शिवसेना भाजपा से दशकों पुरानी दोस्ती खत्म करके, अब गैर-भाजपाई मोर्चे में आ चुकी है और एक नई शुरुआत करने जा रही है. बेशक उसके अतीत पर सांप्रदायिकता और उग्र प्रांतवाद की छाया है, लेकिन बदली राजनीतिक परिस्थितियों में उसका भविष्य खुद को बदलने में है. अगर वह ऐसा कर पाती है, तभी उसकी नई शुरुआत मानी जा सकती है.
शिवसेना का उदय मुंबई में परप्रांतियों, खासकर क्लर्क, एकाउंटेट और स्टेनो जैसी नौकरियों में दक्षिण भारतीयों के बढ़ते वर्चस्व का विरोध करने को लेकर हुआ था. शिवसेना का उदय एक खास स्थिति में हुआ था. यह प्रांत गुजरात से अलग होकर बना और गुजरातियों का मुंबई पर जिस तरह का असर था, उसके प्रतिकार को शिवसेना ने अपना आधार बनाया.
महाराष्ट्र, खासकर मुंबई में महाराष्ट्र के लोगों को इनका ‘हक’ दिलाने से शिव सेना की शुरुआत हुई. शिवसेना के विरोधी बदलते रहे, लेकिन महाराष्ट्र में महाराष्ट्र के लोगों को अवसर और सम्मान दिलाने के उसका नारा हमेशा बना रहा. एक खास परिस्थिति में शिवसेना ने मुसलमानों को विरोधी के तौर पर पेश किया और यहीं से उसके बीजेपी के पास आने का आधार बना. शिवसेना ने जब ये भांप लिया का रामजन्मभूमि आंदोलन की ताप बहुत ज्यादा है और राजनीति में उसका लंबा असर रहेगा, तभी उसने अपनी चाल बदल ली.
शिवाजी के नाम पर बनी थी शिवसेना
शिवसेना के नाम को कई लोग भगवान शिव के नाम से जुड़ा मान लेते हैं, लेकिन वास्तव में उसका नाम छत्रपति शिवाजी के नाम पर रखा गया था. यह मराठी अस्मिता का प्रतीक रहा है. शिवसेना का हिंदूवादी पार्टी बनना तो वास्तव में भाजपा की संगत का ही असर था. तब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा एक सीमा से ज्यादा उग्र हिंदुत्व की वकालत नहीं कर पाती थी और ऐसे में उसे एक ऐसे संगठन की जरूरत थी जिसके पास ऐसी कोई मर्यादा न हो और कार्यकर्ताओं की भरपूर फौज हो.
शिवसेना को भी जब एक राष्ट्रीय दल पिछलग्गू के तौर पर मिलता दिखा, तो उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा स्वाभाविक रूप से बढ़ी. जोशीले भाषणों के जरिए शिवसेना ने अपनी छवि उग्र हिंदुत्व की बना ली और महाराष्ट्र की राजनीति में अहम स्थान पा लिया.
राजनीतिक लिहाज से देखा जाए तो यह शिवसेना की कामयाब रणनीति थी. ठीक उसी तरह से जैसे कि अभी कुछ साल पहले असदुद्दीन ओवैसी के भाई अकबरुद्दीन ओवैसी ने ’15 मिनट के लिए पुलिस हटा लो’ वाला बयान देकर सुर्खियां बटोरीं और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी एआईएमआईएम को पहचान दिला दी. ये पार्टी अब देश के तमाम राज्यों में चुनाव लड़ने लगी है और छिटपुट सफलता भी पाने लगी है.
यह भी पढ़ें : एनसीपी, कांग्रेस और भाजपा के लिए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे राज के मायने
अब सवाल ये है कि बदलते दौर में शिवसेना के लिए पुरानी छवि को लेकर चलना ही बेहतर होगा या विकासोन्मुखी और सबको साथ लेकर चलने वाले दल के रूप में नए सहयोगियों के साथ आगे बढ़ना फायदेमंद होगा?
नई राह पर बढ़ने का मिला फायदा
तात्कालिक फायदा तो उसे मिला ही है और ऐसे वक्त में उसे मुख्यमंत्री पद भी मिल गया. जबकि उसका जनाधार और सीटें तेजी से कम हो रही थीं. आगे भी वह इसी राह पर चलती है तो उसके लिए भविष्य की काफी संभावनाएं बनती हैं, वहीं अगर वह पुरानी छवि को लेकर चलती है तो उसका भाजपा के साये में विलुप्त होने का खतरा है.
भाजपा परप्रांतियों के मुद्दे पर तो उससे आगे निकल ही चुकी है और उसके शासन के हरियाणा जैसे राज्य भी बाहरी लोगों को नौकरियां देने का विरोध करने लगे हैं. गुजरात में तो यूपी और बिहार से आए लोगों की पिटाई का दौर भी शुरू हो चुका है.
सांप्रदायिकता के मसले पर भी भाजपा गुजरात दंगों के बाद, अखिल भारतीय स्तर पर मॉब लिंचिंग और मुसलमानों की प्रताड़ना में काफी आगे निकल चुकी है. ऐसे में शिवसेना इस खेल में उसे पछाड़ पाएगी, ऐसी संभावना नहीं दिखती.
भाजपा है शिवसेना की मुख्य विरोधी
महाराष्ट्र में भाजपा अब वैसे भी हर हाल में शिवसेना को खत्म करने पर तुली है. 2014 में भी जब शिवसेना और भाजपा अलग होकर चुनाव लड़ी तो भाजपा 124 सीटें लेकर काफी आगे निकल गई थी और शिवसेना 62 तक गिर गई थी. उसके बाद शिवसेना को अपमानित होकर भाजपा का ही साथ देना पड़ा, लेकिन भाजपा का अपनी जूनियर पार्टनर बन चुकी शिवसेना की जड़ें खोदने का काम जारी रहा.
2019 के विधानसभा चुनावों से पहले भी भाजपा ने समझौते में शिवसेना से ज्यादा सीटें लेने का दबाव बनाया और शिवसेना इस शर्त पर मान गई कि सीटें ज्यादा हों या कम, सत्ता की भागीदारी फिफ्टी-फिफ्टी ही होगी. भाजपा को लगता था कि वह अकेले ही 145 से ऊपर या और भी ज्यादा सीटें पा जाएगी तो शिवसेना को अलग करके भी सरकार बना लेगी. इस सोच के साथ भाजपा तैयार हो गई, लेकिन परिणाम प्रतिकूल आए तो शिवसेना ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ गई.
भाजपा इस वादे से इसीलिए मुकर गई क्योंकि अब वह शिवसेना को दोबारा संजीवनी किसी भी सूरत में नहीं देना चाहती. इसी प्रयास में वह ऑपरेशन लोटस में लग गई जिसे उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने कांग्रेस के सहयोग से फेल कर दिया.
कई सुविधाएं भी हैं नए खेमे में
शिवसेना का धर्मनिरपेक्ष खेमे में आना बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि कांग्रेस का साथ परोक्ष रूप से वह कई बार देती रही है. दूसरे, अब भाजपा की चुनौती के सामने उसे अपनी नई छवि बनाना भी जरूरी है. आक्रामकता वह बरकरार रख सकती है क्योंकि भाजपा भी आक्रामक तेवरों के साथ है, लेकिन अपराधों और भ्रष्टाचार में फंसे भाजपाइयों पर कड़ी कार्रवाई करके शिवसेना उसे महाराष्ट्र में कमजोर कर सकती है.
शिवसेना के सामने चुनौतियां हैं तो कई सुविधाएं भी हैं. उसके पास अब कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल का सहारा है तो शरद पवार जैसे चतुर दिग्गज का सानिध्य भी है. केंद्र में भाजपा को कमजोर करने के लिए कांग्रेस को शिवसेना को आगे बढ़ाने में कोई संकोच नहीं होगा और शरद पवार से भी शिवसेना का सीधा टकराव नहीं रहा है.
यह भी पढ़ें : बीजेपी भले ही राज्यों में सिकुड़ रही हो लेकिन विचारधारा फल-फूल रही है
मजबूत विपक्ष होने के नाते भाजपा महाराष्ट्र में अघाड़ी सरकार के लिए मुश्किलें पैदा कर सकती है और केंद्रीय एजेंसियों का सहारा भी ले सकती है, लेकिन शिवसेना की आक्रामकता अगर बरकरार रहती है, तो भाजपा इस मंसूबे में ज्यादा सफल नहीं हो सकेगी.
अन्य राज्यों में गैर-भाजपा दल भाजपा के खिलाफ अपेक्षित आक्रामकता नहीं दिखा पा रहे हैं और इस मामले में शिवसेना उनके लिए भी प्रेरक बन सकती है और केंद्र में भी अपनी अहमियत बढ़ा सकती है. वैसे भी राजनीतिक लाभ के लिए कई दल धर्मनिरपेक्षता की नीति छोड़कर सांप्रदायिक दलों के साथ जाते रहे हैं, तो इसका रिवर्स भी हो सकता है. नए माहौल में, जब शिवसेना देश के अन्य गैर-भाजपाई दलों के साथ बैठेगी, तब उसकी सोच अधिक राष्ट्रीय भी हो सकेगी.
किसानों की भलाई, युवाओं को रोजगार, बेहतर कानून-व्यवस्था और भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने की नीति पर अगर शिवसेना गठबंधन सरकार के साथ आगे बढ़ेगी, तो उसे भावनात्मक मुद्दों की जरूरत पड़ेगी ही नहीं. उद्धव ठाकरे के विधायक बेटे आदित्य ठाकरे इसी सोच के साथ आगे बढ़ते दिखते भी हैं.
शिवसेना के सामने बेहतर राजनीतिक परिस्थितियां आ चुकी हैं कि वह विकासोन्मुखी और कड़ा प्रशासन देकर अपनी स्थिति मजबूत करे.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है)