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Friday, 22 November, 2024
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क्या सांप्रदायिक दंगे भारत के लिए नई बात हैं, दिल्ली की घटना ने नई बहस खड़ी कर दी है

हाल के दिल्ली दंगों ने 200 साल पुरानी इस बहस को फिर से खड़ा कर दिया है कि क्या ब्रितानी राज से पहले हिंदू और मुसलमान शांतिपूर्वक रहते थे या सांप्रदायिक हिंसा हमेशा से होती रही है?

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क्या भारत में सांप्रदायिक दंगे हाल की बात हैं जिन्हें 18वीं सदी के अंत में बांटों और राज करो की ब्रितानी नीति ने हवा दी थी? या फिर सांप्रदायिक शत्रुता 12वीं सदी से ही भारत के इतिहास का हिस्सा रहा है, जब तराइन की लड़ाई में मोहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज चौहान का सामना किया था? हाल के दिल्ली दंगों ने 200 साल पुरानी इस बहस को फिर से खड़ा कर दिया है.

स्पष्ट रूप से युद्ध रेखाएं खिंच गई हैं. कई उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी भारतीय इस बात पर जोर देते हैं कि ब्रिटिश राज से पहले भारत की एक सामंजस्यपूर्ण संस्कृति थी. जबकि दक्षिणपंथी हिंदू अपने पसंदीदा ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ के हवाले से यह दलील देते हैं कि सांप्रदायिकता हमेशा से भारतीय इतिहास की विशेषता रही है– भारत एक हिंदू राष्ट्र रहा है और या तो विदेशी या धर्मांतरित हिंदू होने के कारण मुसलमान अपनी मूल नियति से भटक गए हैं.

आज हमें सांप्रदायिकता के रूप में जो दिख रहा है, वह निर्विवाद रूप से एक हालिया घटना है. इसका मतलब ये नहीं है कि अतीत में भारत में संघर्ष नहीं होते थे. जिस प्रकार भारतीय इतिहास में हिंदू और मुस्लिम शासकों द्वारा एक-दूसरे की धार्मिक परंपराओं के संरक्षण के और आम लोगों की मिश्रित हिंदू-मुस्लिम पहचान के असंख्य उदाहरण हैं, उसी तरह हिंदुओं और बौद्धों, शियाओं और सुन्नियों, मुगलों और सतनामियों, ब्राह्मणों और नाथपंथियों आदि के बीच धार्मिक विवादों के भी कई उदाहरण हैं. इसी तरह अकबर से लेकर फर्रुखसियर तक मुस्लिम शासकों समेत विभिन्न शासकों द्वारा गोहत्या पर प्रतिबंध लगाए जाने, मस्जिदों और मंदिरों को नष्ट किए जाने तथा होली या मोहर्रम के दौरान सड़कों पर जुलूस निकालने के लिए स्थानीय झगड़ों के भी कई उदाहरण हैं. लेकिन इन विवादों ने ‘सांप्रदायिकता’ का रूप नहीं लिया था.

अंग्रेज भारत आए, तब भी मुग़ल शासन का दौर चल रहा था और आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजों ने अपनी जीतों को मुस्लिम निरंकुशता से हिंदुओं की मुक्ति और, विडंबना ही कहेंगे, कानून के शासन की स्थापना के रूप में पेश किया. बाकी की कहानी तो सबके सामने है कि कैसे ब्रितानियों और भारतीय राष्ट्रवादियों दोनों ने ही मध्ययुगीन भारत को एक अंधेरे युग के रूप में चित्रित किया. उन्होंने इस बात को नज़रअंदाज़ किया कि ईरानी और अरबी प्रभाव के बिना हिंदुस्तानी संगीत या मुगल व्यंजन या ब्रजभाषा के दोहे या उर्दू गज़ल और यहां तक कि सुरुचिपूर्ण सलवार कमीज़ की कल्पना नहीं की जा सकती है.

17वीं और 18वीं सदी के भारत में दंगे

शाह वलीउल्लाह और शाह अब्दुल अज़ीज़ के शुद्धतावादी पुनरुद्धार आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र होने तथा धनी, धर्मनिष्ठ और शाकाहारी हिंदू और जैन व्यापारियों से आबाद होने के बावजूद, जहां लालकिले के ठीक बगल में जैन मंदिर हो, दिल्ली 18वीं और 19वीं सदी में हिंदू-मुस्लिम तनाव से अपेक्षाकृत मुक्त रही थी.


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निश्चित ही धार्मिक संघर्ष के छिटपुट उदाहरण मिलते थे लेकिन न तो सभी मुस्लिम और न ही सभी हिंदू उनमें शामिल होते थे और न ही वे स्पष्ट रूप से समग्रता में परिभाषित थे. साथ ही ये संघर्ष विशुद्ध रूप से धार्मिक होते भी नहीं थे. दिल्ली की सीमाओं पर औरंगज़ेब के खिलाफ सतनामी युद्ध को भले ही एक कट्टर मुस्लिम सम्राट और आस्थावान मेहनती हिंदू किसानों के बीच संघर्ष के रूप में पेश किया जाने लगा हो पर वो संघर्ष अभिजात वर्ग के जमींदारों के खिलाफ जातिगत विरोध और शासन की कर नीति के खिलाफ किसानों का विरोध भी था और इस तथ्य का भी ज़िक्र होना चाहिए कि सतनामियों ने भक्ति के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के मिश्रित अनुष्ठानों को अपनाया था.

दिल्ली में 1720 के दशक में धार्मिक संघर्ष की कई घटनाएं हुईं. लेकिन उनमें से अधिकतर पूर्व में लड़ाका रहे अफगानों और अबीसिनियाइयों की अगुआई में हुए थे, जो कि ईरानी और तूरानी कुलीनों की जगह लेने के लिए प्रयासरत थे. इन गड़बड़ियों के लिए दिल्ली के उत्तर-पूर्व में 18वीं सदी में शासन करने वाले रोहिल्ला अफगान शासक ज़िम्मेदार माने गए जिन्होंने रूढ़िवादी सुन्नी कार्यकर्ताओं की भूमिका अपना ली थी. हालांकि कुठेर राजपूतों के साथ उनका सैन्य गठबंधन भी था. दिल्ली में 1729 के दंगों में पुराने शिया कुलीनों से जुड़े काज़ी पर पंजाबी मुस्लिम जूता विक्रेताओं ने हमले किए थे, जिन्हें रोहिल्ला अफगानों का संरक्षण प्राप्त था. इसी तरह, बरेली में 1816 के ब्रिटिश विरोधी दंगों में, हिंदू शहरी और व्यापारी वर्ग भी मौलवी महमूद इवाज़ के विद्रोह में शामिल था. दिल्ली से संबंध रखने वाले कट्टर नक्शबंदी सुन्नी इवाज़ ने ख़तरे में पड़े दोनों धर्मों के लिए लड़ने का ऐलान किया था.

जाहिर है इन संघर्षों को सांप्रदायिक के बजाए पंथ आधारित झगड़ों के रूप में बेहतर समझा जा सकता है क्योंकि वे आज की सांप्रदायिकता से बहुत अलग प्रकार के थे. ये संघर्ष आंशिक, स्थानीय, मुद्दा-केंद्रित और उतने ही अंतर-धार्मिक होते थे जितने कि विभिन्न धर्मों के बीच.

आधुनिक भारत में विभाजक भूमिका में धर्म

आखिर अब क्या बदल गया है? सर्वप्रथम, उपनिवेशवाद भारत में ‘सभ्यताओं के टकराव’ की अवधारणा लेकर आया, सैमुअल हंटिंगटन की किताब छपने से बहुत पहले. यूरोप का ईसाई अतीत था और यूरोप के लोग धर्मयुद्ध के समय से लेकर 18वीं सदी और उसके बाद तक इस्लाम के खिलाफ सक्रिय रहे थे, जब शक्तिशाली ऑटोमन साम्राज्य ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी. जब ब्रितानी भारत आए तो वे उस पूर्वाग्रह को न सिर्फ पकड़े रहे बल्कि उन्होंने उसे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए एक हथियार भी बना लिया और 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही कई रूढ़िवादी हिंदू राष्ट्रवादियों ने भी ऐसा ही किया.

दूसरी बात, जनगणना के लिए तय प्रावधानों की भूमिका. ब्रिटिश कल्पना में दुनिया धर्मों में स्पष्ट रूप से बंटी थी– यूरोप में ईसाई धर्म, भारत में हिंदू धर्म, मध्य पूर्व में इस्लाम, सुदूर पूर्व में बौद्ध धर्म आदि– इसलिए आश्चर्य नहीं कि जनगणना प्रक्रिया में लोगों को खुद को हिंदू या मुसलमान के रूप में चिन्हित करने को कहा गया. किसी के लिए शिया, अहमदिया, लिंगायत या वैष्णव जैसी सांप्रदायिक पहचान दर्ज कराने का विकल्प नहीं था. न ही मिश्रित पहचान को बनाए रखना संभव था और इसलिए हिंदू और मुस्लिम दोनों रीति-रिवाजों को अपनाने वाले मेव जैसे समुदायों को हमेशा के लिए हिंदू धर्म और इस्लाम में से किसी एक को चुनने के लिए मजबूर किया गया. पहचान पक्की, परस्पर विरोधी और स्थायी बनती गई. कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में हर बार जनगणना के दौरान कट्टरपंथी जमात ऐसे लोगों के सही धर्म दर्ज कराने के नाम पर हंगामा करते हैं.

तीसरी बात, 1870 के बाद जब से भारत में स्थानीय निकाय चुनाव शुरू हुए, जनगणना आधारित जनसांख्यिकी और संख्याओं पर आधारित राजनीतिक शासन के संयोजन ने भारत में सामुदायिक पहचान के मतलब को ही बदल दिया. बहुसंख्यकवाद जिस तरह संभव हो गया उसकी पहले कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी जिसकी दिशा लोकतंत्र के बिल्कुल विपरीत थी. जैसा कि आज हम देख रहे हैं कि संख्या आधारित बहुसंख्यकवाद ने अपने अलग मुहावरे भी गढ़ लिए हैं, जैसे खास कर महिलाओं को ‘शत्रु’ समुदाय में जाकर उनकी जनसांख्यिकीय ताकत बढ़ाने में योगदान देने से रोकने के लिए हिंदुत्व समर्थकों का ‘लव जिहाद’ से लड़ना.


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चौथी बात, औपनिवेशिक राज ने विशुद्ध धार्मिक आधार पर समुदाय विशेष के लिए निर्मित कानूनों या पर्सनल लॉ का शासन स्थापित किया, जो कि आज तक भावनाओं को भड़काने में इस्तेमाल किए जा रहे हैं. इस प्रक्रिया में इस तथ्य पर विचार तक नहीं किया गया कि भारत में हमेशा ही सामुदायिक कानूनों में क्षेत्रीय विभेद रहा है. इसने पूर्व में कानूनी अधिकारी रहे काज़ियों, मुफ़्तियों और पंथ विशेष के मठ प्रमुखों की हैसियत को भी कमजोर किया, उन्हें अब ‘धार्मिक’ पेशेवरों में बदल दिया गया या उनको पंडितों और उलेमाओं के बराबर बना दिया गया.

आखिर में, और सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात ये कि आधुनिक राजनीति ने धर्मों को राष्ट्रों तक सीमित कर दिया है और धार्मिक पहचान के प्रश्न को राष्ट्रीय पहचान से जोड़ दिया है. आज हम अपनी आंखों से देख रहे हैं कि कैसे राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक गोलबंदी की जा रही है.

राष्ट्र और धर्म की अदला-बदली

ईसाई धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म जैसे धर्मों के अतीत और वर्तमान दोनों से ही ये स्पष्ट है कि लोगों की पैदाइश और उनके निवास के भौगोलिक मानचित्रों में कभी पूर्ण साम्य नहीं होता है, न ही वे कभी दुनिया के धार्मिक मानचित्र से मेल खाते हैं. हमेशा ही धर्म अपने भीतर कई राष्ट्रीय, भाषाई और राजनीतिक संस्कृतियों को समेटे रहता है और यही आंतरिक बहुलता धार्मिक विचारों की जीवनदायिनी है, क्योंकि यह आंतरिक आलोचनाओं और टकरावों से ही विकसित होती है. धर्म ’बाह्य’ प्रभाव से भी विकसित होता है, जैसा कि भारत में भक्ति और सूफी परंपराओं के पारस्परिक संवर्धन के इतिहास से साबित होता है.

धर्म को राष्ट्र तक और राष्ट्र को धर्म तक सीमित किए जाने ने न सिर्फ राष्ट्रों को ही दरिद्र और अशक्त किया है बल्कि इसने स्वयं धर्म की अवधारणा को भी नुकसान पहुंचाया है और उसे सिर्फ और सिर्फ पहचान से बांध दिया है. दिल्ली के दंगों ने यही साबित किया है.

(लेखिका इतिहासकार और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ में प्रोफेसर हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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