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Monday, 18 November, 2024
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वैश्विक लोकतंत्र सूचकांकों में भारत का दस स्थान लुढ़कना क्या कहता है

द इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट के 2019 के वैश्विक लोकतंत्र सूचकांकों में ‘दुनिया का महानतम लोकतंत्र’ भारत दस स्थान गंवाकर 51वें स्थान पर आ गया है.

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कोई कुछ भी कहे, आज हम अपने लोकतंत्र के भविष्य को लेकर जिस नाउम्मीदी या स्वप्न भंग के शिकार हैं, उसकी नींव सत्ताधीशों द्वारा आजादी मिलने के कुछ वर्षों बाद ही शुरू कर दिये गये उसके विरूपीकरण ने ही डाली थी. इस विरूपीकरण ने ही क्रमशः ज्यादा जटिल और कुटिल होते हुए आम लोगों में इस निराशाजनित धारणा का विस्तार किया कि लोकतंत्र वास्तव में ऐसी व्यवस्था है, जिसमें तंत्र ऊपर ही ऊपर सारी उपलब्धियों को लोकता रहता है, जबकि लोक कभी उसके लोकने की कला पर मुग्ध होकर तालियां बजाता और कभी उद्विग्न होकर सिर खुजाता है.

लेकिन अब, आजादी सत्तरवें गणतंत्र दिवस से ऐन पहले आई यह खबर कि द इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट के 2019 के वैश्विक लोकतंत्र सूचकांकों में ‘दुनिया का महानतम लोकतंत्र’ भारत दस स्थान गंवाकर 51वें स्थान पर आ गया है, जताती है कि ‘ऊपर ही ऊपर लोकने’ वाली यह व्यवस्था ‘नीचे और नीचे’ गिरने व लुढकने लगी है.

यकीनन, यह सारे लोकतंत्रप्रेमियों के लिए विचलित करने वाली स्थिति है, लेकिन देश में सत्ताधीशों के इन दिनों के रंग-ढंग के मद्देनजर यह अपेक्षा व्यर्थ है कि वे इसकी शर्म को किंचित भी महसूस करेंगे और हालात बदलने के प्रयासों में लगेंगे.
अगर इस आशय के आरोप सही हैं कि ये सत्ताधीश हमारे लोकतंत्र को बदनीयतीपूर्वक उसके खात्मे के लिए ही इस्तेमाल कर रहे हैं, तो बहुत संभव है कि पैकेजिंग के उस्ताद हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी ‘न्यू इंडिया’ की अवधारणा के संदर्भ में इसको उलटे ‘काम्प्लीमेंट’ के तौर पर ही लें और विरोधियों को जवाब देने के लिए इस्तेमाल करने लग जायें.


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अपनी पर आयें तो वे देशवासियों से यह भी कह सकते हैं कि जिन संशोधित नागरिकता कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर, संविधान के अनुच्छेद 370 व 35 ए के उन्मूलन और दो केन्द्रशासित प्रदेशों में विभाजन के बाद जम्मू कश्मीर की स्थिति को लेकर विपक्ष बहुत रोना-पीटना मचाये हुए है, अंततः उन्हीं के क्रम में किये गये नागरिक स्वतंत्रता के क्षरण ने हमें गिरावट की इस ‘महान उपलब्धि’ तक पहुंचाया है कि महानतम लोकतंत्र के आसमान से गिरे हैं तो अटकने के लिए कोई खजूर का पेड़ भी नहीं पा सके और ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ बन गये हैं.

प्रधानमंत्री ऐसा न भी कहें तो इस ‘उपलब्धि’ को कम करके नहीं देखा जा सकता. इसलिए उनके समर्थकों को, जो प्रायः दावा करते है कि उनके प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद से दुनिया की निगाहों में भारत का मान लगातार बढ़ रहा है, यह बताने के लिए अवश्य आगे आना चाहिए कि इन सूचकांकों से वह मान कितना बढ़ा है और उसका कितना श्रेय ‘मोदी जी के करिश्माई नेतृत्व’ को जाता है?

लेकिन मुश्किल है कि वे आगे आयें भी तो बतायें किसको? देशवासियों को तो इस मान की हकीकत पहले से ही पता है, क्योंकि अपनी नागरिक स्वतंत्रता से उसकी सबसे ज्यादा कीमत वे ही चुका रहे हैं. कम से कम देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तो उनकी ‘देनदारी’ इतनी बढ़ गयी है कि आजादी की मांग को पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना की आजादी से जोड़कर देशद्रोह में बदल दिया गया है.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सभाओं में बाकायदा इसका एलान कर रहे हैं और इसमें कोई त्रुटि नहीं महसूस कर रहे तो सवाल बनता ही है कि जो सत्ता वे संचालित कर रहे हैं, वह किसी भी रूप में लोकतंत्र क्यों कर है? उसे कानून का राज भी क्यों कर कह सकते हैं, जब मुख्यमंत्री खुद रौद्र रूप धारण कर असहमत, उद्वेलित व प्रदर्शनरत नागरिकों को दंगाई, उपद्रवी, कायर और डर के मारे खुद रजाई में सोने व औरतों-बच्चों को आगे करने वाले बता रहे और अपनी पुलिस का उनसे बदला लेने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं? इससे सारे संभावित पुलिस सुधारों व उदात्तीकरणों की जड़ों में मट्ठा पड़ जा रहा और वह गुलामी या कि गोरों के युग में वापसी पर आमादा है तो उनकी बला से.

यकीनन, यह भी गोरों के राज जैसी ही नजीर है कि एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रदर्शनकारियों को उनके कपड़ों से पहचानते हैं और दूसरी ओर मुख्यमंत्री लखनऊ में प्रदर्शन में उतरी महिलाओं पर दंगे का मुकदमा दर्ज करा देते हैं, जबकि प्रशासन उसी लखनऊ में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को संशोधित नागरिकता कानून के समर्थन में भीड़ जुटाने और रैली करने की सहर्ष इजाजत दे देता है. वह इस सवाल का जवाब तक देना गवारा नहीं करता कि क्या विरोधियों की भीड़ और सत्तासमर्थकों की भीड़ के लिए कानून अलग-अलग होता है?

विडम्बना यह कि सत्ताधीशों की जमात में लोकतांत्रिक प्रतिरोध की आवाजों के निर्मम दमन के ये इक्का-दुक्का पैरोकार ही नहीं हैं. बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभानअल्ला की तर्ज पर केंद्रीय पशुपालन, मत्स्य और डेयरी राज्यमंत्री संजीव बालियान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया के आन्दोलित छात्रों के ‘सही इलाज’ को उतावले हैं और पुलिस की तमाम बर्बरता के बावजूद इसमें कोताही हुई महसूस कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि इन विश्वविद्यालयों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए 10 फीसदी सीटें छोड़ दी जायें ताकि वहां से आये लोग इन सबका ‘ठीक से इलाज’ कर दें. मेरठ में एक सभा में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह से उक्त सीटें छोड़ने का अनुरोध करते हुए उन्होंने आश्वस्त किया कि फिर ‘किसी और की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.’

उधर पश्चिम बंगाल में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष छाती ठोंक रहे हैं कि उनकी पार्टी की उत्तर प्रदेश व असम सरकारों ने संशोधित नागरिकता कानून के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे लोगों को कुत्तों की तरह मारा, तो इसे तानाशाही का जो भी रूप बतायें, लोकतंत्र कैसे कह सकते हैं? खासकर जब गृहमंत्री अमित शाह खुलेआम और बारम्बार कह रहे हैं कि जिसको जितना भी विरोध करना हो कर ले, मगर नागरिकता कानून में किया गया संशोधन वापस नहीं लिया जाने वाला. वे दावा करते हैं कि इस संशोधन पर किसी भी सार्वजनिक मंच पर बहस के लिये तैयार हैं, मगर कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल उनकी चुनौती स्वीकार लेते हैं तो उनका जवाब नहीं आता.

इस वक्त जिस तरह पूरे देश में स्वतःस्फूर्त नागरिक समूह संशोधित नागरिकता कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के विरोध में घरों से बाहर निकल और सड़क पर उतर रहे हैं, लोकतांत्रिक सोच वाली कोई भी सरकार, जिसका संविधान व कानून के राज में विश्वास अखंड होता, उसका संज्ञान लेती और लोगों के एतराजों व उद्वेलनों को तार्किक परिणति तक ले जाती-न कि उन्हें हिकारत से देखती और अनादरपूर्वक बदला लेने की धमकी देती.

सवाल है कि क्या असहमति और विरोध के ऐसे अनादर के बीच किसी देश का लोकतंत्र करीने से फूल-फलकर त्रुटिरहित या आदर्श हो सकता है? ठीक है कि लोकतंत्र में बहुमत का महत्व होता है, लेकिन बहुमत ही सब कुछ नहीं होता, अल्पमत को भी उतना ही सम्मान दिया जाता है. मगर नरेन्द्र मोदी सरकार अल्पमत को इस सम्मान से वंचित करने की खतरनाक नजीरें बना रही है. इस बीच संशोधित नागरिकता कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर व राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पर उसके कई झूठ बेपरदा हो चुके हैं. फिर भी वह अड़ियल रवैया अपनाये हुए है.


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जिन्हें उप्र सरकार उपद्रवी और दंगाई कह रही है, उनकी तो छोडिए, मोदी सरकार को ‘अपनों’ के एतराजों को कान देना भी गवारा नहीं हो रहा. भले ही इसके चलते उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का एक घटक शिरोमणि अकाली दल असहज है तो दूसरा जनता दल यूनाइटेड षड़मंडल का शिकार. प. बंगाल भाजपा के उपाध्यक्ष और नेताजी के पोते चंद्रकुमार बोस तो यहां तक कह रहे हैं कि उनकी चिंताओं का समाधान नहीं हुआ तो वे पार्टी छोड़ने पर विचार करेंगे.

ऐसा क्यों है, और है तो समाधान क्या है? इस सवाल का जवाब नहीं तलाशा गया, तो देश का वर्तमान तो खतरे में पड़ेगा ही, भविष्य भी पड़ेगा. तब उसकी लोकतांत्रिक संस्कृति, विविधता में एकता व सौंदर्य के दर्शन और सारे धर्मों के लोगों के एक साथ मिलजुल कर रहने की परम्परा नई चुनौतियों का सामना करने को मजबूर होंगी. साफ है कि अर्थव्यवस्था के साथ लोकतंत्र का भी लुढ़कने लग जाना देश के लिए ऐसी खतरे की घंटी है, जिसको हमें हर हाल में सुनना ही होगा, क्योंकि यह सोचने के अलावा फिलहाल कोई विकल्प नहीं है कि जिस व्यवस्था को हम झेल रहे हैं, क्या वह वाकई लोकतंत्र है?

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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