scorecardresearch
Thursday, 2 May, 2024
होममत-विमतमोदी का सीएबी यही साबित करता है कि भारतीय राजनीति में पूर्वोत्तर की आशंकाओं और चिंताओं के लिए जगह नहीं

मोदी का सीएबी यही साबित करता है कि भारतीय राजनीति में पूर्वोत्तर की आशंकाओं और चिंताओं के लिए जगह नहीं

पूर्वोत्तर जल रहा है क्योंकि लोगों को पता है कि स्थानीय मूल आबादी की पहचान को सुरक्षित रखने की कोई व्यवस्था नहीं है.

Text Size:

विरोध के बावजूद नागरिकता संशोधन विधेयक को पारित कराने के नरेंद्र मोदी सरकार के अड़ियल रुख से पूर्वोत्तर भारत के लोगों के मन में लंबे समय से बनी ये धारणा मानो सही साबित हो गई है कि भारत के व्यापक राजनीतिक लक्ष्यों और उद्देश्यों के संदर्भ में उनकी भावनाओं, चिंताओं और आशंकाओं की कोई कद्र नहीं है.

असम और त्रिपुरा में व्यापक हिंसा, पूर्वोत्तर के इन राज्यों में शासन की नाकामी के मद्देनज़र बने निराशा के गहरे भाव को दर्शाता है. एक तरह से नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) इस निराशा के अंतत: गुस्से के रूप में बाहर निकालने की वजह बना है.

मोदी सरकार के सीएबी में इस बात का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा गया है कि पूर्वोत्तर के समुदाय अपना खुद का सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवेश विकसित कर चुके हैं. परंपराओं और संस्कृति का उनका खुद का तंत्र है जिस पर बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के प्रवासियों को वहां बसने की अनुमति देने वाले कानून का बहुत ही बुरा असर पड़ेगा.

आपत्तियों और विरोध की उपेक्षा

नागरिकता संशोधन विधेयक को पहली बार 2016 में जब लोकसभा में पेश किया गया था, तभी से इसको लेकर पूर्वोत्तर राज्यों, खास कर असम में बेचैनी का माहौल रहा है. क्षेत्र के सभी आठ राज्यों को शुरू से ही पता है कि इस विधेयक का, जो अब कानून है, स्थानीय मूल आबादी पर क्या प्रभाव पड़ेगा.

मणिपुर, असम और नागालैंड में उग्र विरोध प्रदर्शनों ने गृहमंत्री अमित शाह को, विधेयक को लोकसभा में पेश किए जाने के छह दिन पहले 4 दिसंबर को, इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों और प्रदर्शनकारी समूहों के प्रतिनिधियों से परामर्श के लिए बैठक आयोजित करने पर मजबूर कर दिया.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें : अब मोदी सरकार ने सिद्ध कर दिया है कि वो न केवल पाकिस्तान की तरह बोलती है, सोचती और काम भी करती है


चिंता का ये माहौल हर तरफ देखने को मिल रहा है. ये लोगों के इस सहज ज्ञान की वजह से है कि मूल आबादी की पहचान को सुरक्षित रखने की कोई व्यवस्था नहीं की गई है. उन्हें पता है कि उनके राज्य में और अधिक प्रवासी आने से मूल समुदायों की वर्तमान सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति प्रभावित होगी.

नए कानून में अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, नागालैंड और मणिपुर शामिल नहीं है क्योंकि इन राज्यों में 1873 के बंगाल पूर्वी सीमांत अधिनियम द्वारा आरंभ इनर लाइन परमिट (आईएलपी) व्यवस्था लागू है. साथ ही, असम और मेघालय के उन स्वायत्त परिषदों और जिलों को भी कैब 2019 से बाहर रखा गया है, जिन्हें कि संविधान की छठी अनुसूची के तहत विशेष कार्यकारी और विधायी शक्तियां हासिल हैं.

मुख्य चिंता जनसांख्यिकी बदलावों की

नए कानून के संदर्भ में आईएलपी प्रणाली से जुड़ा यह विचारणीय सवाल अनुत्तरित है कि क्या इसके प्रावधान इन इलाकों को पड़ोसी राज्यों और क्षेत्रों में बड़ी संख्या में प्रवासियों की आमद के ‘अप्रत्यक्ष’ प्रभावों से सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त हैं.

इस बारे में त्रिपुरा के मूल समुदायों का मामला उल्लेखनीय है. दशकों से त्रिपुरा में अवैध प्रवासी आते रहे हैं और आज वहां के मूल निवासी अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्यक हैं. जनसांख्यिकी बदलाव सबसे बड़ी चिंता है क्योंकि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर इसका सीधा असर पड़ता है. साथ ही, नए कानून ने असम आंदोलन के छह वर्षों के संघर्ष, जोकि असम समझौते से समाप्त हुआ था, की उपलब्धियों को पूरी तरह निष्प्रभावी बना डाला है.

नई दिल्ली में 15 अगस्त 1985 को भारत सरकार के प्रतिनिधियों और असम आंदोलन के नेताओं ने असम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. इसमें ‘24 मार्च, 1971’ को अवैध प्रवासियों की पहचान के वास्ते अंतिम समय-सीमा घोषित किया गया था. लेकिन 34 वर्षों के बाद अब छह धर्मों के प्रवासियों के लिए इस कट-ऑफ तारीख को 31 दिसंबर 2014 तक आगे खिसका दिया गया है.


यह भी पढ़ें : भारत के उदारवादी और हिंदुत्ववादी नागरिकता विधेयक पर बहस में जिन्ना को घसीटना बंद करें


कैब 2019 में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर भी विरोधाभास है. उल्लेखनीय है कि असम के एनआरसी में 24 मार्च 1971 की मध्यरात्रि तक असम में बसे लोगों को शामिल किया गया है. लेकिन कैब के मौजूदा प्रावधानों के अनुसार एनआरसी में अवैध प्रवासी करार दिए गए बंगाली हिंदू (बांग्लादेश से आने वाले) अब वैध नागरिक हैं. ये सिर्फ विरोधाभास ही नहीं है बल्कि एनआरसी प्रक्रिया के उद्देश्यों के विपरीत भी है.

इसके अलावा, जनजातीय समुदाय में जनसंख्या वृद्धि दर भी उतनी तेज नहीं मानी जाती है. वास्तव में जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 2001 से 2011 के दशक में नागालैंड की आबादी में कुल 8,034 की गिरावट दर्ज की गई है. जनगणना के 2011 के आंकड़ों के अनुसार नागालैंड की आबादी 19,80,602 थी, जबकि 2001 में राज्य की आबादी 19,88,636 रिकॉर्ड की गई थी.

और अंत में, सीएबी, तकनीकी रूप से, धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान किए जाने को वैध बना देगा. नागालैंड के नेताओं को पता है कि वे जनजातीय समुदायों के समक्ष ये दावा नहीं कर सकते हैं कि कैब के दायरे से बाहर रहने मात्र से उनके हितों की रक्षा सुनिश्चित हो सकेगी. यदि उन्होंने ऐसा किया, तो बेहतर है वे पड़ोसी असम में लगी आग के बीच क्षितिज पर गति पकड़ रहे तूफान का सामना करने के लिए तैयार रहें.

(लेखिका नागालैंड टुडे की संपादक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments