2004 के लोकसभा चुनाव के समय तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अजेय नजर आ रहे थे. मीडिया से लेकर चुनावी पंडितों तक सबको यही लग रहा था कि अटल बिहारी की एक बार फिर से वापसी होने जा रही. लेकिन वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा समर्थित एनडीए की हार हर किसी के लिए किसी सदमे से कम नहीं थी.
अब, मोदी के आलोचकों को भी यही लग रहा है कि कुछ ऐसा ही 2019 में भी होने वाला है.
वर्तमान समय में ग्रामीण अर्थव्यवस्था 2004 के जैसे ही धीमी दिखाई दे रही. बढ़ती बेरोजगारी, और गिरती अर्थव्यवस्था की भयानक रिपोर्ट के आने के बाद भी लोगों में ये उत्सुकता है कि सत्ता विरोधी लहर आखिर बन क्यों नहीं पा रही. खैर, हिंदी पट्टी में सत्ता बदलाव की एक हवा बन रही है जिसे मीडिया और सर्वेक्षण करने वाले पकड़ नहीं पा रहे. हालांकि, इसबार स्थितियां 2004 के मुकाबले काफी अलग हैं.
1.पीएम-किसान: सब्सिडी बांटने की जगह सशक्तिकरण पर जोर देने वाली विचारधारा से उलट जाकर मोदी सरकार आखिरी क्षण में लोकलुभावन वादों के साथ मैदान में उतर आई है. पीएम-किसान स्कीम ने पहले ही देश के बहुत सारे किसानों को 2000 रुपयों के अलावा बाकी राशि वित्तीय वर्ष के खत्म होने से पहले दो इंस्टालमेंट में देने की बात कही है. यह राशि उन किसानों को ध्यान में रखकर आवंटित की जा रही है जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम की जमीन है. स्विंग वोटर्स माने जाने वाले ये मतदाता, खासकर निचली पिछड़ी जाति के हैं, जिन पर मोदी अपना ध्यान साधे हैं.
2.रुर्बन इंडिया: भारत जितना ग्रामीण साल 2004 में था, उतना अब नहीं रहा. 2011 की जनगणना के दौरान जो आंकड़ा था आज यह उससे कहीं ज्यादा शहरी है. अब ‘रुबर्न’ भारत का उदय देखने को मिल रहा है. यानी ऐसी जगहें जो न तो पूरी तरह से गांव हैं और न ही शहर. गांव और शहरों के बीच की दूरी नई सड़कों के बनने, केबल टीवी के फैलने और स्मार्टफोन के आने से कम हुई है.
3.बालाकोट स्ट्राइक: फरवरी में पाकिस्तान के साथ बढ़े सैन्य तनाव ने 2019 लोकसभा चुनाव को ‘युद्ध’ वाला चुनाव नहीं बनाया है. पाकिस्तान और आतंकवाद भाजपा के लिए चुनावी मुद्दा नहीं था. लेकिन बालाकोट हमले ने मोदी को इसे ‘राष्ट्रीय’ चुनावी मुद्दा बनाने में मदद की. इसने विपक्ष को यह चुनाव स्थानीय स्तर पर ले जाकर मोदी फैक्टर को कम करने की कोशिशों को असफल कर दिया. जब 2004 में एनडीए को हार मिली थी तब अरुण जेटली ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘जाति और क्षेत्रीय मुद्दे वाजपेयी के राष्ट्रवादी मुद्दों पर भारी पड़ गए. 2019 में हुए बालाकोट हमले ने मतदाताओं को यह याद दिलाया कि रक्षा से जुड़ा मामला राष्ट्रीय मुद्दा है और उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए.
4. मोदी ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे नहीं लगा रहे: मोदी और उनकी पार्टी ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे नहीं लगा रही है. बहुत सारे लोगों को जिनमें खुद लाल कृष्ण आडवाणी शामिल हैं, उन्होंने माना कि यह नारा भारी पड़ गया था. कांग्रेस पार्टी का काउंटर नारा था ‘आम आदमी को क्या मिला?’
मोदी इस मामले में बहुत चालाक हैं. वो इंडिया शाइनिंग के झांसे को नजरअंदाज कर रहे हैं. उनका मुख्य मुद्दा यह नहीं है कि उन्होंने भारत को महान बना दिया, बल्कि वो उम्मीदों से परे जाते हुए अब ‘ मोदी है तो मुमकिन है.’ के नारे लगा रहे हैं. अच्छे दिन के वादे से अब वो चीजों को काम करने लायक बनाने की बात कर रहे. 2014 में किए गए बड़े वादों के बाद अब सुनने में आ रहा कि मोदी केवल एक चौकीदार हैं.
यह मोदी की रणनीति का एक हिस्सा है. जिसमें वो इच्छाओं को लंबित कर रहे हैं. वो हमेशा से कहते हुए सुने जा रहे, ‘चीजें होंगी, होने वाली हैं, हो जाएंगी.’ उन्होंने शायद ही कहा हो कि इंडिया शाइनिंग (सब कुछ ठीक हो गया है). अब पीठ थपथपाई जाए.
उन्होंने हाल ही में कहा था, ‘मैंने यह कभी नहीं कहा कि मैंने सारे काम पूरे कर लिए हैं. देश की सत्ता पर 70 सालों तक राज करने वाले लोग जब सारे सपनों को पूरा नहीं कर पाए, तो मैं केवल पांच सालों में इसे कैसे पूरा कर पाउंगा.?’ एक तरह से वो इंडिया शाइनिंग के झांसे को नजरअंदाज कर रहे हैं.
5. नई रणभूमि: साल 1999 में बिहार में 23 सीटें जीतने वाली भाजपा को 2004 के लोकसभा चुनाव में केवल 5 सीटें मिली थीं. उत्तर प्रदेश में भी वो 29 से 10 सीटों पर आ गए थे. भाजपा ने 2014 लोकसभा चुनाव में हिंदी पट्टी में सबसे ज्यादा सीटें जीती थीं. भाजपा समझ रही है कि अब चाहे उत्तर प्रदेश में 71 सीटों का करिश्माई प्रदर्शन दोहराना हो या राजस्थान और गुजरात में हर सीटों पर 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना हो, दोनों असंभव है.
इसलिए वाजपेयी की रणनीति से उलट उसने अपनी रणभूमि उत्तर प्रदेश से हटाकर बंगाल और ओडिशा शिफ्ट कर ली है. हिंदी पट्टी में होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए वो दो पूर्वोत्तर राज्यों में अपनी संभावनाएं तलाशने में जुटी है. ये सब होने से पहले भाजपा अपनी जीत के हरसंभव प्रयास को सफल बनाने में जुटी हुई है. जिससे माहौल अपने पक्ष में किया जा सके.
6. अपने सहयोगी दलों के प्रति नरम रुख अपनाना: 2004 में केवल भाजपा को ही सीटों का नुकसान नहीं हुआ था, बल्कि उसके सहयोगी दलों को भी हार का मुंह देखना पड़ा था. 1999 में 29 सीटें जीतने वाली तेलगु देशम पार्टी 2004 के चुनाव में केवल 5 सीटों पर सिमट गई. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ बड़े सहयोगी दल नहीं हैं. जो उसके साथ हैं, उनमें केवल अकाली दल के खराब प्रदर्शन करने की संभावना है. स्पेशल राज्य का दर्जा मांगने वाले टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू को मोदी ने बड़ी चालाकी से अपने से अलग होने दिया. इससे मोदी के पास जगन मोहन रेड्डी और केसीआर राव के साथ गठबंधन बनाने के विकल्प खुले हैं. चुनाव पूर्व बनने वाले हल्के गठबंधन से अगर जरूरत पड़ी तो मोदी के पास विकल्प खुले रहेंगे.
7. कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ: यह भी हमेशा से एक डिबेट का विषय रहता है कि क्या 2002 में हुए गुजरात दंगे की वजह से 2004 के लोकसभा चुनाव में हार मिली. लेकिन वाजपेयी को हमेशा से लगता था कि ये भी एक कारण रहा होगा. अगर यह मान लेते हैं कि वो सही भी रहे होंगे( उसके कारण चाहो कुछ भी हो) तो पिछले पांच सालों में 2002 जैसा सांप्रदायिक दंगा देखने को नहीं मिला है.
अगर इसको दूसरे ढ़ंग से देखें तो 2004 में भाजपा को 25 फीसदी सीटों का नुकसान हुआ था, अगर वो फिर से दोहराया गया तो यह संख्या 282 से घट कर 212 तक पहुंच जाएगी. जिसके बाद भी पार्टी गठबंधन के भरोसे सरकार बनाने में कामयाब हो सकती है.
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