लॉकडाउन के दौरान अप्रवासी मजदूरों के बाबत सरकार ने जो राह-रवैया अपनाया है उसे लेकर अब किसी भ्रम की गुंजाइश नहीं रही. कोई भावी इतिहासकार इसे बंधक बनाये रखने के एक ड्रामे के रुप में दर्ज करेगा. यहां मामला कोरोनावायरस के संक्रमण को रोकने का कतई नहीं है. और, ऐसा भी नहीं कि सरकार कोई राहत पैकेज अपनी अंटी में दाब लेना चाहती है कि कहीं इसे देना ना पड़ जाय. ये सीधे-सीधे अप्रवासी मजदूरों को बंधक बनाकर रखने का मामला है.
अप्रवासी मजदूरों की दीन-दशा को लेकर जो रवैया हमने अपनाया है वो किसी चित्रपट के समान है जिसपर आज के भारत की सारी बुराइयों की छवि किसी प्रेत के समान घूमती-दौड़ती दिख रही है. इस चित्रपट पर आपको दिखेगी भारत को घुन की तरह चाट खाने वाली वर्गीय असमानता की छवि, नैतिकता की ढलान पर बहुत नीचे की ओर लुढ़कते जा रहे हमारे समाज, लकवाग्रस्त राजनीति और जहर उगलते मीडिया की छवि! अप्रवासी मजदूरों को लेकर हमने जो राह-रवैया अपनाया है उसे देखते हुए कोई भावी इतिहासकार अचरज में भरकर सोचेगा कि ये लोग भारत में मानवता को व्यापे किसी भयानक संकट का समाधान निकालने की जुगत कर रहे थे या फिर किसी टुम्बकटू के संकट का मसला सुलझा रहे थे? अप्रवासी मजदूरों को लेकर अभी जो कुछ चल रहा है उसे हमारा भावी इतिहासकार बंधुआ मजदूरी का लोकतांत्रिक संस्करण कहकर दर्ज करेगा.
व्याख्या का क्या करना जब तथ्य अपनी कहानी आप कह रहे हों. लॉकडाउन के कारण अचानक ही 12 करोड़ लोगों को रोजी-रोजगार गंवाना पड़ा. इसमें कम से कम 4 करोड़ लोग अप्रवासी मजदूर की श्रेणी में आयेंगे. स्वान (एसडब्ल्यूएएन) नाम की एक संस्था एक हेल्पलाइन चलाती है. इस हेल्पलाइन नंबर पर आये कॉल को बुनियाद बनाकर किये गये सर्वेक्षण से एक झलक मिलती है कि अप्रवासी मजदूरों की जिंदगी अभी कैसे उनके सिर पर भारी पत्थर सी साबित हो रही है. मजदूरों में से लगभग 78 प्रतिशत को लॉकडाउन की अवधि की मजदूरी नहीं मिली है. 82 प्रतिशत को सरकार की तरफ से कोई राशन नहीं मिला है. और लगभग 64 प्रतिशत के पास आगे का वक्त गुजारने के लिए बस 100 रुपये ही बचे हैं. रोजी-रोजगार नहीं, गांठ में बची-खुची रकम भी नहीं और भविष्य को लेकर सामने नज़र आती कोई उम्मीद भी नहीं! ऐसी दशा मे ये अप्रवासी मजदूर वही चाहते हैं जो कोई भी चाहेगा- वे घर लौट जाना चाहते हैं. लिहाजा, एक करोड़ से ज्यादा मजदूरों ने अपने ‘देस’ लौट जाने के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया है.
पिछले छह हफ्तों की कहानी गरीब मजदूरों को बिना किसी मजदूरी के, भूखा-प्यासा रख बंधक बनाये रखने की कहानी है. लॉकडाउन कुछ यूं शुरू हुआ मानो अप्रवासी मजदूरों का कहीं कोई अस्तित्व ही ना हो. केंद्र सरकार के मूल दिशा-निर्देशों में अप्रवासी मजदूरों का कोई जिक्र ही नहीं था. अप्रवासी मजदूरों के वजूद पर नज़र तब गई जब उन्होंने कदम आगे बढ़ा दिये, हजारों किलोमीटर के सफर पर पैदल ही निकल पड़े.
यह भी पढ़ें: मोदी का जादू बरकरार है पर कोविड ने दिखा दिया कि देश की ब्यूरोक्रेसी लाचार हो गयी है
मानो मुनादी कर दी गई हो कि अप्रवासी मजदूरों का कोई वजूद नहीं है
लेकिन, ये देखने के बाद भी अप्रवासी मजदूरों को संकट से उबारने के लिए कोई सुसंगत नीति नहीं बनी. जुगत बस ये लगायी गई कि अगर किसी कैमरे की नज़र अप्रवासी मजदूरों पर जाती है तो फिर मजदूरों के इस जमावड़े को किसी तरह तितर-बितर कर दिया जाए. कुछ मजदूरों को बसों में ठूंस दिया गया, कुछ को तम्बू तानकर बनाये गये राहत शिविरों में ठेल दिया गया. कड़े आदेश जारी हुए कि किसी को अब यात्रा की अनुमति नहीं दी जायेगी. लेकिन, मजदूर रुके नहीं. वे हजारों या कह लें लाखों की तादाद में अब भी पैदल अपने घरों की तरफ चल रहे हैं, कोई साइकिल से निकल रहा है तो कोई किसी गाड़ी-सवारी वाले से मदद मांगकर, कोई जुगाड़ बनाकर. लेकिन, अब टीवी पर शराब की बिक्री और कतार में लगे शराबियों की कहानियां हैं, इन अप्रवासी मजदूरों की कहानियां टीवी के पर्दे पर अब नहीं है मानो मुनादी कर दी गई हो कि अप्रवासी मजदूरों का कोई वजूद नहीं है.
वित्त मंत्री ने जिस राहत पैकेज का ऐलान किया उसमें अप्रवासी मजदूरों के लिए कुछ भी नहीं था. केंद्र सरकार से बारंबार गुहार लगायी गई कि जिनके पास राशनकार्ड नहीं है उन्हें राशन देने का इंतजाम हो, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत भंडारे (कम्युनिटी किचन) चलाये जायें लेकिन सरकार ने एक ना सुनी. केंद्र सरकार ने जिम्मा राज्य सरकारों पर छोड़कर अपना पल्ला झाड़ लिया और जले पर नमक ये कि राज्य सरकारों से कहा गया कि उन्हें ऐसा कुछ करना है तो फिर केंद्र सरकार से बाजार-मूल्य पर खाद्यान्न खरीदना होगा. एक सुझाव ये दिया गया कि गरीबों को कुछ नकदी भत्ते के रुप में दी जाये, लेकिन इस सुझाव को सुनने लायक भी नहीं समझा गया.
लेकिन, इस सरकार की नज़र में जो लोग अहम हैं वे लोग अब भी एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाये जा रहे हैं. उत्तराखंड में फंसे गुजराती पर्यटक, बनारस आये आंध्र प्रदेश के तीर्थयात्री, नांदेड़ में फंसे पंजाब के श्रद्धालु, कोटा में परीक्षा की तैयारी कर रहे मध्यवर्गीय घरों के छात्र, स्पेशल फ्लाइट पकड़ने की जुगत में लगे विदेशी नागरिक और बड़े तथा छोटे वीआईपी परिवारों के छूटे-फटके सदस्यगण- इन सबकी घरवापसी के इंतजाम किये गये. ये आशंका बनी हुई थी कि कोरोना-संक्रमित होने की वजह से ये यात्री कहीं रोग के प्रसार का कारण ना बन जायें. दरअसल, ऐसे कई यात्री कोरोना पॉजिटिव निकले हैं. लेकिन नहीं, वे कोरोना पॉजिटिव भी हुए तो क्या, आखिर वे हमारे इस देश के नागरिक हैं! ऐसे नागरिकों को उनके गंतव्य तक पहुंचाया गया, मीडिया की नज़र ना गई और सारा कुछ चुपचाप निपट गया. बीच-बीच में मजदूरों के प्रतिरोध की खबरें आयीं लेकिन गोदी मीडिया की मदद से उसे दबाकर रखा गया.
मजदूरों से वसूला गया रेलवे का भाड़ा
इसके बाद आया लॉकडाउन का दूसरा चरण. इस मुकाम पर पहुंचने के बाद सरकार के मन में आया कि अप्रवासी मजदूरों को लेकर कुछ ना कुछ करना जरूरी है. सो, बड़े चुनिंदा तरीके से बसें चलायी गईं और बड़ी चुप्पी साधकर, एकदम ही खुफिया ढंग से रेलगाड़ियां चलीं. लेकिन समाचार दबाया ना जा सका. मजदूरों को निजात की एक सूरत नज़र आयी और वे घर जाने की आस लिए कतार बांधकर खड़े हो गये. अब मुश्किल ये खड़ी हुई कि मजदूरों की इस बड़ी तादाद की घरवापसी को काबू में कैसे किया जाये. ऐसा कोई तरीका नहीं था कि उन्हें घर पहुंचा आयें और उनमें जो कोई वापस अपने रोजी-रोज़गार की जगह पर लौटना चाहता हो तो उसे लौटा लायें. सो, एक तरीका आजमाया गया कि टिकट के पैसे वसूलो ताकि जो पैसे के मामले में एकदम ही लाचार है, वो घर लौट ही ना सके.
यह भी पढ़ें: कोविड-19 संकट के बीच डीए भत्ते पर रोक सही कदम, विशेषाधिकार प्राप्त भारत की शिकायत वाजिब नहीं
कथा गढ़ी गई कि मजदूर घर लौट रहे हैं तो उनके किराये का 85 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार वहन कर रही है, लेकिन इस कथा में कोई दम ना था. ये बस मीडिया को एक दिन के लिए भरमाये रखने की तरकीब थी. सीधा सा सच ये है कि रेलवे सामान्य तौर पर स्लीपर क्लास के लिए जो भाड़ा वसूलती है, वही भाड़ा उसने वसूला. इसके साथ ही साथ, सुपरफास्ट के नाम पर लगने वाला सरचार्ज और भोजन के लिए ली जाने वाली राशि की वसूली हुई. वसई रोड (मुंबई) से गोरखपुर जाने का टिकट सामान्य दिनों में 660-680 रुपये का होता है (एक संयोग ये भी है कि ऐसा ही एक टिकट बीजेपी के संबित पात्रा ने ट्वीट किया था) लेकिन रेलवे अपने श्रमिक एक्सप्रेस के लिए 740 रुपये ले रही है यानि सामान्य दिनों से कहीं ज्यादा. सच्चाई ये है कि मजदूरों को ही ये किराया चुकाना पड़ रहा है. वे अपने परिवार जन को फोन कर रहे हैं कि घर से कुछ पैसे भेजो ताकि टिकट लेकर घर आ सकूं. जो मजदूर टिकट नहीं कटा सके वे घरवापसी के नाम पर चलायी गई रेलगाड़ियों में भी नहीं चढ़ सके. जो राज्य मजदूरों को घर भेज रहे हैं उन्हीं को मजदूरों से किराया वसूलने का जिम्मा दिया गया है या फिर वे चाहें तो किराये की रकम प्रत्यक्ष तौर पर दे सकते हैं. मजदूर का गृह राज्य भी चाहे तो ऐसा कर सकता है लेकिन बहुत कम राज्य इसके लिए आगे आये. सो, आखिर को मामला यही बना कि मजदूर को स्पेशल रेलगाड़ियों से घर जाना हो तो किराया उन्हें ही चुकाना होगा.
स्पेशल श्रमिक ट्रेनों के लिए रेलवे ने ये जो ‘सामान्य’ किराया वसूलने का तरीका निकाला है उसे आप सामान्य कतई ना समझिए. भारतीय रेलवे का इतिहास रहा है, उसने मानवता का हक अदा करते हुए संकट में फंसे लोगों को आपदा की जगह से निकालने में बड़ी भूमिका निभायी है. अतीत में ज्यादा दूर क्या जाना, याद कीजिए साल 2015 का वक्त जब भारतीय रेलवे ने नेपाल के नागरिकों के लिए स्पेशल ट्रेन चलायी. नेपाल में आये भूकंप के कारण ये नागरिक अपने घरों को लौट जाने को आतुर थे. चंद हजार स्पेशल रेलगाड़ी चला देना भारतीय रेलवे के लिए कोई बड़ी बात नहीं है. रेलवे तो अपने यात्रियों को किराये पर एक बड़ी रकम सब्सिडी के तौर पर भी देती है. तो फिर, ऐसे में रेलवे घर जाने के लिए हलकान हो रहे अप्रवासी मजदूरों के किराये के कुछ सौ करोड़ रुपये ना वसूलती तो भी उसकी जेब को खास फर्क नहीं पड़ने वाला था. रेलवे के सामने नज़ीर के तौर पर पिछला रिकार्ड था. इस महामारी के दौरान भारत सरकार अपने नागरिकों को विदेश से एकदम मुफ्त लौटा लायी. अप्रवासी मजदूरों से किराये के पैसे वसूलना चंद प्रशासकों की चरम क्रूरता या फिर सार्वजनिक क्षेत्र के किसी उद्यम की घटिया वणिक-बुद्धि का उदाहरण नहीं. दरअसल, ये ठेठ राजनीतिक फैसला था और ये फैसला इस सोच से लिया गया कि उद्योगों की जरूरत की घड़ी में कहीं सस्ता श्रम हाथ से ना निकल जाये.
इस बाबत कोई शक करने की गुंजाइश नहीं क्योंकि गृह मंत्रालय ने अपनी चिट्ठी में ये बात साफ कर दी है. दरअसल, चिट्ठी में कहा गया है कि श्रमिक स्पेशल ट्रेन अप्रवासी मजदूरों के लिए नहीं है! सिर्फ वे लोग जो अपने घर से दूर कहीं फंसे रह गये हैं वे इन स्पेशल रेलगाड़ियों का इस्तेमाल कर सकते हैं. मजदूर इन रेलगाड़ियों का इस्तेमाल अपने रोजी-रोज़गार की जगह से अपने गृह राज्य जाने के लिए नहीं कर सकते. जबानी निर्देश दिये गये कि रेलगाड़ियों से जाने वाले लोगों की तादाद जितनी कम रहे उतना ही अच्छा. कई राज्यों से इस आशय की भी खबरें आयी हैं कि स्थानीय अधिकारी-गण मजदूरों को फुसला रहे हैं कि वे घर ना लौटें हालांकि इन मजदूरों के लिए खाने-रहने और उनके रोज़ के खर्चे के लिए कोई इंतजाम नहीं किया गया है. कर्नाटक में मुख्यमंत्री ने रीयल इस्टेट के अग्रणी डेवलपर्स के साथ बैठक की और अचानक ही घोषणा कर दी कि स्पेशल रेलगाड़ी चलाने के लिए जो तमाम अर्जियां दी गई थीं उन्हें वापस लिया जाता है. अप्रवासी मजदूर यानि सस्ता श्रम दरअसल हमारे अपने वक्त की बंधुआ मजदूरी प्रथा ही है, बस इस पर रंग-रोगन तनिक अलग चढ़ाया गया है.
यह भी पढ़ें: कोविड-19 संकट में भारत के किसान अर्थव्यवस्था को आराम से चला सकते हैं पर मोदी सरकार को समझाए कौन
बहुत मुमकिन है, मजदूरों को बंधुआ बनाकर रखने की इस कहानी और इस कहानी से झांकते नैतिक पतन, राजनीतिक उदासीनता तथा बात को गोल घुमाकर मनचीता अर्थ देने की कवायद को अपने इतिहास में दर्ज करते हुए हमारा भावी इतिहासकार लिखे कि इस वक्त राज्य सरकारें नई-नई तरकीब ईजाद कर रही थीं ताकि मजदूरों को बंधक बनाकर रखा जा सके, विपक्षी दल अपने प्रमुख की चमत्कार-शक्ति की अराधना में व्यस्त थे और सत्ताधारी पार्टी ऐन इसी वक्त खबरों को अजब-गजब रंग देकर देश की एक मनभावन तस्वीर बनाकर दर्शक बने नागरिकों के आगे परोस रही थी. हमारा इतिहासकार दर्ज करेगा कि इस प्रकरण में तथ्य इतने साफ और एकदम से आंखों के आगे थे कि आप किसी भ्रम में पड़ना चाहें तो भी तथ्यों के आगे आपकी एक ना चले. और, हमारा भावी इतिहासकार सवाल करेगा कि क्या हम-आपने अपनी आंखों पर कोई पट्टी बांध रखी थी ताकि लॉकडाउन की हमारी शांति में कोई खलल ना पड़े.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)