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Wednesday, 20 November, 2024
होमदेशझारखंड के धर्म गुरू ने कहा, मोहन भागवत के कहने भर से हम आदिवासी हिंदू धर्म नहीं अपनाने वाले

झारखंड के धर्म गुरू ने कहा, मोहन भागवत के कहने भर से हम आदिवासी हिंदू धर्म नहीं अपनाने वाले

आरएसएस प्रमुख चाहते हैं कि आगामी जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासी अपना धर्म हिन्दू लिखें. जबकि आदिवासी चाहते हैं सरना धर्म कोड.

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रांची: ईसाई संगठन चाहता है कि आदिवासी ईसाई बन जाएं. हिंदू संगठन उन्हें अपने पाले में लाने के लिए पुरजोर कोशिश में लगे हैं. हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आगामी जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासी अपना धर्म हिंदू लिखें. इसके लिए संघ देशभर में अभियान चलाएगा. देश के कई आदिवासी इलाकों में इसका विरोध हुआ. दिल्ली सहित कई राज्यों में आदिवासियों ने धरना दिया. उनकी मांग थी कि जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग कॉलम रखा जाए.

मोहन भागवत पांच दिन के दौरे पर झारखंड आये हुए हैं. गुरुवार 20 फरवरी को रांची में उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. इससे फासीवाद की झलक मिलती है. उन्होंने यह भी कहा कि संघ में किसी लोभ से लोग न आएं. ये बीजेपी से टिकट पाने का रास्ता नहीं है. अगर ऐसा सोचेंगे तो जो उनके पास है, वो भी खो देंगे.

झारखंड में लंबे समय से आदिवासी अपने लिए सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं. सरना धर्मगुरू बंधन तिग्गा कहते हैं, ‘मोहन भागवत के कहने भर से हम आदिवासी हिंदू धर्म नहीं अपनाने वाले हैं. बीते दो जनगणना में हमने अपना धर्म सरना लिखा है. झारखंड ही नहीं, कुल 21 राज्यों के आदिवासी ने सरना लिखा है. इस बार भी लिखेंगे.’


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वहीं आदिवासी लेखक और सेंट्रल यूनिवर्सिटी गया में असिस्टेंट प्रोफेसर अनुज लुगुन कहते हैं, ‘आदिवासी हिंदू हैं नहीं. किसी के कहने पर होंगे नहीं. दरअसल, संघ की एक खयाली चिंता है कि हिंदू की आबादी बढ़ाएंगे. इसके लिए 10 प्रतिशत आदिवासियों को शामिल करना चाहते हैं. अगर सच में आरएसएस को ये चिंता है कि आदिवासी दूसरे धर्मों में न जाएं, तो केंद्र में उसकी सरकार है, उसे सरना धर्म कोड लागू करा देना चाहिए.’

लगातार मांग के बावजूद संसद के भीतर इस बिल को अभी तक नहीं लाया गया है. इस पॉलिटिकल इग्नोरेंस का कारण बताते हुए अनुज कहते हैं, ‘अगर बीजेपी ऐसा करेगी तो हिंदू पॉलिटिक्स नहीं चल पाएगी, कांग्रेस इसलिए नहीं करना चाहती क्योंकि उसके साथ ईसाई आदिवासियों की एक बड़ी संख्या है.’

सरना कोड या आदिधर्म का कॉलम पर हो विचार

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में आदिवासियों की संख्या 10,42,81,034 है. यह कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत है. सवाल यह भी है कि क्या देशभर के आदिवासी सरना धर्म कोड के साथ जाएंगे? झारखंड सहित कई राज्यों में आदिवासी खुद को सरना आदिवासी नहीं मानते हैं. इसी को ध्यान में रख कर पूर्व सांसद रामदयाल मुंडा ने ‘आदि धर्म’ की वकालत की थी.

भारतीय ट्राइबल पार्टी के मुखिया और गुजरात के झगड़िया से विधायक छोटूभाई वासवा कहते हैं, ‘आदिवासियों के लिए आदिवासी धर्म ही कॉलम होना चाहिए. सरना, भील, गोंड या फिर मुंडा नहीं. वह ये भी कहते हैं कि हिंदू नाम का कोई धर्म नहीं है. संघ वाले हिंदू शब्द को स्थापित करना चाहते हैं. यह तो सनातन धर्म है.’

उनके मुताबिक, ‘जब तक बाहरी लोग आदिवासी एरिया में नहीं आए थे, जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारी अपनी संस्कृति थी. भारत का असली इतिहास तो आदिवासियों से शुरू होता है. इन लोगों का जो बिठाया हुआ इतिहास है, वह उजागर हो जाता है. इसलिए आदिवासियों के लिए अलग धर्मकोड लागू नहीं किया गया है.’

केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं. झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और 14 साल बाद बीजेपी में वापस आए बाबूलाल मरांडी कहते हैं, ‘जिसकी जो इच्छा हो वह उस धर्म को मानें. हमारा संविधान और भारत का विचार दर्शन भी यही कहता है. इसी को हिंदू और हिन्दुत्व विचारधारा कहते हैं. सरना धर्मकोड पर उन्होंने गोल-मोल जवाब देते हुए कहा कि अगर मांग हो रही है तो उस पर विचार होना चाहिए लेकिन इसके लिए क्या-क्या अहर्ताएं होती हैं, मुझे नहीं मालूम.’

वहीं आरएसएस के प्रांत सहकार्यवाह राकेश लाल ने कहा कि अगर संघ प्रमुख ने ऐसा कुछ कहा है तो बात पूरी तरह साफ है. इस पूरे मसले पर उसे ही संघ का दृष्टिकोण समझा जाए. इससे ज्यादा वह कुछ और नहीं कहेंगे.


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रांची में शाखा लगाते मोहन भागवत.

चर्च ने कहा भागवत कौन होते हैं हिंदू धर्म थोपने वाले

इधर, चर्च ने भागवत के बयान का जोरदार विरोध किया. बिशप थियोडोर मास्करेन्हांस ने कहा, ‘एक तरफ मोहन भागवत राष्ट्रवाद शब्द को फासीवाद के बराबर मानते हैं. दूसरी तरफ वह अपना धर्म आदिवासियों पर थोपना चाहते हैं. एक तरफ धर्मांतरण पर झारखंड धर्म स्वतंत्र अधिनियम, 2017 बिल लाना, दूसरी तरफ आदिवासियों को कहना कि वह अपना धर्म हिंदू मानें, यह उस बिल के खिलाफ है या नहीं? मोहन भागवत कौन होते हैं आदिवासियों को हिंदू बनाने वाले?’ उन्होंने कहा कि, ‘कैथोलिक चर्च का साफ मानना है कि सरना धर्म कोड लागू होना चाहिए. यह मांग हम दोबारा करते हैं.’

आदिवासियों की सांगठनिक तौर पर धर्मांतरण की शुरुआत आरएसएस और ईसाई मिशनरियों से पहले डॉ. राजेंद्र प्रसाद और कांग्रेस के हरिजन सेवक संघ के ठक्कर बापा की एक पहल से हुई थी. लेखक अश्विनी पंकज ने अपने किताब ‘मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा’ के पेज नंबर 68 में इसका जिक्र किया है.

किताब में लिखा है, ‘जयपाल सिंह मुंडा के बनाए आदिवासी महासभा को लाखों आदिवासियों ने अपना समर्थन दिया. 1939 में उन्हें कमजोर करने के लिए ठक्कर बापा ने राजेंद्र प्रसाद के कहने पर आदिम जाति सेवक मंडल बनाया जिसने आदिवासियों के बीच हिंदूकरण की प्रक्रिया की सांगठनिक और राज्य प्रयाजोति शुरुआत की.’

अपने वजूद की रक्षा के लिए आदिवासियों की लड़ाई को ऐसे भी समझा जा सकता है. 9 दिसंबर 1946 को संविधान निर्माण सभा की पहली बैठक हुई. 19 दिसंबर को अपनी बारी आने पर जयपाल सिंह मुंडा ने कहा- ‘आदिवासी जीवन के हर स्तर पर सदियों से जो बाहरी भेदभाव, लूट और दोहन जारी है, नए भारत में उसे रोकना स्वतंत्र होते देश की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.’

उन्होंने कहा, ‘जंगली और एक आदिवासी होने के नाते संकल्प की जटिलताओं में हमारी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं है. लेकिन हमारे समुदाय का कॉमन सेंस कहता है कि हममें से हर एक से कहना चाहूंगा कि अगर कोई देश में सबसे ज्यादा दुर्व्यवहार का शिकार हुआ है तो वह हमारे लोग हैं. पिछले छह हजार सालों से उनकी उपेक्षा हुई है. और उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया है. मैं जिस सिंधु घाटी सभ्यता का वंशज हूं, उसका इतिहास बताता है कि आपमें से अधिकांश लोग जो यहां बैठे हैं, बाहरी हैं, घुसपैठिये हैं, जिनके कारण हमारे लोगों को अपनी धरती छोड़कर जंगलों में जाना पड़ा.’


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वह आगे कहते हैं, ‘इसलिए यहां जो संकल्प पेश किया गया है, वह आदिवासियों को ‘लोकतंत्र’ नहीं सिखाने जा रहा. आप सब आदिवासियों को लोकतंत्र सिखा ही नहीं सकते, बल्कि आपको ही उनसे सीखना है. आदिवासी पृथ्वी पर सबसे अधिक लोकतांत्रित लोग हैं. हमारे लोगों की आकांक्षा वे अधिकाधिक सुरक्षाएं नहीं हैं, जिन्हें नेहरू ने संकल्प में रखा है.’

जाहिर है आगामी जनगणना से पहले आने वाले समय में आदिवासियों का आंदोलन और तेज होने वाला है. इतिहास को देखते हुए इसे कहने में अधिक दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि उनकी मांगों पर गंभीरता से इस बार भी विचार नहीं ही किया जाएगा. हालांकि इस दौरान यह देखना होगा कि संघ किस प्रकार आदिवासियों को इसके लिए तैयार करता है कि वह धर्म वाले कॉलम में हिंदू धर्म में खुद को शामिल करें.

(लेखक झारखंड से स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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