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Wednesday, 20 November, 2024
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छले जाने का अहसास होने तक गांधी परिवार के अभिन्न मित्र और वफादार कांग्रेसी नेता रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया

चार बार सांसद चुने गए ज्योतिरादित्य सिंधिया पिता माधवराव की मौत के बाद कांग्रेस में शामिल हुए थे और उन्होंने 18 वर्षों तक पार्टी का साथ दिया. वह दोनों ही यूपीए सरकारों में मंत्री रहे.

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नई दिल्ली: पूर्व केंद्रीय मंत्री और चार बार के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस छोड़ना गांधी परिवार के लिए हाल के वर्षों में किसी अन्य नेता के पार्टी से निकलने के मुकाबले कहीं अधिक पीड़ादायक है.

उनचास वर्षीय सिंधिया एक वफादार कांग्रेसी नेता भर ही नहीं थे. बीते वर्षों में वह राहुल और प्रियंका गांधी के लिए परिवार के एक सदस्य जैसा बन गए थे. सिंधिया कांग्रेस के उन युवा नेताओं में शुमार रहे हैं कि जिनके साथ राहुल सहजता महसूस करते थे, और संसद में अधिकांश समय दोनों को साथ देखा जाता था.

सिंधिया से राहुल गांधी की मित्रता उनके कांग्रेस में शामिल होने से पहले की है. वह देहरादून के दून स्कूल में राहुल के सहपाठी थे.

उल्लेखनीय है कि सिंधिया के कट्टर प्रतिद्वंद्वी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ भी दून स्कूल के छात्र रहे हैं.
पिता वरिष्ठ कांग्रेस नेता माधवराव सिंधिया की 2001 में एक विमान दुर्घटना में असामयिक मौत के बाद ज्योतिरादित्य को भारत लौटकर राजनीति के मैदान में उतरना पड़ा.

उस समय तक वह पहले मॉर्गन स्टेनली और फिर मेरिल लिंच में इन्वेस्टमेंट बैंकर के रूप में काम कर रहे थे. हार्वर्ड विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने एमबीए की डिग्री के लिए स्टैनफोर्ड स्कूल ऑफ बिज़नेस में दाखिला लिया था.

भारत वापस लौटने के बाद कांग्रेस में शामिल होते वक्त सिंधिया मात्र 31 साल के थे और उन्होंने मध्य प्रदेश में गुना की अपने परिवार की परंपरागत सीट से उपचुनाव लड़ा. सीट उनके पिता माधवराव के निधन से खाली हुई थी.

ग्वालियर के शाही खानदान के वारिस को जीत दर्ज कराने में कोई मुश्किल नहीं हुई. गुना से 1957 में ज्योतिरादित्य की दादी विजयाराजे सिंधिया के कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ने के बाद से सिंधियाओं को कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा था. दस वर्ष बाद 1967 में विजयाराजे कांग्रेस छोड़कर जनसंघ में चली गईं, जो आगे चलकर भाजपा बना.


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चुनावों की बात करें तो ज्योतिरादित्य 2002 से ही अनवरत सफलताएं हासिल कर रहे थे. यहां तक कि 2014 में जब देश मोदी लहर की चपेट में था, तब मध्य प्रदेश में जीत दर्ज कराने में सफल रहे दो कांग्रेसियों में ज्योतिरादित्य भी शामिल थे. जीतने वाले दूसरे कांग्रेसी नेता राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री और ज्योतिरादित्य के कट्टर विरोधी कमलनाथ थे. लेकिन जीत का सिलसिला 2019 की गर्मियों में आकर थम गया.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के मात्र पांच महीने बाद लोकसभा चुनाव में सिंधिया ने करारी हार का स्वाद चखा. उनके लिए ये पराजय सिर्फ इसलिए अपमानजनक नहीं थी कि वह अपने ही गढ़ में 1.2 लाख वोटों के बड़े अंतर से हारे, बल्कि इसलिए भी कि उन्हें हराने वाले भाजपा उम्मीदवार कृष्णपाल सिंह यादव का राजनीतिक कद उनकी तुलना में कुछ नहीं था. यादव कांग्रेस पार्टी छोड़कर कुछ महीने पहले ही भाजपा में शामिल हुए थे. भाजपा को 1999 के बाद से इस सीट पर सफलता नहीं मिली थी.

कभी वफादारी नहीं छोड़ी

अपनी दादी और पिता के विपरीत ज्योतिरादित्य ने कभी कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ा था, और इस कारण भी उन्हें गांधी परिवार का स्नेह हासिल हुआ था.

उनकी दादी विजयाराजे सिंधिया ने 1957 में कांग्रेस के साथ अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था पर 1967 में वह जनसंघ में शामिल हो गई थीं. और उसके बाद वह ताउम्र भाजपा के साथ ही रहीं.

विजयाराजे के पुत्र माधवराव सिंधिया ने 1971 में अपनी राजनीतिक पारी जनसंघ के साथ शुरू की थी. वह 1980 में कांग्रेस में शामिल हो गए, पर कतिपय मतभेदों के कारण 1996 में कांग्रेस छोड़कर मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस नामक अलग पार्टी का गठन किया. यह पार्टी 1996 से 1998 तक सत्ता में रही संयुक्त मोर्चा सरकार की एक घटक थी.
लेकिन माधवराव 1998 में कांग्रेस में वापस लौट आए और अपनी असामयिक मौत तक कांग्रेस में ही रहे.
वहीं ज्योतिरादित्य ने 2002 में कांग्रेस में शामिल होने के बाद अभी तक पार्टी नहीं बदली थी. कांग्रेस में रहते हुए वे चार बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए.

पहली बार ज्योतिरादित्य को 2004 में मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री बनाया गया. उन्हें संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के राज्यमंत्री की जिम्मेदारी दी गई. दोबारा 2009 में भी उन्हें राज्यमंत्री बनाया गया और वाणिज्य एवं उद्योग का काम सौंपा गया. आगे 2012 में मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद उन्हें स्वतंत्र प्रभार के साथ बिजली राज्यमंत्री बनाया गया.

मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने से नाराज़

पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि सिंधिया का कांग्रेस से मोहभंग 2018 के मध्य में ही शुरू हो गया था जब राज्य में विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी आलाकमान ने कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।
पार्टी सूत्रों के अनुसार, सिंधिया चिढ़े बैठे थे पर मुख्यमंत्री पद देने के राहुल गांधी के आश्वासन के बाद उन्होंने खुद को चुनाव प्रचार में झोंक दिया. लेकिन वायदा पूरा नहीं किया गया.

चुनाव के नतीजे आने के बाद पार्टी हाईकमान ने सिंधिया की पूरी तरह उपेक्षा करते हुए राज्य सरकार की बागडोर कमलनाथ को सौंपने का फैसला किया. हालांकि सिंधिया अपने छह विश्वासपात्रों को मंत्री बनवाने में सफल रहे लेकिन सरकार में उनकी कोई दखल नहीं रही.


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सिंधिया का असंतोष तब और बढ़ गया जब 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव नियुक्त कर पश्चिमी उत्तरप्रदेश का प्रभारी बना दिया गया. उनके पास नई ज़िम्मेदारी के अनुरूप पश्चिमी उत्तरप्रदेश में पार्टी की चुनावी रणनीति पर ध्यान देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. और, इस कारण गुना सीट पर उनके चुनाव प्रचार का पूरा दारोमदार उनकी पत्नी पर आ गया. तब ऐसी अफवाहें सुनी गई थीं कि सिंधिया कांग्रेस पार्टी छोड़ सकते हैं, लेकिन उन्होंने पार्टी द्वारा सौंपी गई ज़िम्मेदारी को निभाना जारी रखते हुए सारी अटकलों को झुठला दिया.
उत्तरप्रदेश में पार्टी के दयनीय प्रदर्शन के बाद सिंधिया ने भी राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने की तर्ज पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया. उसके बाद से स्थितियां सामान्य नहीं रही हैं.

अगस्त में, मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निरस्त करते हुए राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित किए जाने के तुरंत बाद सिंधिया ने इस कदम के पक्ष में बयान देकर राजनीतिक हलचल पैदा कर दी थी, क्योंकि पार्टी लाइन केंद्र सरकार के कदम के विरोध की थी.

सिधिया ने अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के समर्थन में ट्वीट किए थे.

एक बार फिर गत वर्ष नवंबर में सिधिया के कांग्रेस छोड़ने की अटकलें चलीं जब उन्होंने ट्विटर पर अपने परिचय से ‘कांग्रेस’ तथा मंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारियों से संबंधित सूचनाओं को हटाकर उनकी जगह ‘जनसेवक और क्रिकेट उत्साही’ लिख दिया था – मंगलवार को पार्टी छोड़ने के बाद भी उन्होंने फिर ऐसा ही किया है.

दिप्रिंट से बातचीत में वरिष्ठ राजनेता और पूर्व कांग्रेसी कुंवर नटवर सिंह का कहना था कि कांग्रेस हाईकमान ने यदि सिंधिया को मध्य प्रदेश पीसीसी की जिम्मेदारी सौंप दी होती तो आज हो रहे राजनीतिक ड्रामे से बचा जा सकता था.
माधवराव सिंधिया के मित्र रहे सिंह ने कहा, ‘वह 18 साल तक पार्टी में रहे. उनके पिता कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से थे. पार्टी उन्हें अधिक सार्थक जिम्मेदारी दे सकती थी. ज्योतिरादित्य का इस्तीफा कांग्रेस का नुकसान और भाजपा के लिए फायदा है.’

पारिवारिक व्यक्ति, स्नेहिल पिता

सिंधिया का विवाह प्रियदर्शिनी राजे से हुआ, और वह अपने दो बच्चों के लिए एक स्नेहिल पिता हैं.
पिछले साल लोकसभा चुनावों के बाद जब एग्जिट पोल के नतीजों का इंतजार किया जा रहा था, ठीक उसके पहले सिंधिया येल विश्वविद्यालय में अपने बेटे आर्यमन के ग्रेजुएशन समारोह में शामिल होने के लिए सपरिवार अमेरिका रवाना हो गए.

उस समारोह के बाद सिंधिया ने अपने बेटे के साथ ली गईं तस्वीरें ट्वीट की, जिनका शीर्षक था: ‘एक पिता के रूप में आज मैं बेहद गौरवान्वित हूं कि मेरे बेटे आर्यमन ने येल विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की है. पूरे परिवार के लिए यह एक विशेष अवसर है. बेटे, ग्रेजुएट होते वक़्त तुम्हारे साथ मौजूद रहकर मैं गौरवान्वित हूं!’

मंगलवार को आर्यमन ने ट्वीट के ज़रिए अपने पिता का समर्थन किया, ‘मुझे अपने पिता पर गर्व है कि उन्होंने खुद के लिए एक फैसला किया है. अपनी विरासत को छोड़ने के लिए साहस चाहिए. इतिहास गवाह है कि मेरा परिवार कभी भी सत्ता का भूखा नहीं रहा. जैसा कि वादा किया गया है हम भारत और मध्यप्रदेश में भविष्य के लिए प्रभावी बदलाव के प्रयास करेंगे.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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