगर अपनी और अपने सदस्य न्यायाधीशों की निष्पक्षता की छवि को बचाना है तो इसके लिये सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि सेवानिवृत्ति के बाद कम से कम दो साल तक उन्हें कोई नयी जिम्मेदारी नहीं सौंपी जाये. कार्यपालिका भले ही इसके लिये पहल करने में आनाकानी करे लेकिन न्यायपालिका को दृढ़ता के साथ कार्यपालिका के ऐसे किसी भी प्रयास का प्रतिरोध करना होगा. अन्यथा सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति होने पर उनके फैसलों और आचरण पर सवाल उठाने की प्रवृत्ति पर रोक लगा पाना नामुमकिन तो नहीं मुश्किल जरूर होगा.