हंदवाड़ा के चांजीमुल्लाह गांव में हुई मुठभेड़ के समय और परिस्थितियों को लेकर परस्पर विरोधी बातें सामने आ रही हैं. मेरे विचार में ये अहम नहीं है. सेना इससे सीख लेने के लिए गहराई से इसका विश्लेषण करेगी, क्योंकि कमांडिंग ऑफिसर एक्शन में हर रोज़ नहीं मारे जाते. पिछली बार जब कोई कमांडिंग ऑफिसर एक्शन के दौरान मारा गया, तो वो नवम्बर 2015 में, 41 राष्ट्रीय राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर, कर्नल संतोष महादिक थे.
हंदवाड़ा मुठभेड़ में, कर्नल आषुतोश शर्मा, मेजर अनुज सूद, नायक राजेश कुमार, लांस नायक दिनेश सिंह और जम्मू कश्मीर के पुलिस सब-इंस्पेक्टर शकील क़ाज़ी, एक्शन के दौरान मारे गए, जब वो दो आंतकवादियों को मारने गए थे, जिन्होंने एक घर में घुसकर कुछ नागरिकों को बंधक बना लिया था.
कमांडिंग ऑफिसर्स सेना की रीढ़ होते हैं. लड़ाई के दौरान उनका मुख्य काम होता है उनकी पहली जिम्मेदारी अपनी यूनिट्स को प्रशिक्षित और प्रशासित करना, आदेश/दिशा-निर्देश जारी करना और युद्ध में नियंत्रण और कमांड काम करना. ये उनकी नेतृत्व क्षमता का ही सबूत है कि जब जब लड़ाई में ज़रूरत पड़ी, हमारे कमांडिंग ऑफिसर्स मोर्चे पर अगुवाई करते हुए लड़ाई में शामिल हुए हैं, ताकि अपनी जान देकर भी मिशन को पूरा कर सकें.
लेकिन ज़्यादा अहम ये है कि सरकार और सेना जम्मू कश्मीर के हालात से निपटने की राजनीतिक और सैनिक रणनीति की समीक्षा करें. ये मुठभेड़ और और इसके बाद 4 मई को तीन सीआरपीएफ कर्मियों की मौत, एक ऐसी चिंताजनक प्रवृति का हिस्सा है, जो पिछले कुछ महीनों से महसूस की जा रही है.
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पाकिस्तान ने आंतरिक उपद्रव को बढ़ाया
अफगानिस्तान में मिली सफलता से उत्साहित होकर, जहां केवल ये तय होना है कि तालिबान की किस अवतार में सत्ता वापसी होगी- पाकिस्तान ने अपनी दीर्घकालीन रणनीति पर चलते हुए, उस सामरिक विराम को ख़त्म कर दिया है, जो उसने बालाकोट हवाई हमले, और धारा 370 के हल्का किए जाने के बाद लगाया था. उसने फिर नए जोश के साथ आतंकी गतिविधियां शुरू कर दी हैं. उसने घाटी के लोगों के संपूर्ण अलगाव, किसी भी तरह की राजनीतिक पहल या आर्थिक गतिविधि न होने, और ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को ट्रेनिंग लेकर आतंकियों की जमात में शामिल होने से रोकने के लिए, कड़ी पाबंदियां जारी रखने से बने माहौल का फायदा उठाया है. साथ ही वो आतंकी संस्थाओं से बेहतर ट्रेनिंग दिए गए पाकिस्तानी कैडर को घाटी में उतार रहा है.
‘दि रेज़िस्टेंस फ्रंट’ के नाम से एक नया संगठन बनाया गया है, जिसका मक़सद लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन की हरकतों पर नज़र रखना है, फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) को चकमा देना है. लक्ष्य ये है कि छद्म युद्ध में एक देसी तड़का लगाया जाए. संभावना है कि इस संगठन का इस्तेमाल, तमाम आतंकी गतिविधियों का ज़िम्मा लेने के लिए किया जाएगा, और उधर उनके आक़ा संगठन छिपे रहकर कैडर को प्रशिक्षित और नियंत्रित करते रहेंगे.
हमारी ख़ुफिया एजेंसियां इस पर प्रकाश डालती रही हैं, कि पारंपरिक लॉन्च पैड्स को सक्रिय कर दिया गया है, और बड़ी संख्या में आतंकवादी, या तो घाटी में घुस आए हैं, या घुसने की फ़िराक़ में हैं.
पाकिस्तान का दीर्घकालीन लक्ष्य, अपने आज़माए हुए अफगानिस्तान फॉर्मूले को इस्तेमाल करके, भारत के इरादों को कमज़ोर करना है, जबकि इसका तात्कालिक लक्ष्य इस स्थिति का फायदा उठाना है, कि भारत और पूरी दुनिया कोविड-19 से लड़ने में व्यस्त हैं. पाकिस्तान भारत की ‘कड़ी’ रणनीति का ग़ुब्बारा फोड़ते हुए, जम्मू कश्मीर के लोगों के मन में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहता है.
आतंकी निशाने पर सुरक्षा बल
आतंकवादी बेहतर तौर पर प्रशिक्षित हैं और हथियार की साज-सज्जा से. 2012 के बाद से पहली बार ऐसा हुआ है कि, आतंकवादी सुरक्षा बलों के साथ सीधे जुड़ाव के रास्ते तलाश रहे हैं. और मरने वाले सुरक्षाकर्मियों और आतंकवादियों का बिगड़ता अनुपात चिंता में डाल रहा है.
एक अप्रैल से 4 मई के बीच, 32 आतंकी ढेर किए जा चुके हैं. अप्रैल में 10 सुरक्षा कर्मी मारे गए, जबकि मई के पहले चार दिन में, एक्शन के दौरान आठ सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं, और उनकी कुल संख्या 18 पहुंच गई है. पहली बार ये अनुपात चिंताजनक रूप से घटकर 1:1.8 पर आ गया है. इससे भी ज़्यादा चिंता की बात ये है, कि 4 अप्रैल को केरन में हुई मुठभेड़ में ये अनुपात 1:1 था, जिसमें स्पेशल फोर्सेज़ के 5 सुरक्षाकर्मी, और 5 आतंकवादी मारे गए. 2 मई की रात हुई मुठभेड़ में ये अनुपात 2:5 से आंतकवादियों के पक्ष में रहा. और 4 मई को सीआरपीएफ के साथ हुई मुठभेड़ में हमने अपने तीन जवान खो दिए, जबकि आतंकवादी साफ बचकर निकल गए.
आतंकी हिंसा बढ़ने से ये भी लगता है कि घुसपैठ में भी इज़ाफ़ा हुआ है. नियंत्रण रेखा के नज़दीक, और उत्तरी कश्मीर के ‘टेररिस्ट कैचमेंट’ इलाक़ों में हुई मुठभेड़ों की संख्या से ये बात साबित होती है.
सभी संकेत इसी ओर इशारा करते हैं, कि 2020 की गर्मियां हिंसा से भरी हो सकती हैं.
भारत की रणनीतिक सीमाएं
पाकिस्तान के छद्म युद्ध के खिलाफ भारत के रणनीतिक जवाब में, बयानबाज़ी का पुट ही ज़्यादा लगता है. भारतीय जनता पार्टी की ‘कड़ी’ रणनीति के झूठ की पोल खुल चुकी है. परमाणु बम किसी भी निर्णायक युद्ध के विकल्प को ख़ारिज कर देते हैं, जिसमें अपने संख्या बल से हम भारी पड़ सकते हैं. इस सीमा से नीचे, टेक्नॉलॉजी के लिहाज़ से हमारी सैनिक शक्ति उतनी ज़बर्दस्त नहीं है, कि हम अपनी इच्छा को थोप सकें, जैसा कि सर्जिकल हमलों और एलओसी पर समय-समय पर की गई गोलीबारी के बेअसर होने से साबित हो चुका है. अगर हम कोई छिपी हुई रणनीति अपना रहे हैं, तो पाकिस्तान उससे भलि-भांति निपट चुका है.
अफगानिस्तान में अमेरिका की पाकिस्तान पर निर्भरता, पाकिस्तान का चीन से गठजोड़ और इस्लामी राष्ट्रों से धार्मिक जुड़ाव, और उस पर हमारी घरेलू साम्प्रदायिक बयानबाज़ी, सबने मिलकर हमारी कूटनीतिक सीमाओं की पोल खो दी है.
आंतरिक तौर पर, राजनीतिक गतिविधियां ठहरी हुई हैं, और अलगाव महसूस कर रहे लोगों के दिल और दिमाग़ को जीतने में, हमने कोई कामयाबी नहीं पाई है. इस समय कोई भी इस नतीजे पर पहुंच सकता है, कि सरकार ने अपने हाथ झाड़ लिए हैं, और सेना को स्थिति पर नियंत्रण रखने के लिए छोड़ दिया है, जैसा कि वो पिछले तीन दशकों से करती आई है.
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सरकार के लिए समझदारी इसी में है, कि कोरी वैचारिक कल्पनाओं को त्यागते हुए, वास्तविकता का सामना करे. उसे अपनी ‘कड़ी’ रणनीति को ठंडे बस्ते में डालना होगा, जब तक कि हमारी सेनाएं टेक्नोलॉजी के मामले में विरोधी पर भारी पड़ने की स्थिति में नहीं आ जातीं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी राजनीतिक शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए, अलग पड़ गए कश्मीरी लोगों के दिल और दिमाग़ को जीतना होगा. केंद्र सरकार को कश्मीर में चुनाव कराना चाहिए, और जो दल सत्ता में आता है उसे विकास के एजेंडे पर ध्यान देना चाहिए. अगर ऐसा हो गया, तो पाकिस्तान अप्रासंगिक होकर रह जाएगा.
मेरा सेना से आग्रह है कि वो अपनी पूरी शक्ति के साथ, सरकार को अहसास कराए कि हेमलिन के बच्चों की तरह बर्ताव करने की बजाय, वो अपनी रणनीतिक सीमाओं की समीक्षा करे, और सियासत के लुभाव में सेना द्वारा स्वास्थ्यकर्मियों पर फ्लाईपास्ट करके फूल बरसाने और बैंड बजाने जैसी तमाशेबाज़ी में न पड़े. विडम्बना ये है कि ये तमाशा ठीक उसी समय हो रहा था, जब हमारे जांबाज़ बहादुरों के एक्शन में मारे जाने की ख़बर की, अधिकारिक पुष्टि की जा रही थी.
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(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)