scorecardresearch
Sunday, 30 March, 2025
होममत-विमतज्योतिबा फुले और आंबेडकर के बीच की कड़ी थे शाहूजी महाराज

ज्योतिबा फुले और आंबेडकर के बीच की कड़ी थे शाहूजी महाराज

आरक्षण की अवधारणा छत्रपति शाहूजी महाराज के राज्य कोल्हापुर से ही आई है, जब उन्होंने 26 जुलाई 1902 को अपने एक आदेश से 50 प्रतिशत नौकरियों को पिछड़ी जाति के लोगों के लिए आरक्षित कर दिया था.

Text Size:

कोल्हापुर रियासत के राजा और छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज छत्रपति शाहूजी महाराज का उदय ऐसे समय हुआ, जब सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में ज्योतिबा फुले का नेतृत्व नहीं रहा. शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य की बागडोर 1894 में संभाली थी, जिसके चार वर्ष पूर्व 28 नवंबर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले का परिनिर्वाण हो गया था.

ज्योतिबा फुले के बाद उनके मानवतावादी विचारों को जनमानस में पहुंचाने की ज़िम्मेदारी छत्रपति शाहूजी महाराज ने तब तक उठाई, जब तक कि बाबासाहेब आंबेडकर का भारतीय राजनीति में पदार्पण नहीं हो गया. शाहूजी महाराज ने बाबासाहेब आंबेडकर समेत हर उन राजनेता और समाज सुधारकों की नैतिक और आर्थिक मदद की, जो मानवतावादी आंदोलन को आगे ले जाने का प्रयास कर रहे थे. शाहूजी महाराज भारत में मानवातावादी आंदोलन की नींव के वह ईंट थे, जिनके बिना इस आंदोलन की कल्पना भी मुश्किल है.

बाल गंगाधर तिलक के समानांतर परंपरा

शाहूजी महाराज का उदय उस काल-खंड में होता है, जब स्वदेशी आन्दोलन से जुड़े बाल गंगाधर तिलक जैसे रूढ़ीवादी नेता जातिवादी विचारधारा और परंपरा को बढ़ावा दे रहे थे. तिलक ने डिप्रेस्ड क्लास यानी वंचित जातियों की शासन में प्रतिनिधित्व की मांग का यह कहकर मज़ाक उड़ाया था कि ‘तेली-तमोली-कुनबी विधानसभा में जाकर क्या करेंगे’. ऐसे कठिन समय में शाहूजी महाराज ने मानवातावादी आंदोलन की लौ को बुझने नहीं दिया.

शाहूजी महाराज के समय में ही प्रथम विश्वयुद्ध हुआ, जिसके परिणामस्वरूप अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ‘स्वनिर्णय का सिद्धान्त (self-determination)’ निकलकर आया. स्वनिर्णय के सिद्धान्त को ही उपयोग में लाकर बाबासाहब आंबेडकर ने साउदबरो कमेटी के सामने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन मंडल (सेपरेट इलक्टोरेट) देने की मांग की थी. शाहूजी महाराज की सलाह पर ही आंबेडकर भारत मामलों के मंत्री लॉर्ड मांटेग्यू से मिले और उनसे अछूतों के लिए संवैधानिक अधिकारों की मांग की.

उस मुलाक़ात के दौरान हुई बातचीत का जिक्र बाबासाहेब आंबेडकर 25 नवंबर 1920 को शाहूजी महाराज को लिखे अपने पत्र में करते हैं – ‘मांटेग्यू बहुत ही अच्छे से पेश आए, हम लोगों ने एक घंटे तक ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मणों के बीच की समस्याओं और विवादों पर विचार विमर्श किया. महाराज! गैर-ब्राह्मणों के आंदोलन को लेकर इनको कुछ लोगों ने गुमराह किया हुआ था.’

नेतृत्व का प्रश्न और शाहूजी महाराज

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही ऐसी कोशिश हो रही थी कि तिलक के बाद देश के आंदोलनों की कमान गांधीजी के हाथों में सौंप दी जाए. पूरे देश में उनका भ्रमण आयोजित करके ये काम किया जा रहा था. उनको जबर्दस्त मीडिया कवरेज भी मिल रहा था. लेकिन उस दौरान शाहूजी महाराज पूरे तन-मन-धन से इस कोशिश में लगे रहे कि सामाजिक आंदोलन का नेतृत्व किसी ऐसे कुशल व्यक्ति के नेतृत्व में दिया जाये, जो कि ‘उच्च जाति का ना हो एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाला हो.’


यह भी पढ़ें : असमानता दूर करने के लिए भीमराव आंबेडकर ने क्या उपाय दिए थे


इसके अलावा शाहूजी महाराज के अनुसार, ‘नेता को दूरदृष्टा होना चाहिए. उसके पास भविष्य हेतु विजन होनी चाहिए. जाति का सम्पूर्ण उन्मूलन जरूरी है, जाति का जिंदा रहना पाप है. जाति हम सबकी प्रगति की राह में बाधक है. इसलिए इसको समाप्त करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए.’ नासिक की एक सभा में दिया गया, शाहूजी महाराज का उपरोक्त बयान इस बात की तरफ इशारा करता है कि क्यों उन्होंने 1920 में मानगांव में हुई सभा में यह घोषणा की कि ‘आगे से अब डॉ. आंबेडकर आप लोगों के नेता होंगे.’

ध्यान देने योग्य बात यह है कि छत्रपति शाहूजी महाराज खुद कोल्हापुर राज्य के राजा थे. इसके बावजूद वे अपने वक्तव्यों में लोकतन्त्र का समर्थन कर रहे थे. उनके मुताबिक, लोकतन्त्र केवल शासन प्रणाली तक सीमित ना हो, बल्कि जीवन पद्धति का हिस्सा बने. शाहूजी महाराज जाति और छुआछूत को समाप्त करके समाज की नए सिरे से संरचना की ना सिर्फ सोच रहे थे, बल्कि इसके लिए काम भी कर रहे थे.

डॉ. आंबेडकर को पहुंचाई मदद

आंबेडकर जब लंदन में पढ़ाई कर रहे थे, तो उन्होंने शाहूजी महाराज को पत्र लिखकर सूचित किया कि उनकी माली हालत काफी खराब है. यहां तक कि इंडिया वापस आने तक के लिए पैसे नहीं हैं. इसका जिक्र 4 सितंबर 1921 को बाबासाहब द्वारा शाहूजी महाराज को लिखे पत्र में मिलता है- ‘मैं, मिस्टर दलवी के द्वारा निर्देशित किए जाने पर अपनी वित्तीय मुसीबत आपके सामने इस आशा के साथ रख रहा हूं कि कुछ मदद मिलेगी. मुझे 100 पाउंड कानून की पढ़ाई की फीस के लिए और 100 पाउंड भारत वापस आने के लिए चाहिए. मैं महाराज का बहुत ही ज्यादा आभारी रहूंगा, यदि महाराज लोन के रूप में ही सही 200 डालर की व्यवस्था मेरे लिए कर दें. लंदन से वापस आकार मैं महाराज का यह लोन ब्याज सहित वापस करूंगा.’

ऐसी विकट परिस्थिति में शाहूजी महाराज ने डॉ. आंबेडकर को न केवल लंदन में वित्तीय मदद भिजवाई, बल्कि उनकी पत्नी रमाबाई आंबेडकर की भी वित्तीय मदद की. शाहूजी महाराज 6 सितंबर 1921 को आंबेडकर को जवाबी खत में लिखते हैं- ‘कृपया श्रीमती आंबेडकर को यह सूचित कर दें कि किसी भी तरह की वित्तीय कठिनाई को बिना झिझक मुझे लिखें. मैं उनकी जितनी भी मदद हो सके करूंगा.’


यह भी पढ़ें : राष्ट्रवाद, मॉब लिंचिंग और शरणार्थी समस्या पर कांशीराम के विचार


इसके अलावा बाबासाहेब आंबेडकर ने अपने पहले अखबार ‘मूकनायक’ को चलाने के लिए भी शाहूजी महाराज से समय-समय पर दरख्वास्त की और महाराज ने हमेशा दिल खोलकर अखबार के प्रकाशन को सुचारु रूप से जारी रखने में वित्तीय मदद दी.

आरक्षण व्यवस्था के जनक

आरक्षण की अवधारणा छत्रपति शाहूजी महाराज के राज्य कोल्हापुर से ही आई है. जब उन्होंने 26 जुलाई 1902 को अपने एक आदेश से कोल्हापुर रियासत की 50 प्रतिशत सीटों को पिछड़ी जाति के लोगों के लिए आरक्षित कर दिया था. पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के पीछे महाराज का विचार था कि इससे इन जातियों में समृद्धि आएगी और इनका आत्मबल भी बढ़ेगा.

शाहूजी महाराज ने अपने राज्य में छुआछूत की समाप्ति के लिए युद्ध छेड़ रखा था. उन्होंने समय-समय पर राजकीय आदेश जारी करवाये कि छुआछूत कोल्हापुर रियासत में समाप्त की जाती है. 15 जनवरी 1919 के अपने एक आदेश में शाहूजी महाराज ने रियासत के सभी अधिकारियों-राजस्व, न्यायिक और अन्य- को यह आदेश जारी किया कि कोई भी अधिकारी अगर छुआछूत करते हुए मिला तो उसे राज्य की सेवा से मुक्त कर दिया जाएगा. शाहूजी महाराज ने 3 मई 1920 को कोल्हापुर राज्य में बंधुआ और बेगार मजदूरी पर प्रतिबंध लगा दिया था. यह प्रथा उत्तर भारत से 1980 के दशक में जाकर समाप्त हो पायी, जब शाहूजी महाराज की विरासत वाला बहुजन आंदोलन खड़ा हुआ.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

share & View comments