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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतअर्थव्यवस्था पर संकट के बीच राजनीतिक महत्वाकांक्षा दर्शाती है कि भाजपा की प्राथमिकताएं सही नहीं है

अर्थव्यवस्था पर संकट के बीच राजनीतिक महत्वाकांक्षा दर्शाती है कि भाजपा की प्राथमिकताएं सही नहीं है

भाजपा सोचती है कि अगले आम चुनावों से पहले अर्थव्यवस्था में सुधार आने लगेगा. लेकिन इस तरह की सतही अटकलें तब तक पूरी नहीं हो सकतीं जब तक आज की दिशा को जल्दी उलटा नहीं जाता.

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अर्थव्यवस्था जिस तरह टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चल रही है और शासक दल जितने महत्वाकांक्षी राजनीतिक कदम उठा रहा है वे सब इतने स्पष्ट हैं कि उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल की शुरुआत से ही यह साफ हो चुका है कि इस सरकार के लिए राजनीति अर्थव्यवस्था से ज्यादा अहम है, और यह स्थिति 2014 में गद्दी संभालते ही नरेंद्र मोदी द्वारा दिए गए संदेश के बावजूद है. आज यह द्वंद्व ज्यादा स्पष्ट हो चुका है कि मोदी सरकार के लिए अर्थव्यवस्था राजनीतिक कर्म के बुनियादी नियमों को बदलने की कोशिश से कम महत्व रखती है. और इस बदलाव के लिए संघ परिवार के उन पुराने मताग्रहों को लागू किया जाता है, जिनके बारे में आप यह कह सकते हैं कि भाजपा को इन्हीं की बदौलत चुनावों में जनादेश मिला.

ऐसा पहले भी एक बार हो चुका है, जब इंदिरा गांधी अपने राजनीतिक वर्चस्व और अपने लिए कहीं ज्यादा बड़ा जनादेश हासिल करने के लिए जद्दोजहद कर रही थीं. करीब पचास साल पहले, इसने उन्हें वामपंथी आर्थिक दिशा की ओर कानूनी झुकाव लेने को उकसाया था- बड़े पैमाने पर राष्ट्रीयकरण, श्रम तथा दूसरे मामलों में प्रतिबंधात्मक क़ानूनों, और कड़े भूमि कानूनों को लागू करने को. उस समय राजनीति को जो अहमियत दी गई उसकी कीमत अर्थव्यवस्था आज भी चुका रही है. क्या इतिहास फिर दोहराया जाएगा?

बड़े बदलाव टकराव के बिना नहीं आते. और चारों तरफ काफी टकराव दिख रहा है, जो सर्वव्यापी बदसूरती के अलावा है. इसमें नागरिकों के विभाजनकारी राष्ट्रीय रजिस्टर की आशंका से उभरी नई व्याख्याएं भी शामिल हैं. भाजपा चाहे जितनी भी हावी क्यों न हो गई हो, घरेलू राजनीतिक स्थिति राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तरों पर परस्पर विरोधी परिदृश्य प्रस्तुत कर रही है. और इस तरह भाजपा के लिए चुनौतियां जारी हैं. हिंदी पट्टी को हिंदुत्व के एजेंडा के बूते जीतने की कोशिश ने इसे उस परिधि के रू-ब-रू खड़ा कर दिया है जिसके भीतर तमाम तरह की अल्पसंख्यक आबादियां मौजूद हैं. इसके नतीजों की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. पूर्वोत्तर में ‘इनर लाइन सिस्टम’ जैसी अस्थायी व्यवस्था को मजबूत और विस्तृत किया जा रहा है. लेकिन इससे देश का नये रूपों में विभाजन हो रहा है. इससे असम का तो समाधान नहीं ही हो रहा है, कश्मीर में तालाबंदी लगातार पांचवें महीने भी जारी है.


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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, जिन वजहों से पश्चिमी उदारवादी लोकतंत्रों ने अधिनायकवादी चीन की जगह भारत को तरजीह दी थी, वह भी महत्वपूर्ण तरीके से, ताकि साझा मूल्य द्विपक्षीय रिश्तों के ठोस आधार बन सकें वे मूल्य आज सवालों के घेरे में आ गए हैं. अमेरिका और यूरोप में आलोचनात्मक आवाजें उठ रही हैं, और वे तेज होंगी. पड़ोस में इसका असर बांग्लादेश में दिखने लगा है, जबकि सुस्त भारतीय अर्थव्यवस्था को चीन से मिल रही चुनौतियों का सामना करना मुश्किल होता जाएगा. भारत की तरह चीन की गति सुस्त नहीं हुई है. दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के कारण भारत एक आकर्षक बाज़ार बना रहेगा. लेकिन गति में आई सुस्ती का असर दूसरे देशों की पसंद में प्रतिबिम्बित हो सकता है. आर्थिक कूटनीति अगर व्यापार और शुल्कों के मामले में उलटी दिशा पकड़ लेती है तो इससे कोई मदद नहीं मिलेगी और व्यापार के क्षेत्र में टकराव का खतरा पैदा हो सकता है.

2020 में कुछ आर्थिक सुधार की अपेक्षा रखना जायज हो सकता है मगर पुरानी वृद्धि दर पर लौटने की हताश जरूरत को पूरा करने के रास्ते में कई भयावह बाधाएं हैं. वित्तीय क्षेत्र की समस्याएं अभी खत्म नहीं हुई हैं और खासकर मझोले एवं लघु उद्यमों को संघर्ष करना पड़ रहा है. कृषि क्षेत्र की समस्याएं वास्तविक हैं, और निर्यातक यथार्थपरक मौद्रिक नीति के कारण परेशान हैं. ‘मैक्रो’ आर्थिक आख्यान में असंभव वित्तीय स्थिति की कहानी भी शामिल है क्योंकि केंद्र सरकार अपने खर्चों के लिए पैसे नहीं जुटा पा रही है, जीएसटी (जो चुनाव से पहले दरों में की गई मनमानी कटौतियों के कारण और भीषण हो गई) से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के कारण असहनीय टैक्स लगाए जा रहे हैं, मौद्रिक नीति की सीमाओं की उपेक्षा के कारण गतिरोध का खतरा पैदा हो गया है. कदमों को उठाने की गुंजाइश सीमित हो रही है.

जीएसटी से आय में कमी का मतलब यह है कि सरकार ने प्राइवेट गूड्स के सार्वजनिक प्रावधान (जिनमें किसानों को चुनाव से पहले किया गया नकदी भुगतान शामिल है) का जो वादा किया है उसे सरकारी खजाना अब गंभीर वित्तीय घाटे और संभवतः बेहद महंगे कर्ज़ के बिना पूरा नहीं कर सकता. यह कर्ज़ जीडीपी के अनुपात में सरकारी कर्ज़ का स्तर और बढ़ा देगा. इस बात से भी कोई मदद नहीं मिली है कि परिवहन के बुनियादी ढांचे में भारी निवेश से अपेक्षित नतीजे नहीं हासिल हुए हैं, जबकि ऊर्जा क्षेत्र लागत की गंभीर समस्याओं से ग्रस्त है.


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राजनीतिक वर्चस्व और उसकी गतिविधियों के नियमों में बदलाव की भाजपा की कोशिश यही दर्शाती है आज की परिस्थितियों के मद्देनजर प्राथमिकताओं को तय करने में गंभीर चूक हो रही है, गर्त से उबरना असंभव हो सकता है. शायद सोचा यह गया है कि अगला चुनाव आने से पहले तक अर्थव्यवस्था में सुधार हो जाएगा. लेकिन इस तरह की सतही अटकलें तब तक पूरी नहीं हो सकतीं जब तक आज की दिशा को जल्दी उलटा नहीं जाता. सरकार का ध्यान इसी पर ज्यादा होना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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