रामपुर: उत्तरप्रदेश के रामपुर जिले के रेलवे स्टेशन से महज़ दो किलोमीटर दूर, हाइवे से बिलकुल सटे आगापुर, मंसूरपुर और अजीतपुर गांव एकसाथ बसे हैं. कोरोनावायरस के प्रकोप से देशभर के अन्य गांवों की तरह इन गांवों के किसान भी इसके शिकार हुए हैं. रबी के इस सीजन में अपनी फसलों के उचित दामों के लिए किसानों को परेशान होना पड़ रहा है. किसानों की आर्थिक स्थिति अच्छी फसल के बाद भी डांवाडोल ही बनी हुई है.
पिछले 40 दिनों से देश में लगे लॉकडाउन की वजह से जहां पूरा देश लगभग पूरा ठप है वहीं किसानों को फसल काटने के लिए मजदूर नहीं मिल रहे हैं वहीं सोशल डिस्टैंसिंग और कोरोना के खौफ ने भी इनके हाल को बुरा कर दिया है.
एक किसान रूस्तम हुसैन दिप्रिंट को बताते हैं, ‘हममें से बहुतों को इस बार अपनी फसल को कम दामों पर बेचना पड़ा है. ऐसे में किसान परिवारों की मुश्किल बढ़ ही जाती हैं. और नुकसान उठाने के अलावा कोई चारा भी नजर नहीं आता है. अब किसो को पता भी नहीं है कि ये सब कब तक चलेगा और इस बात की भी आशंका बनी हुई है कि अगली फसल हमारा पेट पाल सकेगी या नहीं. ये अनिश्चितता परेशान करने वाली है. कई किसानों को तो फसल घर में रखनी पड़ी है.’
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वो आगे कहते हैं, ‘सरकार तो कह रही थी कि हम हर घर से दाना खरीद लेंगे. सरकारी एमएसपी के हिसाब से 1925 रुपए प्रति क्विंटल गेहूं की फसल खरीदी जानी थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. आखिरकार किसानों को 1720 रुपए प्रति क्विंटल गेहूं बेचना पड़ा.’
इन गांवों के किसान कोरोनावायरस की तीव्रता के बारे में शायद ही जानते हों. लेकिन अब उन्हें अपनी अगली फसल की चिंता सता रही है. भंडारण किए अनाज को बेचने से ज्यादा अब अगली फसल की बुआई के बारे में सोच रहे हैं. लेकिन देशव्यापी लॉकडाउन के एग्जिट प्लान के बारे में अभी भी संशय बना हुआ है. पहले ही मजदूरों की कमी के कारण उनकी फसलों की कटाई लेट से शुरू हुई.
एक तरफ आगापुर और मंसूरपुर मुस्लिम बाहुल्य गांव हैं वहीं तरफ अजीतपुर में लगभग 60 फीसदी हिंदू रहते हैं. हालांकि हालात तीनों में एक जैसे हैं.
गांवों की गलियों में पहुंची निराशा, बढ़ी उधारी
देशव्यापी लॉकडाउन ने इन गांवों की तंग गलियों को संकट और निराशा के क्षेत्र में बदल दिया है. कई परिवारों के लोग अब अपने घरों के बाहर खड़े नजर आ रहे हैं तो कई लोग खाली गलियों में घूमते हुए सोचते हैं कि ये सब कब खत्म होगा और जीवन पहले की तरह सामान्य होगा.
स्कूल बंद हैं और गांवों के बच्चे शहरी बच्चों की तरह ऑनलाइन क्लासों का फायदा भी नहीं उठा पा रहे हैं. इसलिए वो अपना समय घर के बरामदों में बैठकर काटने को मजबूर हैं. आपस में लड़ाइयां कर वो अपने परिवार वालों की डांट भी खाते हैं.
नूर मोहम्मद 60 वर्षीय के हैं उनके परिवार में आठ सदस्य हैं. वो कहते हैं, ‘मुझे तो कुछ समझ नहीं आता है. अब तो फसल कट चुकी है. खेतों में जाकर क्या करेंगे. बुआई के समय में देखेंगे कि कैसे होता है काम.’
4 बच्चों की मां (40 वर्षीय) फैज़ाना रमज़ान के महीने में दिनभर कुरान पढ़ती रहती हैं और सोचती हैं कि अल्लाह सब सही कर देगा और परिवार की गरीबी दूर होगी. ‘लॉकडाउन के चलते मेरे पति कई दिनों से मजदूरी नहीं कर पा रहे हैं.’
फैजाना आगे जोड़ती हैं, ‘रमज़ान का महीना चल रहा है. हमें जो थोड़ा बहुत खाने को मिल पाता है उसी से इफ्तारी कर लेते हैं. पैसे हैं नहीं तो दूध नहीं खरीद पाते. गांव में दूध 50 रुपए लीटर मिल रहा है.’
कोविड-19 के कहर से ना सिर्फ किसान और मजदूर प्रभावित हुए हैं बल्कि दूध बेचने वाले पशुपालक और स्थानीय दुकानदार भी इसके कहर से बच नहीं सके हैं.
घर में 2 भैंसें पालने वाली नन्हीं नाम की पशुपालक महिला दिप्रिंट को बताती हैं, ‘ऐसे समय में सबको ही दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. अगर कोई पहले दो लीटर दूध खरीदता था तो उसने एक लीटर खरीदना शुरू कर दिया है. लोगों ने दूध पीना भी कम कर दिया है.’
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मंसूरपुर गांव की तंग गलियों में बनी अमीर अहमद की किराना दुकान पर एक दो बच्चे कुछ खरीद रहे हैं. हमसे बात करते हुए वो कहते हैं, ‘मैं बारह साल से ये दुकान चला रहा हूं. पहले भी लोग उधारी करते थे लेकिन अब इस दौरान उधारी बढ़ गई है. मैं मना भी नहीं कर सकता. कुछ लोगों के खातों में पहले से ही 4 हजार से लेकर 5 हजार तक की उधार बाकी है. लेकिन अब काम नहीं है तो मैं भी उधार देने से मना तो नहीं कर सकता.’
पुलिस की ज्यादतियां और प्रवासी मजदूर
भले ही इन किसानों और छोटे व्यवसायियों की खुद की जिंदगी तंग हाल हो गई है लेकिन फिर भी वो हर रोज उनके गांवों से होकर गुजर रहे मजदूरों की मदद करने से नहीं कतराते हैं. तपते हाइवे के बगल में खड़े खेतों में ये मजदूर कई बार आराम करने तो कई बार पुलिस की जिप्सियों से बचने के लिए सुस्ता लेते हैं.
इन मज़दूरों को राशन और पानी पिलाने आए एक किसान ने सरकारों की संवेदनहीनता पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘सरकार इन मज़दूरों को इनके हाल पर कैसे छोड़ सकती है? हम इनके दुख को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. इसलिए हमसे जो बन रहा है वो हम कर रहे हैं.’
वो आगे कहते हैं, ‘यहां से हर रोज 500-1000 प्रवासी मजदूर जाते हैं.’
आठ दिहाड़ी मजदूरों का एक ग्रुप हरियाणा के जींद से आठ दिनों से पैदल चलते हुए आया.वे गोरखपुर में अपने पैतृक गांव लौट रहे हैं.
अरविंद नाम के दिहाड़ी मजदूर बताते हैं, ‘हम लोग आठ दिन से चल रहे हैं. हम में से कइयों को पुलिस ने पकड़ लिया था.’ उन्होंने पुलिस द्वारा की जा रही ज्यादतियों को लेकर भी शिकायत की. पास ही बैठे धर्मराज जोड़ते हैं, ‘ जिस बैग में हमने रास्ते के लिए सामान रखा था पुलिस ने इतना तंग किया कि हम हरियाणा में ही फेंक आए.’
ये ग्रुप बिना किसी सामान के पैदल जल्दी घर पहुंचने की आस में बस चला जा रहा था, इसकी आशाएं अंजान व्यक्तियों की दया पर आश्रित थीं कि शायद कोई इन्हें पानी या खाना दे सके.
इस ग्रुप के रामू दिप्रिंट को बताते हैं, ‘अगर पुलिस कोई रोड़ा नहीं अटकाती है तो हम दो से तीन दिन में पहुंच जाएंगे लेकिन ऐसे ही छुपते छुपाते जांएगे तो छह दिन लग जाएंगे. बस औलाद को देखने का मन कर रहा है.’
इन आठों मजदूरों को कोरोना बीमारी के बारे में या सोशल दूरी बनाए रखने के बारे में नहीं पता था. कइयों के पास मोबाइल फोन तक नहीं थे. रामपुर के डीएम ऑफिस ने दिप्रिंट को बताया है कि अब तक जिले में कोरोना के 9 पॉजिटिव केस हैं. पहले इनकी संख्या 24 थी जिसमें से करीब 15 ठीक होकर अपने घर जा चुके हैं.