भारतीय जनता पार्टी के निंदकों के लिए मौजूदा दौर उत्साहजनक है. उन्हें लगता है कि भाजपा अपनी पराकाष्ठा को छू चुकी है – कम से कम विधानसभा चुनावों में तो ऐसा दिख ही रखा है. पर भाजपा के रणनीतिकार इस आकलन को खारिज करते हैं. उनका कहना है कि राजनीति कोई पर्वतारोहण नहीं है कि चोटी फतह करने के बाद नीचे उतरना पड़े. उनका आदर्श यूक्रेन के पोल वॉल्टर सर्गेई बुबका हैं. भाजपा के एक प्रमुख रणनीतिकार ने शुक्रवार को इस लेखक से कहा, ‘बुबका अपने ही रिकॉर्ड को बेहतर करते रहे. उन्होंने 35 बार विश्व रिकॉर्ड तोड़े. हम ऐसा ही कर सकते हैं.’
भाजपा के आलोचकों को ये बात अविश्वसनीय लग सकती हैं, खास कर मौजूदा दौर में जबकि पार्टी को रक्षात्मक मुद्रा में होना चाहिए.
परस्पर विपरीत दृष्टिकोण
फिलहाल दो परस्पर विपरीत नज़रिए दिख रहे हैं. भाजपा के विरोधी हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के हाल के विधानसभा चुनाव परिणामों को मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ जनादेश और लोगों की एक गैर-भाजपाई विकल्प की आकांक्षा के रूप में देखते हैं. राज्यों में सत्ता छिनने को लेकर भाजपा नेता निराश तो हैं पर इन चुनाव परिणामों में उन्हें उम्मीद की एक किरण दिखाई देती है – पार्टी के वोट शेयर में वृद्धि.
भाजपा के रणनीतिकार ने निश्चिंतता और आत्मविश्वास भरे लहजे में कहा, ‘हमें बस 40 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करना है, और फिर (सर्वाधिक मत पाने वाले की जीत वाली प्रणाली में) विपक्षी दलों के इकट्ठा होने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा.’
भाजपा को इस बात अहसास है कि उसकी स्थिति बीते दिनों की कांग्रेस जैसी हो गई है जब तमाम राजनीतिक दल – वे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय स्तर के, राजनीतिक सहयोगी हों या विचारधारा के स्तर पर विरोधी – उसे अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानते थे. इसीलिए भाजपा ने 40 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर को अपना लक्ष्य बनाया है.
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2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने कुल वैध मतों का 37.76 प्रतिशत हासिल किया था जोकि 2014 के मुकाबले 6 प्रतिशत अंक अधिक था. इसी तरह 2019 में 16 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में भाजपा का वोट शेयर 50 प्रतिशत या अधिक रहा था, हालांकि उसे एनडीए गठबंधन में शामिल रहते हुए यह उपलब्धि हासिल हुई.
जब 2024 में अगला लोकसभा चुनाव होगा, तो 2019 में राज्य स्तर पर ही गठबंधन बना सके विपक्षी दल शायद कहीं अधिक संगठित हों और भाजपा के मौजूदा सहयोगी दल भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने के खातिर भगवा दल के साये से बाहर निकलने की बाध्यता महसूस करें.
‘मोदी के जादू’ का असर अब भी कायम रहने को देखते हुए भाजपा भले ही 2024 में लक्षित वोट शेयर को हासिल करने की उम्मीद करे, पर राज्यों में इसकी संभावना के मद्देनजर ऐसा नहीं कहा जा सकता है. इसकी वजहें हैं जिस पर कि हम आगे विचार करेंगे.
दूसरा घटनाक्रम जिसने भाजपा के विरोधियों को उत्साहित किया है वो है नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और भारतीय राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरआईसी) के खिलाफ, खास कर छात्रों का, स्वत:स्फूर्त विरोध प्रदर्शन. पर इससे सत्तारूढ़ दल भी उत्साहित है. भाजपा नेताओं का वामपंथी उदारवादियों, सुर्खियों में रहने वाले एक्टिविस्टों और, बेशक, राहुल गांधी पर ‘भरोसा’ है कि वे सीएए-एनपीआर-एनआरसी मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम विवाद में बदल देंगे. भाजपा एनआरसी मुद्दे का असम और पश्चिम बंगाल में चुनावी फायदा उठाना चाहती थी लेकिन अब उसे इसमें कहीं अधिक संभावनाएं दिखने लगी हैं.
दो बच्चों की नीति, भाजपा का अगला बाउंसर
विपक्षी नेताओं को लगता है कि उन्होंने एनआरआईसी पर भाजपा को घेर लिया है और यह सोचकर वे रोमांचित हो रहे हैं. उन्हें इस बात का भान नहीं है कि सत्तारूढ़ दल उन्हें अस्थिर करने के लिए एक और बाउंसर फेंकने वाला है – आबादी के स्थिरीकरण के लिए दो बच्चों की नीति. जनसंख्या विस्फोट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चिंता जताने के चार महीने बाद, नीति अयोग इस बारे में नीतिगत मसौदा तैयार करने के लिए विचार-विमर्श कर रहा है. पश्चिम बंगाल में 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव के वक्त इस मुद्दे पर ध्रुवीकरण कराने वाली व्यापक बहस छिड़ने की उम्मीद की जा सकती है. कांग्रेस इस मुद्दे पर पहले से ही विभाजित है.
राज्यों में मोदी-शाह की विफलताएं
इसलिए भाजपा को विपक्षी दलों को लेकर अधिक चिंता नहीं होनी चाहिए. सत्तारूढ़ दल को आंतरिक चुनौतियों को लेकर चिंतित होना चाहिए जोकि राज्य के चुनावों में 40 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करने में बाधक बनते रहेंगे. सर्वप्रमुख चुनौती जनाधार वाले नेताओं को आगे बढ़ाने में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की नाकामी को लेकर है. उन्होंने ऊपर से नेताओं को थोपने की नीति अपनाई है – महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस, हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर और झारखंड में रघुवर दास – जोकि नाकाम साबित हुए हैं.
भाजपा के मौजूदा 13 मुख्यमंत्रियो और उप-मुख्यमंत्रियों में से कोई भी भरोसा दिलाने वाला नहीं है. उदाहरण के लिए, उत्तरप्रदश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया जाता है पर गोरखपुर से आगे उनके समर्थक दिखाई नहीं देते. उनकी प्रशासनिक क्षमताओं के बारे में जितना कम कहा जाया उतना बेहतर. उत्तराखंड में उनके समकक्ष, मोदी और शाह का एक और प्रयोग, त्रिवेंद्र सिंह रावत भी नाकाम ही साबित हुए हैं. और गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी के पद पर बने रहने का एकमात्र कारण यही हो सकता है कि मोदी के गृहराज्य में कुर्सी पर कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.
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कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा और अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू के अलावा भाजपा मुख्यमंत्रियों में आज एक भी ऐसा नहीं है जिसका कि जनाधार हो. खांडू जहां कांग्रेस से आयातित हैं, वहीं येदियुरप्पा भाजपा की मजबूरी हैं, नकि पसंद. भाजपा हाईकमान ने अपने दम पर लोकप्रियता हासिल करने वाले नेताओं को हमेशा ही कमजोर करने की कोशिश की है – येदियुरप्पा, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह ऐसे नेताओं में शुमार हैं.
राजस्थान में, राजे को भले ही पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार का सामना करना पड़ा हो, पर राज्य में जनाधार वाली एकमात्र भाजपा नेता वही हैं. राजस्थान में 2003 में उन्होंने पार्टी को पहली बार स्पष्ट बहुमत दिलाया था, जोकि भैरोंसिंह शेखावत तक से संभव नहीं हो सका था. राजे 2008 में पार्टी को जीत नहीं दिला पाईं, पर 2013 में पहले के मुकाबले बड़े बहुमत से उन्होंने सत्ता में वापसी की. भाजपा हाईकमान ने किसी कारण कभी उनको पसंद नहीं किया और पार्टी में उनके विरोधियों को आगे बढ़ाने का काम किया है – ओम बिरला को लोकसभा अध्यक्ष और गजेंद्र सिंह शेखावत को केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बनाया जाना.
राजस्थान में कई चुनाव हारने के बाद पहली बार विधायक बने सतीश पूनिया को भाजपा का पहला जाट प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया. इस नियुक्ति के जरिए राजे को सीधा संदेश दिया गया कि राजस्थान के मामलों में भाजपा हाईकमान उनकी कोई भूमिका नहीं देखता है.
अन्य राज्यों के कद्दावर नेताओं को भी ऐसे ही संदेश दिए गए हैं. मध्यप्रदेश में शिवराज चौहान के प्रतिद्वंद्वी कैलाश विजयवर्गीय अमित शाह से निकटता के कारण बहुत ताकतवर बनके उभरे हैं, पर जनाधार के मामले में वह चौहान के इर्दगिर्द भी नहीं फटकते.
अधिकांश राज्यों में भाजपा अस्तव्यस्तता की स्थिति में है और उत्तरोत्तर मामला बिगड़ता ही दिखता है क्योंकि पार्टी को नए नेता देने का मोदी-शाह का प्रयोग विफल हो चुका है.
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