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Friday, 26 April, 2024
होममत-विमतये तो ‘द इकॉनोमिस्ट’ की करतूत है, वरना मोदी के नेतृत्व में भारतीय लोकतंत्र किसी त्रुटिपूर्ण सूचकांक के मुकाबले कहीं अधिक मजबूत है

ये तो ‘द इकॉनोमिस्ट’ की करतूत है, वरना मोदी के नेतृत्व में भारतीय लोकतंत्र किसी त्रुटिपूर्ण सूचकांक के मुकाबले कहीं अधिक मजबूत है

‘द इकॉनोमिस्ट’ ने एक सर्वे के आधार पर भारत की स्थिति का आकलन किया है. संभवत: मोदी सरकार एनपीआर के लिए उसकी टीम का उपयोग करना चाहे.

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ये तो ‘द इकॉनोमिस्ट’ की करतूत है.

इकॉनोमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के लोकतंत्र सूचकांक में भारत को दस स्थान नीचे उतार कर 51वें नंबर पर रखा जाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधियों के लिए उनकी आलोचना का नया मुद्दा बन गया है. आमतौर पर ये समाचार किसी सामान्य से अखबार के अंदर के किसी पेज में भी बमुश्किल ही स्थान पाता, पर हम एक असामान्य दौर से गुजर रहे हैं, जैसा कि इस समाचार के व्यापक कवरेज से भी साबित होता है. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत का कुल ‘लोकतंत्र’ स्कोर 2018 के 7.23 से गिरकर 2019 में 6.9 रह गया, अब इसका मतलब जो भी हो और जैसे भी इसकी गणना की जाती हो.

इकॉनोमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) का लोकतंत्र सूचकांक 2019 पांच बातों पर आधारित बताया जाता है. चुनावी प्रक्रिया और बहुलवाद, सरकार का कामकाज, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति, और नागरिक स्वतंत्रता.
आधुनिक अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय रणनीति में आजकल विभिन्न देशों की राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया के विश्लेषण को बहुत महत्व दिया जाता है क्योंकि इससे निवेश से जुड़े जोखिम के आकलन में मदद मिलती है. निवेश की वास्तविक दुनिया में लगाए गए धन पर मुनाफे को उतना महत्व नहीं दिया जाता है, जितना कि निवेश से जुड़े जोखिम की चिंता की जाती है.

लोकतंत्रों से दूर मौजूद अवसर

शायद इसीलिए दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भारत जैसे लंबी लोकतांत्रिक परंपरा और सामूहिक निर्णय प्रक्रिया की संस्कृति वाले देशों के बजाय उन देशों में भारी निवेश कर रही हैं जो कि कहीं कम लोकतांत्रिक हैं. पश्चिम के धनकुबेरों को अविकसित देशों के तानाशाहों और स्वेच्छाचारी शासकों के साथ सौदा करने में आसानी होती है. विकसित देशों और उनकी सरपरस्ती में काम करने वाले संस्थानों के निवेश का बड़ा हिस्सा चीन को मिलता रहा है, जो कहीं से भी श्रेष्ठ लोकतांत्रिक परंपराओं वाला देश नहीं कहा जा सकता.

निवेश के मनपसंद गंतव्यों के रूप में लोकतांत्रिक देशों के ऊपर अधिनायकवादी राष्ट्रों को तरजीह दिए जाने के पीछ ये तर्क दिया जाता है कि उनकी व्यवस्थाएं ज्यादा जटिल नहीं होती हैं या वहां निर्णय प्रक्रिया बहुस्तरीय नहीं होती है, और इस कारण निवेशकों का उनके शीर्ष नेतृत्व से सीधा संपर्क संभव हो पाता है. इससे व्यवसाय के विशिष्ट अवसरों की उपलब्धता तथा कायदे-कानूनों, नैतिकताओं और मान्य व्यावसायिक परंपराओं से परे अधिक लचीली शर्तों की गारंटी मिलती है.

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इस पृष्ठभूमि में, व्यवसाय और निवेश के बड़े अवसरों के लिए लोकतंत्र के महत्व को लेकर उपदेश दिया जाना अटपटा लगता है. भारत ने लोकतांत्रिक परंपराओं के पालन तथा घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय व्यवसायों के लिए अपने मजबूत संस्थागत ढांचे पर हमेशा गर्व किया है. इस बात का संयुक्त राष्ट्र तथा अन्य प्रतिष्ठित एजेंसियों ने भी उल्लेख किया है और इसकी सराहना की है.


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‘विशेषज्ञ’ इकॉनोमिस्ट

संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों तथा मानक अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालयों के विपरीत ‘द इकॉनोमिस्ट’ एक राजनीतिक पत्रिका है जो सामयिक घटनाओं पर रिपोर्टों और टिप्पणियों का प्रकाशन करती है. इस प्रकाशन को अपनी रिपोर्टों और संपादकीय टिप्पणियों में तरफदारी करने और पूर्ण निष्पक्षता नहीं बरतने का पूरा अधिकार है.

माना जाता है कि मोदी सरकार के तहत देश की मौजूदा स्थिति के आकलन के लिए ‘द इकॉनोमिस्ट’ ने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य का सर्वेक्षण किया है. निश्चय ही ‘द इकॉनोमिस्ट’ को सर्वे करने में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महारत हासिल होनी चाहिए, तभी तो सीमित कर्मचारियों को होते हुए भी उसने पांच विस्तृत श्रेणियों में सर्वेक्षण कर लिया, वो भी यथासंभव शीघ्रता के साथ.

रिपोर्ट में अधिकारपूर्वक कहा गया है कि ’20 करोड़ मुसलमानों में से बहुतों के पास खुद को भारतीय साबित करने के लिए जरूरी कागजात नहीं हैं.’ यानि ‘द इकॉनोमिस्ट’ ने या तो 20 करोड़ मुसलमानों से बात की होगी, या फिर उसने किसी विशेषज्ञ सर्वे एजेंसी की सेवाएं ली होगी जिसके बारे में हम नहीं जानते हैं. दोनों में से जो भी बात सही हो, मोदी सरकार जब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का काम शुरू करेगी, तो वह शायद वह ‘द इकॉनोमिस्ट’ की इस विशेषज्ञता का लाभ उठाना चाहे.

एक ही रास्ता

एक त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र सूचकांक जारी करने के बाद ‘द इकॉनोमिस्ट’ ने मोदी सरकार के अधीन ‘असहिष्णु भारत’ पर कवर स्टोरी भी प्रकाशित की. इस लेख में मूलत: संसदीय शासन प्रणाली का माखौल बनाया गया है कि ‘सर्वाधिक मत पाने वाली की जीत’ वाली व्यवस्था में 37 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी ‘एक सहिष्णु बहुधार्मिक भारत को एक उग्र राष्ट्रवादी हिंदू राष्ट्र’ में बदलने के लिए कृतसंकल्प है. ये सब करने के बाद अब पत्रिका के पास सबसे अच्छा विकल्प यही है कि वह हकीकत को तोड़-मरोड़कर पेश करने के लिए माफी मांगे, वेबसाइट से अपने लेख को हटाए, सारी प्रतियों को बाजार से वापस ले, और इस तरह असत्य रिपोर्टिंग के अपने मर्ज से होने वाली बदनामी से खुद को बचाए.


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वैसे स्कूलों में हमारे बच्चों को शुरू से यही पढ़ाया जाता है कि भारत को लोकतंत्र ब्रिटेन से विरासत में मिला है, जोकि ‘द इकॉनोमिस्ट’ की उत्पत्ति का देश भी है.

‘द इकॉनोमिस्ट’ ने न सिर्फ बिल्कुल गलत रिपोर्टिंग की है बल्कि पत्रकारिता में नैतिकता के अपने स्तर तथा निष्पक्ष रिपोर्टिंग के अपने दावे को भी कमजोर किया है. इसने सच्चाई से मुंह मोड़ने तथा नैतिकता और पत्रकारिता के मानदंडों को धत्ता बताने का काम किया है.

इतिहास खुद को दोहराता है. कैथरीन मेयो की बेहद अपमानजनक किताब ‘मदर इंडिया’ (1927) को महात्मा गांधी ने ‘ड्रेन इंस्पेक्टर की रिपोर्ट’ बताते हुए खारिज कर था. इकॉनोमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की रिपोर्ट और ‘द इकॉनोमिस्ट’ के लेख के साथ भी ऐसा ही होना चाहिए.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य और ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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