scorecardresearch
Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतकोविड-19 न सिर्फ जिंदगी ले रहा है बल्कि इसने भारत के अस्पतालों, मीडिया, समाज में निहित भेदभाव की पोल खोल दी है

कोविड-19 न सिर्फ जिंदगी ले रहा है बल्कि इसने भारत के अस्पतालों, मीडिया, समाज में निहित भेदभाव की पोल खोल दी है

कोरोनावायरस संक्रमण काल में आस्था छुट्टी पर है और विज्ञान डयूटी पर है. यह वैज्ञानिक सोच कितने दिनों तक लोगों के दिमाग पर हावी रहेगा इसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है .

Text Size:

भारत समेत पूरी दुनिया अभी कोरोनावायरस महामारी से जूझ रही है. चीन से शुरू हुयी इस बीमारी का प्रभाव लगभग पूरी दुनिया पर दिख रहा है. लेख लिखे जाने तक इस बिमारी का कोई वैक्सीन या टीका बनने कि कोई सूचना नहीं है. दुनिया भर के डॉक्टर्स और वैज्ञानिक इस बीमारी के इलाज के लिए लगे हुए हैं. इस बीमारी के इलाज के बारे में कहा जाता है कि ‘सोशल डिस्टेंस’ एकमात्र बचाव है. दुनिया के दूसरे देशों से सबक लेते हुए भारत सरकार ने भी ’21 दिन के देशव्यापी लॉकडाउन’ कि घोषणा कर दी है. चाहे टेलीवीजन हो या सोशल मीडिया हर जगह कोरोना ही बहस के केंद्र में है. विज्ञान और आस्था कि बहस में ये तो स्पष्ट हो गया है कि कुदरत/प्रकृति कि नियति का निर्धारण करती है.

इस बीमारी ने पूरी दुनिया की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है. जाहिर है, अन्धविश्वास पर यकीन रखने वाले देश भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था और अचानक आने वाली महामारी से बचने और इसके लिए की जा रही तैयारियों की भी पोलपट्टी खुल गयी है. भारत हमेशा से अपनी लोगों के स्वास्थ्य को लेकर ढुलमुल रवैया अपनाता रहा है. 2020 के बजट से पहले ‘डिजिटल हेल्थ केयर’ के क्षेत्र में अग्रणी संस्थान शिफा केयर –पिछले वर्ष के बजट में कम से कम 25 फीसदी कि बढ़ोत्तरी करनी चाहिए , इससे स्वास्थ्य क्षेत्र में आधुनिक सुविधाए मुहैया कराने के साथ गरीबों के उपचार में भी सक्षम हुआ जा सकेगा. लेकिन हुआ इसके उलट मोदी ने 2020 के बजट में एम्स के बजट से सरकार ने 109 करोड़ कि कटौती कर दी , जबकि सब जानते हैं कि एम्स भारत का अग्रणी अस्पताल है जहां देश भर से आये रोगियों का बहुत ही कम पैसे या मुफ्त में इलाज होता है. सरकार जनता के स्वास्थ्य को लेकर कितनी लापरवाह है इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है.

अंधविश्वास और विज्ञान

अगर टेलीविजन और सोशल मीडिया की बहस को देखा जाय तो एक बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन नज़र आता है. लोग अन्धविश्वास और आस्था कि जगह वैज्ञानिक चिंतन और शोध पर बहस कर रहे हैं. एक ऐसे समाज में जो सदियों से धार्मिक मान्यताओं, कूप मण्डूकता और अन्धविश्वास में गहरे से जकड़ा हुआ हो यह परिवर्तन बहुत अप्रत्याशित लगता है. निज़ामुद्दीन का जो वीडियो वायरल हुआ है उसमें ‘मौलवी प्रेरित कर रहे हैं कि मरने के लिए मस्जिद से बेहतर जगह नहीं हो सकती.’ ऐसे और भी कई वीडियो वायरल हुए हैं जिसमे मौलवी कह रहे हैं कि नमाज़ पढने से कोरोना नहीं होगा. वैसे ही इस बीमारी के दौरान चर्च में भी लोग प्रार्थना के लिए इकट्ठे हुये . लेकिन, इन मान्यताओं पर सवाल भी उठ रहे हैं.

लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि आस्था छुट्टी पर है और विज्ञान ड्यूटी पर है. यह वैज्ञानिक सोच कितने दिनों तक लोगों के दिमाग पर हावी रहेगी इसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है. लेकिन ऐसे समय में तमाम प्रगतिशील, बुद्धिजिवी और अम्बेडकरवादियों की जिम्मेवारी बनती है कि भारतीय जनमानस में इस वैज्ञानिक चिंतन के विकास और विस्तार के लिए काम करें, अन्यथा लोग वापस वहीं पर आ जायेंगे जहां से शुरू हुए थे. और ऐसे में सरकार कि मंशा भी जाहिर हो गयी कि वो नहीं चाहती कि लोगों में इस आधुनिक चिंतन का विकास हो , टीवी पर रामायण जैसा धारावाहिक चलाकर सरकार लोगों को वापस आस्था कि ओर धकेलना चाहती है.

भेदभाव वाली मंशा

कोरोना के डर से हुए लॉकडाउन ने सरकार के भेदभाव वाली मंशा से भी पर्दा हटा दिया है. एक तरफ अलग-अलग जगहों में फंसे अमीरों को तो सरकार हवाई जहाज से लेकर आयी. वहीं बड़े महानगरों में मजदूरी करने आये गरीबों के साथ-साथ सरकार ने जो व्यवहार किया, उसे पूरी दुनिया ने देखा. लोग सड़कों पर अपने बच्चों, परिवार और जरुरी सामान के साथ देश के सड़कों पर निकल पड़े हैं. इन मजदूरों को घर तक पहुचाने के लिए यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक हजार बसों कि व्यवस्था करने कि घोषणा की, कुछ बस चलाईं भी गए लेकिन उनसे बहुत ही अनाप-शनाप भाडा वसूला गया. इतना ही नहीं अपने प्रांत पैदल पहुचें लोगों को, जिनमे बच्चे, महिलायें और बुजुर्ग भी थे, सड़क पर बिठाकर कीटनाशक की बौछार की गयी.

कोई भी सरकार अपने नागरिकों के प्रति इतनी संवेदनहीन कैसे हो सकती है. कई जगह से अपने घरों कि ओर पैदल लौट रहे लोगों कि चलते हुए या दुर्घटना से मरने कि ख़बरें भी आ रही है. गुजरात, कश्मीर, मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और पंजाब समेत देश के अलग –अलग हिस्से से ‘वतन-वापसी’ कर रहे मजदूरों के रास्ते में कई गांव-शहर मिले होंगे , कुछ जगहों पर किसी एनजीओ या निजी स्तर पर मदद कि ख़बरें मीडिया में आ रही हैं पर वो लोग कहां गए जो कांवड़ियों के लिए करोड़ों रूपये के पंडाल , लगाते हैं, लंगर चलाते हैं और हेलिकॉप्टर से फूलों कि बारिश करते हैं.

भारतीय समाज का एक हिस्सा बहुत ही स्वार्थी है, वो या तो स्वयं के बारे में सोचता है या फिर स्वर्ग के बारे में सोचता है. हो सकता है कि इस इन गरीब- मजदूरों कि सेवा करने में इनको स्वर्ग कि उम्मीद न दिखती हो.

हाईफाई अस्पतालों और क्लीनिकों की पोल खुली

हालिया समय में निजीकरण के खिलाफ आवाज़ भी उठती दिख रही है. चुकी इस बीमारी के सामने आने के बाद निजी क्लीनिकों की पोल खुल गयी. लोग लगभग जर्जर हो चुके सरकारी अस्पताल कि तरफ उम्मीद से देख रहे हैं. निजीकरण के बड़े-बड़े प्रशंसक और पैरवीकार भी इस सवाल पर चुप्पी साध गए हैं . स्पेन कि सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण से अलग कर दिया है.

भारत जैसे देश में लोगों के बीच भौतिक सुविधाओं की होड़ भी सवालों के घेरे में आ गई है. एक से ज्यादा गाड़ियां, बड़े घर, ज्यादा कमरों के घर इस मानसिकता को भी बदलने का समय आ गया है. अमेरिका जैसे देश में लोग आधा खाना खाकर आधा फेंक देते हैं, आज के समय में अनाज कि किल्लत शायद इस सोच को बदलने को प्रोत्साहित करे. प्रकृति के संसाधनो का अन्धाधुंध दोहन ने भी परिस्थियों को और प्रतिकूल बनाया है. भारत जैसे देश में तो स्थिति और भी ज्यादा विकट है. नदियों को समाप्त किया गया और उसका दैवीयकरण किया जाता रहा है. लोगों को अब समझना पड़ेगा कि ये सब किसी चमत्कार से ठीक नहीं होगा.

सरकार का भोंपू मीडिया

वहीं सरकार का रवैया भी निराशा पैदा करने वाला है. सरकार ने पीड़ितों के लिए राहत कि घोषणा तो कर दी है, पर वो घोषणाएं कागज़ से ज़मीन पर आएगी इसकी गारंटी नहीं है, दुनिया के दूसरे देशों में आपात स्थिति में राहत उपायों की समीक्षा हर 24 घंटे में की जाती है.

मीडिया की भूमिका भी सरकार का भोंपू बनने से ज्यादा नहीं दिखता है. भारत का हिंदी मीडिया हिन्दू-मुस्लिम का एक्सपर्ट है, कोरोना के मामले में भी सरकार से सवाल जवाब पूछने के बजाय लाईव अन्ताक्षरी खेलने में लगी रही लेकिन जैसे ही निज़ामुद्दीन का सिरा इनकी पकड़ में आया, ये हिन्दू मुस्लिम का गन्दा खेल करने में लग गए.

इस बीमारी के बाद कुछ सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं मसलन स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़ा सुधार और वैश्वीकरण का तेज़ होना, क्यूंकि एक बात तो तय है कि जब दुनिया इस बीमारी से उबरेगी तो वैसी नहीं रह जायेगी , जैसी अभी है.

(लेखक पूर्व सांसद एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं..ये उनके निजी विचार हैं.)

share & View comments

1 टिप्पणी

Comments are closed.