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Sunday, 19 May, 2024
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शरद पवार के पावर के सामने पस्त हो गई भाजपा

पवार के राजनीतिक दांव-पेंचों की सूची बड़ी लंबी है. एक समय उनके संबंध शिवसेना से ठीक-ठाक थे, लेकिन बाद में उसी शिवसेना को किनारे करने की जिम्मेदारी भी उन्होंने निभाई. इस बार उन्होंने एक और बड़ा खेल कर दिया.

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महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले, एनसीपी नेता शरद पवार को इन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट यानी ईडी के जरिए फंसाने की कोशिश भाजपा को इतनी भारी पड़ी कि अब वह देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य में सत्ता-सुख से वंचित होने जा रही है. शरद पवार ने बढ़ती उम्र के बावजूद अपना दम कुछ इस तरह से दिखाया कि भाजपा की न केवल सीटें कम हुईं, बल्कि उसकी सहयोगी पार्टी शिवसेना भी उससे अलग हो गई. विपरीत ध्रुवों वाली कांग्रेस और शिवसेना के साथ एनसीपी का गठबंधन करके शरद पवार ने नई सरकार भी बनवा दी.

शरद पवार ने इस तरह से एक बार फिर साबित किया कि वो राजनीति के सही मायनों में धुरंधर हैं और उनके सामने किसी भी चाणक्य की नीति नहीं चल सकती.

पचास साल से ऊपर के अपने राजनीतिक जीवन में पवार ने कई चुनौतियों और उतार-चढ़ाव का सामना सफलतापूर्वक किया, लेकिन इसके पहले उन्हें आपराधिक मामलों में फंसाने की कोशिश किसी ने नहीं की. इस बार भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने ऐसा करने की कोशिश की तो उसे मात देकर पवार ने अपनी पावर साबित कर दी.

शरद पवार का राजनीतिक करियर

राजनीतिक दांव-पेंचों में माहिर शरद पवार ने अपनी राजनीति कांग्रेस के साथ शुरू की थी और तीन बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उन्होंने कई बार कांग्रेस को पटखनी भी दी, और कई बार कांग्रेस के लिए सहारा भी बने. ये पवार का कौशल रहा कि हर बार उन्होंने जितने भी दल-बदल या गठबंधन किए, उनके दांव कभी उल्टे नहीं पड़े और हमेशा उनका कद बढ़ाने में मददगार ही रहे.

कांग्रेस से विधायक और अपने राजनीतिक गुरु यशवंतराव चव्हाण और फिर शंकरराव चव्हाण के मंत्रिमंडल में मंत्री रहने के बाद, जब देवराज अर्स के नेतृत्व में कांग्रेस अर्स का गठन हुआ तो उसमें शामिल होकर पवार ने पहली बार कांग्रेस से अलग राह चुनी थी. हालांकि जल्द ही उन्होंने कांग्रेस अर्स से अलग होकर जनता पार्टी के साथ प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाया और सरकार बनाई. इस तरह वे केवल 38 साल की उम्र में महाराष्ट्र के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने.

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बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस (सोशलिस्ट) के नेता के रूप में नेता प्रतिपक्ष रहने के बाद पवार 1987 में कांग्रेस में लौटे. इसी समय महाराष्ट्र में शिवसेना का उभार होने लगा था. 1988 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण को राजीव गांधी ने केंद्र सरकार में मंत्री बनाया तो मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें शरद पवार से बेहतर कोई और नेता न सूझा.


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पवार ने भी कांग्रेस में अपनी नई भूमिका का निर्वाह दम से किया और शिवसेना के साथ गठबंधन कर चुकी भाजपा को मात देते हुए मार्च 1990 में फिर से सरकार बनाने में सफल रहे. इस बार कांग्रेस की सीटें बहुमत से कुछ कम यानी 141 थीं, लेकिन निर्दलीयों के सहयोग से मुख्यमंत्री बने पवार ने कुछ ही समय बाद शिवसेना को करारी चोट दी और बड़ी संख्या में उसके विधायकों को तोड़ लिया और कांग्रेस की ताकत 177 तक पहुंचा दी.

प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी

शरद पवार के मजबूत कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद, पीवी नरसिम्हा राव, एनडी तिवारी और अर्जुन सिंह के साथ शरद पवार भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो गए थे. आखिर बाजी नरसिम्हा राव के हाथ लगी लेकिन शरद पवार केंद्र सरकार में रक्षामंत्री बनाए गए.

शरद पवार का कद पहले से तो बढ़ गया था, लेकिन वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए. इसका जिम्मेदार उन्होंने सोनिया गांधी को माना और बाद में अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाकर, सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर इसका बदला भी लिया. इसी कारण सोनिया बाद में प्रधानमंत्री नहीं ही बन पाईं.

पवार के रक्षामंत्री बनने के बाद मुख्यमंत्री बने थे सुधाकर राव नाइक लेकिन जब मुंबई दंगों के बाद राज्य की हालत बिगड़ने लगी तो शरद पवार को ही केंद्र छोड़कर फिर से महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री पद संभालना पड़ा.

पवार के खिलाफ बीएमसी के डिप्टी कमिश्नर रहे जीके खैरनार और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए और आंदोलन छेड़ा, लेकिन शरद पवार के राजनीतिक कद पर कोई असर नहीं पड़ा.

1997 में पवार ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को भी चुनौती दी और उनके खिलाफ पार्टी अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा. केसरी के खिलाफ चुनाव लड़ने वालों में राजेश पायलट के साथ पवार भी रहे. हालांकि, इसके बाद ही उनका मन कांग्रेस से उचट गया और आखिरकार सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर उन्होंने पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ मिलकर एनसीपी बना ली.

कांग्रेस छोड़ने के बाद भी पवार कांग्रेस का मजबूत सहारा बने रहे. 1999 में कांग्रेस की विधानसभा चुनावों में हार का बड़ा कारण बनने के बाद उन्होंने कांग्रेस के साथ ही मिलकर सरकार बनवाई. इसके बाद 2004 और 2009 में भी महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार एनसीपी के साथ मिलकर ही बनी.

राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी

पवार जहां झटका देना जानते हैं, वहीं एक कदम पीछे हटना भी उनकी चालों में शामिल रहा है. यही कारण है कि 2004 में महाराष्ट्र में उन्होंने अपनी पार्टी की सीटें कांग्रेस की सीटों से ज्यादा होते हुए भी मुख्यमंत्री का पद कांग्रेस को देने में कोई ना-नुकर नहीं की.

देखा जाए, तो वही परंपरा इस समय शिवसेना-भाजपा गठबंधन के टूटने के कारण बनी क्योंकि शिवसेना कम सीटें होते हुए भी अपना सीएम अब चाहती थी और भाजपा इसके लिए तैयार नहीं हुई.

पवार के राजनीतिक दांव-पेंचों की सूची बड़ी लंबी है. एक समय उनके संबंध शिवसेना से ठीक-ठाक थे, लेकिन बाद में उसी शिवसेना को किनारे करने की जिम्मेदारी भी उन्होंने निभाई.

2014 में भी जब शिवसेना, भाजपा को समर्थन देने के बदले सौदेबाजी करना चाहती थी, तब शरद पवार ने ही भाजपा को समर्थन की पेशकश करके शिवसेना को झुकने पर मजबूर किया था. दरअसल, वहीं से शिवसेना और भाजपा के बीच दरार पड़ गई.


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राजनीतिक विश्लेषकों को पवार का ये दांव तब समझ में नहीं आया था, लेकिन वे जान गए थे कि भाजपा और शिवसेना को आगे चलकर अलग करने के लिए ये कदम जरूरी है. हुआ भी यही, शिवसेना के सामने अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया और जिसको बचाने के लिए वह आधे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री पद पर अड़ गई और भाजपा के राजी न होने पर वह उन्हीं शरद पवार के दरवाजे नतमस्तक हो रही है.

पवार ने महाराष्ट्र में 2014 में सरकार बनाने में परोक्ष रूप से भाजपा की मदद कर दी थी, तो 2019 में भाजपा को निपटाने में भी उनका ही बड़ा योगदान रहा. नेतृत्व और आपसी टकराव के संकट से जूझ रही कांग्रेस तो महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना के सामने ज्यादा दम नहीं दिखा पाई, लेकिन अपने खिलाफ ईडी की कार्रवाई से खार खाए शरद पवार ने बढ़ती उम्र के बावजूद पूरी ताकत झोंक दी. नतीजतन, 200 पार का सपना देख रही भाजपा 2014 की 124 सीटों की तुलना में और नीचे गिरकर 105 तक आ गई.

मौजूदा हालात में, पवार ही महाराष्ट्र में पावर के सेंटर बने हुए हैं. शिवसेना भाजपा का साथ छोड़कर उनकी शरण में है, कांग्रेस किसी कुशल रणनीतिकार के अभाव में पवार के इशारे पर चलने में ही बेहतरी समझ रही है, और भाजपा पर तो सरकार से बाहर होने का कहर टूटा ही है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है)

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