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Saturday, 16 November, 2024
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पत्थलगड़ी मामले में दर्ज केस का निर्णय सरकार नहीं कोर्ट करेगी और बताएगी दर्ज मामले वापस होंगे या नहीं

साल 2016 से लेकर 2018 तक कुल 25 एफआईआर दर्ज की गई हैं. इसमें हजारों अज्ञात लोगों पर एफआईआर जो की गई है उसमें राजद्रोह की धाराएं लगाई गई हैं. सभी केस अड़की, खूंटी और मुरहू थाने में किए गए हैं.

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रांची: हेमंत सोरेन ने 29 दिसंबर को रांची के मोरहाबादी मैदान में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. शाम को पहली कैबिनेट की बैठक हुई और उसमें तीन फैसले लिए गए. पहला सीएनटी-एसपीटी आंदोलन, पत्थलगड़ी आंदोलन के दौरान दर्ज मुकदमों को वापस लिया जाएगा. दूसरा यौन उत्पीड़न के मामलों में शीघ्र सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना और तीसरा अनुबंध कर्मी पारा शिक्षक, रसोईया, आंगनबाड़ी कर्मियों समेत तमाम लोगों के लंबित वेतनमान या मानदेय का शीघ्र भुगतान करने का निर्देश दिया गया है.

खूंटी पुलिस की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक आईपीसी की धारा 121ए-124ए के तहत कुल 19 क्रिमिनल केस दर्ज किए गए हैं. इसमें कुल 172 आरोपियों पर दर्ज मामला सही पाया गया है और 96 पर कार्रवाई करने की अनुमति पुलिस ने सरकार से मांगी है. जिसमें 94 पर कार्रवाई की अनुमति मिल चुकी है. इन 94 में से 48 पर चार्जशीट भी जारी कर दी गई है.

झारखंड हाईकोर्ट के सीनियर वकील अब्दुल अल्लाम कहते हैं, ‘जब फांसी की सजा राष्ट्रपति निरस्त कर सकते हैं तो झारखंड सरकार के पास भी अधिकार है कि वह राजद्रोह के मामले, जो कि पत्थलगड़ी के मामले में गलत तरीके से लगाए गए हैं, उसे वापस ले सकती है.’


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उन्होंने कहा, ‘चूंकि अब मामला कोर्ट में है, अगर सरकार ये कहती है कि उसे वापस लेना है, ऐसे में केवल कोर्ट तय करेगी कि केस वापस लेने लायक है या नहीं. कोर्ट यह देखेगी कि जिन सबूतों के आधार पर चार्जशीट दायर की गई है, उसके आधार पर केस बनते हैं, तो वह सरकार की अपील को खारिज भी कर सकती है.’

साल 2016 से लेकर 2018 तक कुल 25 एफआईआर दर्ज किए गए हैं. इसमें हजारों अज्ञात लोगों पर राजद्रोह का एफआईआर दर्ज किया गया है. सभी केस अड़की, खूंटी और मुरहू थाने में किए गए हैं.

पत्थलगड़ी आंदोलन में प्रयोग की गई लकड़ी की बंदूक/ फोटो: आनंद दत्ता

हाईकोर्ट के वकील सोनल कहते हैं, ’जिन मामलों में चार्जशीट दायर हो चुका है, उसे खत्म करना आसान नहीं होगा. जिनपर चार्जशीट हो चुकी है, उनको बरी करना या सजा मिलना, कोर्ट तय करेगी. साथ ही कोर्ट की अनुमति के बाद लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) केस खारिज करने की अपील कर सकत है. कोर्ट की अनुमति के बाद ही यह खत्म होगा. अगर वह मना कर देती है तो सरकार भी कुछ नहीं कर सकती है.’

सोनल एक और बात कहते हैं, सरकार ने अभी राजद्रोह के मामले को खत्म करने की बात कही है. लेकिन उस दौरान कई और मामले दर्ज किए गए हैं, उसे कैसे खत्म किया जाएगा. उनकी बात से सीनियर वकील अनिल कुमार कश्यप भी सहमत दिखे. उन्होंने कहा कि कोर्ट भी अगर खारिज या स्वीकार करती है, तो उसे कारण बताना होता है.

क्या है 10 हजार आदिवासियों पर राजद्रोह मामले का सच

राहुल गांधी ने 20 नवंबर को एक खबर ट्वीट की जिसके मुताबिक झारखंड के खूंटी जिले के 10 हजार लोगों के ऊपर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया है. खूंटी के पूर्व एसपी आलोक ने कहा कि, ’30 हजार या 10 हजार लोगों पर मुकदमा दर्ज नहीं है. भला ऐसा भी होता है क्या.’

झारखंड हाईकोर्ट के वकील अभय कुमार कहते हैं- ’नहीं ऐसा नहीं होता है. भीड़ को देखते हुए पुलिस इस तरह का केस दर्ज करती है. केस दर्ज होने के बाद जांच के दौरान पता लगाती है कि वास्तव में कितने लोग शामिल थे.’

उन्होंने बताया कि, ‘भले ही 500 या 3000 अन्य लिख दिया जाता है, लेकिन गिरफ्तारी जांच के बाद ही की जा सकती है. क्योंकि पुलिस को यह भी बताना होता है कि जिनको गिरफ्तार किया है, उनके खिलाफ पुलिस के पास क्या सबूत हैं.’

झारखंड के क्राइम रिपोर्टर अखिलेश सिंह कहते हैं, ’ज्ञात और अज्ञात लोगों पर दर्ज एफआईआर में फर्क होता है. आंदोलन के दौरान अगर किसी गांव हजारों की भीड़ जुटती है. वही भीड़ दूसरे जगह भी जाती है. पहले गांव से दूसरे गांव जाने के क्रम में कुछ लोग लौट जाते होंगे, तो कुछ लोग नए जुड़ते होंगे. दोनों जगहों के लिए अलग-अलग एफआईआर होता है. ऐसे में कुछ लोगों के नाम सहित अन्य 500 या 5000 का नाम लिखा जाता है. अगर इस मामले में देखें तो कुछ लोग ऐसे हैं जिनका नाम सभी एफआईआर में दर्ज है. बाकि अज्ञात हैं. इसी अज्ञात के आंकड़ों को जोड़कर 10 हजार से 30 हजार का आंकड़ा एनजीओ और समाचार माध्यमों द्वारा फैलाया गया.’

अज्ञात लोगों पर दर्ज एफआईआर के खेल से पुलिस को बाहर नहीं किया जा सकता है. दोषियों को खोजने का तरीका होने के साथ यह निर्दोषों को परेशान करने के लिए भी पुलिस कई बार इस्तेमाल करती है.

गांववालों को नहीं पता क्या है राजद्रोह

दर्ज एफआईआर को देखें तो खूंटी जिले के छह गांवों जिकिलता, उदबुरू, सोनपुर, कोचांग, तुबिल और कुरुंगा के लोग झारखंड सरकार की नज़र में राजद्रोही हैं. जिले के सोनपुर गांव के बच्चों से लेकर बूढ़े तक इसकी जद में शामिल हैं. यह पत्थलगड़ी आंदोलन के दौरान सरकार की खिलाफ़त कर रहे लोगों और गांवों पर दर्ज किया गया है.

रांची जिला मुख्यालय से 84 किलोमीटर दूर अड़की ब्लॉक के सोनपुर गांव में अधिकतर लोगों को इसके बारे में जानकारी ही नहीं है. यहां तक कि मुखिया सरला देवी को भी नहीं पता कि सरकार ने उनके पंचायत सोसोकुटी में शामिल सोनपुर के सभी ग्रामीणों को सरकार राजद्रोही मान रही है. अड़की थाना में 13 अप्रैल 2018 को दर्ज कांड संख्या 220/18 के मुताबिक सोनपुर के सभी ग्रामीणों पर आईपीसी की धारा 109 (किसी साजिश में मदद करनेवाले), 114 (घटनास्थल पर मौजूद सभी लोगों पर केस), 115 (कोई अपराध जिसकी सजा मौत या आजीवान कारावास, वैसी घटना में शामिल लोगों को सात साल की सजा और फाइन), 117 (कोई अपराध जिसमें दस से अधिक लोग शामिल हैं उसे तीन साल की सजा), 121 (सरकार के खिलाफ लड़ाई), 121ए (सरकार के खिलाफ ज्यादा लोग मिलकर साजिश), 124ए (राजद्रोह), 186 (सरकारी अधिकारी उनकी ड्यूटी करने से रोकना, सरकारी काम में बाधा), 290 (पब्लिक न्यूसेंस), 353/34 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है.

एफआईआर की कॉपी

गांव के वार्ड पार्षद राजेंद्र सिंह मुंडा (46) कहते हैं, मोतीलाल मुंडा और पारा टीचर सोनाराम मुंडा को जेल भेजा जा चुका है. सबरन मुंडा और संतोष मुंडा के घर कुर्की जब्ती की गई है. राजेंद्र मुंडा इस बात से पूरी तरह अंजान हैं कि उनके गांव के एक-एक बच्चे और महिलाओं पर भी यह केस दर्ज है.

सोनपुर के किसान मित्र मनोज सिंह मुंडा (38) ने बताया कि पत्थलगड़ी को लेकर गांव में दो गुट हैं. एक जो इसका समर्थन करता है, दूसरा इसका विरोधी है. वहीं बुजुर्ग शिवनाथ पातर (61) ने कहा कि जब सरकार का खाते हैं तो उसकी थाली में छेद कैसे कर देंगे.

मनोज मुंडा के बताए दूसरे गुट के कुछ लोगों से इस मसले पर बात करने की कोशिश की. किसान गोपाल सिंह मुंडा (42) पहले तो कुछ भी बोलने से इंकार करते रहे. फिर उन्होंने कहा, ऐसा केस हमलोग पर है, इसकी जानकारी तो नहीं है. बीच में टोकती हुई सुलोचना (28) ने बताया कि गांव में बराबर पुलिस आती रहती है. उसके आते ही लोग खेतों की ओर भाग जाते हैं. गांव में कुल मतदाता 595 हैं. राजेंद्र मुंडा के मुताबिक गांव में 800 से अधिक लोग रहते हैं.


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खूंटी जिला मुख्यालय से आठ किलोमीटर दूर जिकिलता और उदबुरू में अधिकतर ग्रामीण घर छोड़कर भाग चुके हैं. जिकिलता गांव के ग्रामीण मंगरा मुंडा (42) बहुत अनुरोध के बाद उन्होंने बस इतना कहा कि गांव में जो भी लोग बचे हुए हैं, जब भी पुलिस आती है, भाग जाते हैं. उदबुरू के ग्रामीणों ने भी यही बात दुहराई.

वहीं एक और प्रभावित गांव कोचांग पंचायत के मुखिया सुखराम मुंडा की बीते 7 जुलाई को हत्या भी कर दी गई है. वह भी इस मामले में नामजद थे. हत्या से कुछ माह पहले हुई एक मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा था कि अब वह सरकार के साथ हैं. लेकिन उनपर जो केस चल रहे हैं, सरकार को उसे वापस लेना चाहिए.

इसके साथ ही राज्य के 20 सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों पर भी मुकदमा दर्ज है. इनपर आरोप है कि इन्होंने इस आंदोलन के दैरान आदिवासी स्वशासन के बारे में सोशल साइट्स पर लिखकर देश के विरुद्ध माहौल बनाया.
नपर सरकार ने राजद्रोह कानून के तहत मामला दर्ज किया है.

नमें से चार लोगों सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी, पत्रकार-लेखक विनोद कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता अलोका कुजूर और राकेश रोशन कीड़ो के खिलाफ वारंट जारी किया गया है. अन्य जिनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है उसमें जादूगोड़ा माइंस आंदोलन से जुड़े घनश्याम बिरुली, थियोडोर किड़ो, वाल्टर कंडूलना, विनोद केरकेट्टा सहित कुछ और लोग शामिल हैं.

बीती 22 जुलाई को राजभवन के सामने झारखंड जनाधिकार मंच के बैनर तले 11 से अधिक संगठनों ने इसके खिलाफ धरना दिया. धरने के दौरान प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने कहा था कि झारखंड सरकार का पत्थलगड़ी के प्रति रवैया आदिवासियों के वाजिब और अहिंसक मांगों के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है. यहां एक प्रेस रिलीज भी जारी किया गया जिसके मुताबिक 30 हजार लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज है.

खूंटी सिविल कोर्ट से 19 जुलाई तो चारों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है. आलोका ने बताया कि उनके पास 12 एफआईआर की कॉपी मौजूद हैं. इसके मुताबिक कुल 10960 लोगों पर मुकदमा दर्ज किया गया है. उन्होंने यह नहीं बताया कि 30 हजार लोगों का आंकड़ा किस आधार पर जारी किया गया.

 केस वापस लेने पर आंदोलन क्या खत्म हो जाएगा

आंदोलन के दौरान साफ कहा गया कि पत्थलगड़ी वाले इलाके में किसी भी सरकारी अधिकारी या दिकू (बाहरी व्यक्ति) को बिना अनुमति घुसने नहीं दिया जाएगा. सरकारी व्यवस्था जैसे स्कूल, सरकारी योजना, वोटर, आधार, राशन कार्ड का बहिष्कार किया गया. उसे जला दिया गया. अपना स्कूल शुरू किया गया. इसके साथ ही भारतीय नोट का बहिष्कार कर अपना नोट और रिजर्व बैंक बनाने की बात हुई.

कहा गया आदिवासी ही इस देश के मालिक है, मालिक का चुनाव नहीं होता है, नौकरों का चुनाव होता है, इसलिए चुनाव में शामिल नहीं होना है.

पुलिसिया कार्रवाई के बाद भारी संख्या में गिरफ्तारी हुई. आंदोलन धीमा पड़ गया. एक गांव में पत्थलगड़ी वाले पत्थल को गिरा भी दिया गया. बचे हुए आंदोलनकर्मी भाग गए. लेकिन यह पूरी तरह से बंद नहीं हुआ था.

बीते 14 अक्टूबर को खूंटी जिले के ही गुटीगड़ा गांव के डउगरा टोला में पत्थलगड़ी समर्थकों की एक विशाल रैली आयोजित की गई. पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगी. नाम न छापने की शर्त पर यहां के स्थानीय ने बताया कि गुजरात से कुछ लोग आए थे, जिन्होंने इसको संबोधित किया. यहां 11 पेज की एक पची बांटी गई.

यह कॉपी बांटी गई/ फोटो: विशेष प्रबंध पर

द प्रिंट को मिली इस पर्ची में साफ लिखा है कि हम आदिवासी ‘आम आदमी’ नहीं हैं. आदिवासी जमीन का मालिक है. वे वोट नहीं देते हैं. भारतीय एवं नौकरी करनेवाले वोट देते हैं. आदिवासी जिस भाग में निवास करेंगे वह स्वशासन व्यवस्था से संचालित होगा. ये सुप्रीम कोर्ट की जजमेंट 1971 भारत देश प्राकृतिक रूलिंग से संचालित होगा, ये सुप्रीम कोर्ट का फैसला 07.09.2001 जनादेश वंधारण (कुदरती) रूलिंग सर्वोपरि है.

साथ ही नियम बनाया गया है जिसमें: 

गैर आदिवासियों के पर्व त्योहार में नहीं जाना
-दिकू ब्राह्मणों के हाथ से कुछ नहीं लेना
आदिवासी लोग कुदरती एवं प्राकृतिक शक्ति से संचालित होते हैं
-आदिवासियों का धर्म कॉलम या कोड नहीं होता है
-आदिवासी लोग एक जगह पर भीड़ लगाकर पूजा नहीं करते हैं
-घर में भगवान की फोटो, मूर्ति नहीं रखते हैं
-आदिवासियों का धर्मग्रंथ नहीं होता है
-मनुष्य के पेट से पैदा होनेवाले को भगवान नहीं मानते हैं

आदिवासी लोग गैर आदिवासियों से किसी प्रकार का रिश्ता-नाता नहीं रखते हैं. वह किसी संस्थान केंद्र या राज्य सरकार से संचालित नहीं होते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार नीरज सिन्हा कहते हैं, ‘आंदोलन का फिर से शुरू होना इस बात पर निर्भर करता है कि जो लोग जेल गए हैं, बाहर आने पर उनका रवैया क्या होता है. कुछेक नेतृत्वकर्ताओं को छोड़ दें तो सबसे अधिक ग्राम प्रधान इस वक्त जेल में हैं. आंदोलन में अगर लोग जुट भी रहे थे तो उनकी ही बदौलत.’


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उनके मुताबिक, ’अगर पुरानी मांगों को लेकर ही फिर से आगे बढ़ा जाता है तो इस सरकार के लिए भी उसे मानना संभव नहीं है. नीरज आगे कहते हैं यह आंदोलन संवैधानिक तौर पर थोड़ा भटकाव की राह पर शुरूआत से ही रहा है. इस दौरान खूंटी के लोगों ने काफी कुछ खोया है.’

सामाजिक कार्यकर्ता आकाश रंजन कहते हैं, ‘अगर ये सरकार पेसा कानून को लागू कर देती है. वहां के स्कूलों को ठीक कर देती है, तो मुझे नहीं लगता कि आंदोलन फिर से शुरू होगा. जहां तक सरकारी सिस्टम से खुद को ऊपर या उससे बाहर रहनेवाली जो मांग थी, उसे जायय नहीं माना जा सकता.’

सबकुछ वर्तमान सरकार के आगामी फैसलों पर निर्भर करता है. एक सवाल का जवाब आज भी खोजा जा रहा है- इस आंदोलन का कारण क्या था, इसके दोषी कौन थे. अगर आदिवासी जो आंदोलन कर रहे थे, वह दोषी नहीं है तो उनपर अत्याचार करनेवाले पुलिस अधिकारियों की पहचान होगी? क्या उनपर कार्रवाई होगी? अगर लोग दोषी थे तो उनको उससे बाहर कैसे निकाला जा रहा है?

(लेखक झारखंड से स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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