भारतीय राजनीति में किसी राजनेता का सार्वजनिक रूप से विनम्रता प्रदर्शित करना दुर्लभ है, माफी मांगने की तो बात ही छोड़ दें. खास कर इस विजु़अल दौर में, सबका यही मानना है कि एक राजनेता को नैतिक आत्मविश्वास का प्रदर्शन करना चाहिए. माफी को असफलता की निशानी के रूप में देखा जाता है, और विनम्रता को कमज़ोरी का संकेत माना जाता है.
फिर भी, ऐसे अवसर आते हैं जब गलतियों को स्वीकार करना, विनम्रता दिखाना और यहां तक कि माफी मांगना भी किसी राजनीतिक नेता के हित में हो सकता है. ऐसा ही एक उदाहरण 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव का है, जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के अपने प्रथम कार्यकाल में सिर्फ 49 दिनों में इस्तीफा देने के लिए बार-बार माफी मांगी थी.
यह स्पष्ट था कि केजरीवाल ने गलत बहानों के आधार पर इस्तीफा दिया था, ताकि वह और उनकी आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनावों के बड़े लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर सकें. इसके कारण उन्हें ‘भगोड़ा’ नाम दिया गया था. दिल्ली के लोग भला मुख्यमंत्री की उसी कुर्सी के लिए फिर से इस व्यक्ति पर कैसे भरोसा कर सकते थे? केजरीवाल ने माफी मांगी और एक अभियान चला कर वादा किया कि वह इस बार पूरे पांच साल काम करेंगे- ‘पांच साल केजरीवाल’. और फिर, दिल्ली के लोगों ने उन्हें 70 में से 67 सीटें दे दी.
इंदिरा गांधी को भी 1980 में ऐसा ही अनुभव हुआ था. आपातकाल के मुद्दे पर 1977 में बुरी तरह हारने के बाद, उन्होंने बार-बार खेद व्यक्त किया और आपातकाल की ‘ज़्यादतियों’ के लिए माफी मांगी, हालांकि उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि आपातकाल लगाना क्यों ज़रूरी हो गया था. जनता के बीच जाकर उन्होंने विनम्रता का भी परिचय दिया, उदाहरण के लिए जनसंहार का शिकार बनी एक दलित बस्ती तक पहुंचने के लिए उन्होंने हाथी की सवारी की. इसी तरह, मनमोहन सिंह के 1984 के सिख विरोधी कत्लेआम के लिए माफी मांगने से पंजाब में कांग्रेस को मदद मिली.
विनम्रता का सार्वजनिक इजहार
राहुल गांधी ने पिछले दिनों रघुराम राजन के साथ वीडियो चैट की, जिसमें उन्होंने अर्थशास्त्री राजन से भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में सवाल पूछे. ये एक असामान्य बात थी, क्योंकि आमतौर पर हम राजनीतिक नेताओं को जवाब देता पाते हैं, न कि सवाल करता.
टीएन नायनन ने सोशल मीडिया पर बहुतों द्वारा दी जा रही दलील को स्वर देते हुए कहा कि इस उपक्रम से राहुल गांधी एक ऐसे नेता के रूप में सामने आते हैं जिसका कि अपना कोई दृष्टिकोण नहीं है. एक नेता से ये अपेक्षा स्वाभाविक है कि उसके पास जनता की समस्याओं का समाधान होगा.
ऐसा अधिकांश नेताओं के मामले में सही हो सकता है. लेकिन राहुल गांधी की विश्वसनीयता इतनी कम है कि उनके द्वारा सुझाए गए समाधानों से कोई नहीं प्रभावित होता. केवल साल भर पहले की बात है जब भारत की जनता ने उनके नेतृत्व को इतनी बुरी तरह खारिज किया कि राहुल गांधी अमेठी में अपनी सीट तक नहीं बचा पाए. अपनी 16 वर्षों की राजनीति में राहुल गांधी के पास उपलब्धियों के नाम पर ज्यादा कुछ नहीं रहा है. उन्होंने शासन या प्रशासन का कोई पद नहीं संभाला कि जिसके आधार पर हम उनकी क्षमताओं पर कोई राय बना सकें. और जहां तक राजनेता के रूप में उनकी क्षमताओं की बात है, तो वह अक्षम और लापरवाह प्रतीत होते हैं. वह कांग्रेस के पुराने नेताओं तक से पार नहीं पा सकते हैं और इतनी बार विदेश जाते हैं कि निश्चयपूर्वक ये तक नहीं कहा जा सकता कि किसी दिन वह भारत में हैं या नहीं.
नेता के रूप में अपनी इस छवि के कारण यदि वह सामने खड़े होकर कहें कि ‘मुझे पता है कि भारत के आर्थिक संकट से कैसे निपटा जा सकता है’ तो इस पर कोई यक़ीन नहीं करेगा. ऐसा नहीं है कि संदेश में दम नहीं है, समस्या संदेश देने वाले में विश्वसनीयता के अभाव की है. उदाहरण के लिए, हो सकता है कोविड-19 संकट की गंभीरता की बात पहले राहुल गांधी ने की हो, फिर भी संकट से निपटने के प्रयासों को लेकर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता आसमान छू रही है.
राहुल गांधी को गंभीरता से लिया जाए, इसके लिए उन्हें विनम्रता का सार्वजनिक इजहार करना सीखना होगा. रघुराम राजन से सवाल करते दिखने मात्र से राहुल गांधी नेता नहीं हो जाएंगे, बल्कि जनता का नेतृत्व करने में सक्षम माने जाने के लिए, पहले उन्हें सीखने के लिए तैयार व्यक्ति वाली विनम्रता दिखानी होगी.
‘मैं एकदम अकेला था’
राहुल गांधी में विनम्रता के नितांत अभाव की झलक पाने के लिए 2014 और 2019 में कांग्रेस पार्टी की पड़ी चुनावी पराजयों पर उनकी प्रतिक्रियाओं को याद करने की ज़रूरत है.
2014 में, राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने मीडिया को संबोधित किया था. पहले राहुल बोले, फिर सोनिया. राहुल गांधी खूब मुस्कुराते नज़र आ रहे थे, खुश दिख रहे थे, मानो कांग्रेस ने बहुमत पा लिया हो. वह इतना खुश क्यों नज़र आ रहे थे, अभी तक मालूम नहीं. राहुल गांधी ने कुछ वाक्य अंग्रेजी में भी बोले थे, जिनमें शामिल था, ‘पार्टी उपाध्यक्ष के रूप में, जो कुछ भी हुआ मैं उसके लिए खुद को जिम्मेदार मानता हूं.’
उसके बाद सोनिया बोलीं. गंभीरता से हिंदी में अपना बयान पढ़ते हुए, उन्होंने दिखा दिया कि उनके बेटे ने कितनी लापरवाही से अंग्रेज़ी में अपनी बात कही थी. सोनिया गांधी के लहजे और शब्दों, दोनों में ही विनम्रता थी. उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने विनम्रता से जनता के फैसले को स्वीकार किया है. नई सरकार को बधाई देते हुए उन्होंने आशा व्यक्त की कि सरकार भारत की एकता या राष्ट्रीय हितों पर कोई समझौता नहीं करेगी. उन्होंने कहा, ‘मैं पार्टी की अध्यक्ष हूं, इसलिए मैं पराजय की ज़िम्मेवारी स्वीकार करती हूं.’
जब सोनिया गांधी बोल रही थीं, तो राहुल उनके बगल में खड़े थे, खुश और मुस्कुराते, चंचलता और लापरवाही दिखाते, चेहरा बनाते और सामने बैठे लोगों की ओर इशारा करते. ऐसा लग रहा था मानो वह कोई पुरस्कार पाने के बाद कैमरे से मुखातिब हों. वह मौके की गंभीरता, जिसका सोनिया गांधी को अहसास था, को समझ नहीं पा रहे थे.
अब याद कीजिए पांच साल बाद मई 2019 का दृश्य. राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष थे, सोनिया गांधी अर्ध-सेवानिवृति में जा चुकी थीं. प्रेस के समक्ष वह मां के बिना अकेले थे, पार्टी के मीडिया मामलों के प्रमुख रणदीप सुरजेवाला उनके साथ थे. राहुल इस बार प्रफुल्लित नहीं थे, पर गंभीर भी नहीं दिख रहे थे.
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ना तो उनके लहजे से और ना ही शब्दों से हार स्वीकार करने वाली विनम्रता जाहिर हो रही थी. उनका लहजा ऐसे व्यक्ति की थी जिसकी बात सही साबित हो गई हो. उन्होंने कहा, ‘मैंने अपने चुनाव अभियान में कहा था कि जनता मालिक है.’
उन्होंने अपने आरंभिक संबोधन में ज़िम्मेदारी स्वीकार करने के बारे में कुछ नहीं कहा, जैसा कि आमतौर पर परंपरा है. ये बात आखिरकार एक पत्रकार के सवाल के जवाब में सामने आई. क्या वह हार की ज़िम्मेदारी स्वीकार करते हैं, ये पूछे जाने पर उन्हें कहना पड़ा- ‘शत-प्रतिशत’. यदि पत्रकार ने सवाल नहीं किया होता तो राहुल गांधी शायद इस प्रतीकात्मकता से भी बच निकलते.
इसके तुरंत बाद, राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने पर ज़ोर देने लगे. पर वह ये बताने से नहीं चूके कि वह ये कदम इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि चुनाव अभियान में शीर्ष पार्टी नेताओं ने उनका साथ नहीं दिया.
उन्हें अपना दो पृष्ठों का पत्र (अंग्रेज़ी में) लिखने में दो महीने लगे. पत्र में कहा गया था कि वह ज़िम्मेदारी स्वीकार करते हुए इस्तीफा दे रहे हैं. लेकिन इस बाध्यकारी पंक्ति को लिखने के बाद वह खुलकर नैतिक श्रेष्ठता की बात करने लगे कि कैसे वह भारत की भाजपा की परिकल्पना का मुक़ाबला कर रहे हैं. एक मौके पर, पार्टी के पुराने नेताओं की ओर इशारा करते हुए, उन्होंने लिखा, ‘कई बार, मैं बिल्कुल अकेला था और मुझे इस पर बहुत गर्व है.’
राहुल गांधी के लहजे, हावभाव या शब्दों से ये बिल्कुल नहीं लगता है कि उन्होंने सचमुच में 2019 के पराजय की ज़िम्मेदारी स्वीकार की है.
दुनिया ने राहुल को निराश किया
राहुल गांधी का अपना मूल्यांकन ये है कि वह एक मासूम व्यक्ति हैं जिनके साथ सबने अन्याय किया है. उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने, भाजपा ने, मीडिया ने और यहां तक कि उदारवादी बुद्धिजीवियों ने भी.
उनका मानना है कि वह कुछ भी गलत नहीं कर रहे. उनकी उटपटांग बातें, उनके अंतहीन विदेशी दौरे, ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के चल निकलने का उनका गलत आकलन, आखिरी पलों में लाया गया ‘न्याय’ अभियान, सार्थक गठजोड़ बनाने में उनकी अक्षमता, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की चुनावी जीतों से मिले संवेग को आगे बढ़ाने में उनकी नाकामी, बेरोज़गारी को लेकर एक सुसंगत अभियान छेड़ने में उनकी असमर्थता.
यदि राहुल गांधी को फीनिक्स की तरह राख से दोबारा उठने के असंभव लक्ष्य के लिए प्रयास करना है, तो पहले उन्हें अपना अहंकार छोड़ने, अपनी गलतियों और विफलताओं को स्वीकार करने और एक शिक्षार्थी वाली विनम्रता की क्षमताएं विकसित करनी होगी.
लेकिन मई 2019 के बाद उनके रवैये में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ है. राहुल गांधी की राजनीतिक भूलों, जिसे वह स्वीकार नहीं करते, की सूची बहुत लंबी है. ये रहे उनमें से तीन उदाहरण:
1) अंतरराष्ट्रीय यात्राओं का उनका जुनून: जब भारत नागरिकता संशोधन कानून को लेकर उबाल पर था तो उस समय वह सोल (कोरिया) में थे.
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2) मौका गंवाने की उनकी क्षमता: फरवरी में दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा करने में उन्होंने 10 दिन लगाए.
3) उनका नकारात्मक अभियान: महामारी आने के बाद उन्हें रचनात्मक विपक्ष की भूमिका के महत्व का अहसास हुआ.
राहुल गांधी जितना अधिक नाकाम साबित होते हैं, खुद को बदलने से वह उतना ही अधिक इनकार करते हैं. जब वह खुद की गलती को मानेंगे ही नहीं तो भला वह क्यों बदलेंगे. दुनिया ही गलत है, जो एक दिन अपनी भूल स्वीकार करते हुए मान लेगी कि राहुल गांधी सही थे.
(लेखक दिप्रिंट के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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Bravo sir..kisi be to himmat ki pappu or Sach likhne ki…hats off u