जब उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का गठबंधन हुआ तब कई लोगों ने टिप्पणी की थी कि यह सांप नेवले का गठबंधन है. मगर यह अतिशयोक्ति थी. दोनों के बीच पहले भी गठबंधन हुआ था. जो चुनावी तौर पर सफल भी हुआ तभी तो नारा निकल – मिले मुलायम कांशीराम हवा हो गया जय श्रीराम. यह बात अलग है कि बाद में यह गठबंधन टूट गया. मगर सांप और नेवले का असली गठबंधन पश्चिमी बंगाल में हुआ है. भाकपा और माकपा के बीच . हालांकि यह गठबंधन अनौपचारिक ज्यादा है क्योंकि यह गठबंधन दो दलों के बीच नहीं है. भाजपा और माकपा एक दूसरे के पैदाइशी दुश्मन है जो एक दूसरे को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करते. मगर इस चुनाव में माकपा के कार्यकर्त्ता भाजपा की मदद कर रहे हैं. चुनाव की माया अपरंपार है जो दुश्मनों को भी मित्र बना देती है.
जब तक सत्ता होती है सब कुछ सधता रहता है. मगर सत्ता जाते ही बुरे दिनों का पहाड़ टूट पड़ता है. साड़े तीन दशक माकपा और वाम मोर्चा पश्चिमी बंगाल में सत्ता में थे. तब तक सब ठीकठाक था. मगर जबसे तृणमूल ने सत्ता से उखाड़ फेंका है वाम मोर्चा असहाय हो गया है. सरकार तो सरकार प्रमुख विपक्ष भी नहीं रहा. वामदलों की जन्मजात विरोधी भाजपा प्रमुख विपक्ष बन गई है. नतीजतन जिंदगीभर लाल सलाम करनेवाले कामरेड अब केसरिया सलाम करने को मजबूर हो गए हैं. धर्म को जनता की अफीम मानने वाले कामरेड धर्मसंकट में पड़ गए हैं. संकट यह है कि पार्टीलाइन मानकर पार्टी के उम्मीदवारों को वोट करें और अपना वोट बेकार गंवाएं या पार्टीलाइन से हटकर टैक्टीकल वोटिंग करें और बंगाल की सबसे हिंसक तृणमूल सरकार को हराएं भले ही इसके लिए उन्हें कम्युनल भाजपा के कमल पर मुहर क्यों न लगानी पड़े.
पश्चिम बंगाल के वाम दलों को के कार्यकर्ताओं में इस मुद्दे को लेकर लंबे समय से बहस चल रही थी. मगर चुनाव के पांच चरण बीत जाने के बाद चुनाव समीक्षकों को ख़्याल आ रहा है कि यह चुनाव भी गजब है इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि जिसमें सांप और नेवले के बीच गठजोड़ हुआ है. इस तरह के गठबंधन की कल्पना तो किसी कवि ने भी नहीं की होगी. पहले जो बात केवल वाम पार्टियों के कैडर के बीच चर्चित थी मगर जब चुनावों में वह जगजाहिर हो गई . तो नेता खंडन करने लगे. तब लोगों को पता चला कि राज्य में अंदरखाने में ममता को हराने के लिए गठबंधन काम कर रहा है. भाजपा और माकपा के कार्यकर्त्ताओं का. जब नेतृत्व नकारा साबित होता है तो कार्यकर्त्ताओं को कमान संभालनी पड़ती है. यही पश्चिम बंगाल में हुआ. लोगों का ध्यान इस तरफ तब गया जब माकपा नेताओं के खंडन के बयान आने लगे. एक कहावत है खंडन स्वीकृति लंक्षणम.
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राज्य माकपा के महासचिव सूर्यकांत मिश्रा को कहना पड़ा- भाजपा ने सोच चलाई है कि वाम तृणमूल को नहीं हटा सकता इसलिए लोग भाजपा को वोट करें. वाम के वोटरों द्वारा राजनीतिक छलांग लगाकर भाजपा को वोट करने की परिघटना पर पुरुलिया जिला सचिव प्रदीप राय ने कहा– ‘आप कार्यकर्ताओं पर तो अनुशासन रख सकते हैं मगर वोटरों पर नहीं. फिर भी हमें उम्मीद है कि हमारा बहुसंख्य वोटर हमारे साथ बने रहेंगे.’ भाजपा को माकपा काडर से मिल रहे सहयोग को भांपते हुए ममता ने पार्टी कार्यकर्ताओं को सावधान रहने को कहा है. अपनी रैलियों में वह कहती रहती हैं, सीपीएम कार्यकर्ता ऐसा फिर कर रहे हैं. उनसे सावधान रहें, वे हमारे शत्रुओं की मदद कर रहे हैं. सतर्क और होशियार रहिए..
बंगाल में जमीनी स्तर पर चल रही उठापटक के बारे में त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री और माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य माणिक सरकार ने माकपा कार्यकर्ताओं को चेतावनी दी कि खुद को तृणमूल कांग्रेस से बचाने के लिए बीजेपी को चुनने की गलती मत करें. त्रिपुरा में देखिए. सिर्फ महीनों के दौरान उन्होंने त्रिपुरा में जो किया वह टीएमसी के आतंक से बहुत आगे है. उन्हें न्योता मत दीजिए. यह एक भयंकर भूल होगी. यह एक आत्मघाती फैसला होगा.’
वैसे यह बता दें कि गठबंधन भाजपा और माकपा पार्टियों के बीच नहीं है. पार्टी के आम कार्यकर्त्ताओं ने पार्टी की खस्ता हालत और तृणमूल के बढ़ते जुल्मों सितम को देखकर फैसला लिया है. जैसी संभावना थी, वैसे ही पश्चिम बंगाल के वाममोर्चे के हालात ठीक नहीं है. लोकसभा चुनाव का पांचवां चक्र समाप्त होते-होते पूरे राज्य में अनेक स्थानों पर हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं.
अलबत्ता, पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसक घटनाएं हमेशा शामिल रही हैं और शेष देश से अलग यहां ऐसी घटनाओं पर लोगों को बहुत ज्यादा आश्चर्य भी नहीं होता. पहले 34 सालों तक वाम मोर्चे का शासन रहा हो या पिछले सात सालों से चल रहा तृणमूल का दौर, स्थानीय स्तर पर प्रभुत्व बनाए रखने के लिए हिंसा और खून-खराबा यहां आम बात रही है. पहले वामदल जैसी खूनी राजनीति करते थे उस तरह की ही खूनी राजनीति करके ममता ने वामदलों के शासन को उखाड़ फेंका. मगर इस वजह से पश्चिम बंगाल की वही हालत हो गई जो कभी बिहार की थी . इसलिए ही पश्चिमी बंगाल में सात चरण में चुनाव कराए जा रहे हैं.बड़े पैमाने पर केंद्रीय बलों की तैनाती करके.
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तीन दशकों के लेफ्ट के शासन के बाद पश्चिम बंगाल की जनता ने साल 2011 में ममता बनर्जी को वोट दिया था. उन्हें उम्मीद थी कि कोई पोरिबर्तन (बदलाव) होगा. लेकिन आज वही लोग ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं क्योंकि यह बदलाव उनके लिए डरावना सपना साबित हुआ. ममता बनर्जी ने मां, माटी और मानुष के नाम पर राज्य की जनता को धोखा दिया . मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में किसी अन्य विचारधारा के पनपने के लिए कोई जगह नहीं दिखाई देती . इसका सबसे बड़ा नुक्सान वामदलों को ही हुआ है जो राज्य की राजनीति में चौथे नंबर पर पहुंच गए हैं.
राज्य में वामदलों और कांग्रेस को पीछे छोड़कर भाजपा दूसरे नंबर पर पहुंच गई है. अब मुकाबला तृणमूल और भाजपा के बीच ही है. हार जीत का फैसला दोनों के बीच ही होनेवाला है. वामदलों और कांग्रेस के बीच कोई गठबंधन न हो पाने से उनकी संभावनाएं बिल्कुल खत्म हो गई हैं. इस कारण उन्हें वोट देना अपना वोट गंवाने की तरह है.
ममता बनर्जी की सरकार किस तरह हिंसक और लोकतांत्रिक है इसकी झलक पिछले साल हुए पंचायत चुनाव में ही बहुत साफ दिख गई थी. लगभग 34 प्रतिशत सीटों पर कोई चुनाव नहीं हुआ था और तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी निर्विरोध चुनाव जीत गए थे. चुनाव में लगभग 20 लोग मारे गए.
पहले ही कहा जा चुका है कि हिंसा बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य का अविभाज्य हिस्सा बन गई है और जानमाल के नुकसान के बगैर इस राज्य में निर्वाचन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. निस्संदेह यह भारत के संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ है, लेकिन इस दुर्भाग्यपूर्ण सच से आंखें बंद नहीं की जा सकतीं.
पश्चिमी बंगाल में पॉलीटिक्स बहुत पहले खत्म हो चुकी है. अब यह राजनीतिक हिंसा प्रतिष्ठान और सत्ता प्रतिष्ठान है. जो पहले कम्युनिस्टों की चेरी हुआ करता था बाद में ममता का औजार हो गया है. ममता बनर्जी ने बीजेपी, कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और माओवादियों पर आरोप लगाया कि बंगाल में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ हाथ मिला लिए हैं.
वाम से जुड़े कई बुद्धिजीवियों मानना है कि इस बार स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे हिंसक शासन के खिलाफ असाधारण चुनाव होने जा रहे हैं . इस हालत में बहुत रणनीतिक तरीके से यानी टेक्टीकल तरीके से वोटिंग करनी होगी. क्योंकि लोग छोटी बुराई को चुनना पसंद करते हैं. मगर बंगाल में वाम का तेजी ह्रास हुआ है. चुनाव में भी वह तीसरे नंबर पर रही. ऐसी स्थिति में उसे दिया गया वोट बेकार ही जाएगा. ऐसी स्थिति में कामरेड अपनी पार्टी को भले ही न जीता सकें मगर रणनीतिक मतदान करके अपनी सबसे बड़ी विरोधी तृणमूल को जरूर कमजोर कर सकते हैं.
कई बुद्धिजीवी इस सोच से सहमत हैं. दिप्रिंट में छपी एक परिचर्चा के मुताबिक आदित्य निगम कहते हैं कि इस बार असाधारण स्थिति है . पश्चिमी बंगाल में स्वतंत्र भारत का सबसे हिंसक शासन सत्ता में है. ऐसे में टेक्टीकल वोटींग करना महत्वपूर्ण हो जाता है. कई लोग सोचने लगे हैं कि छोटी बुराई को क्यों न चुना जाए. पिछले दशक में वाम दलों का निरंतर ह्रास हो रहा है ऐसे में लोगों को चुनाव में उसके पक्ष में वोटिंग करना मुश्किल हो रहा है. जो लोग तृणमूल के घोर विरोधी है उनको यह कडुवी दवा निगलनी पड़ेगी क्योंकि वाममोर्चे का दिया गया वोट बेकार जाएगा. वाममोर्चा पहले तृणमूल से पिछ़ड गया ,फिर भाजपा से. यदि राज्य में भाजपा विरोधी महागठबंधन बनता तो भी स्थिति बेहतर हो सकती थी .
टीएमसी के बढ़ते हमलों से परेशान सीपीएम वर्कर्स बूथ और वॉर्ड लेवल पर बूथ मैनेजमेंट में बीजेपी की मदद कर रहे हैं. यहां तक कि जिन वॉर्डों में लेफ्ट की थोड़ी भी पकड़ है वहां सीपीएम काडर चुपचाप बीजेपी के लिए प्रचार कर रहा है. मिसाल के तौर पर राजधानी कोलकाता की अहम संसदीय सीट उत्तर कोलकाता में नये राजनीतिक समीकरण बनने के संकेत मिल रहे हैं.
यहां तृणमूल कांग्रेस को पराजित करने की भाजपा की कोशिशों को बल मिलने लगा है. उत्तर कोलकाता में माकपा के निचले दर्जे के हजारों कार्यकर्ताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया है और भाजपा के लिए काम कर रहे हैं. यहां से तृणमूल के उम्मीदवार सुदीप बनर्जी को हराने के लिए माकपा के कार्यकर्ता घर-घर जा रहे हैं और लोगों से भाजपा के पक्ष में मतदान करने की अपील कर रहे हैं.
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किसी भी पार्टी का नेता और कार्यकर्ता हो, उन्हें इस बात पर पूरा भरोसा है कि केवल भाजपा एक ऐसी पार्टी है जो बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल को धूल चटा सकती है. इसीलिए लोग भाजपा पर भरोसा कर रहे हैं. उल्लेखनीय है कि ममता बनर्जी पहले से ही दावा करती रही हैं कि पश्चिम बंगाल में भाजपा को माकपा से मदद मिल रही है.
वैसे लाल झंड़े और केसरिया का मिलन बंगाल में कोई बिल्कुल नई बात नहीं है. पंचायत चुनावों में भी ऐसा हुआ था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को हराने के लिए नदिया जिले में हाथ मिला लिए थे. माकपा के जिला स्तर के एक नेता ने इसे ‘सीट बांटने के लिए एक औपचारिक सामंजस्य’ बताते हुए कहा कि पार्टी को कई सीटों पर ऐसा करना पड़ा क्योंकि कई गांववाले तृणमूल के खिलाफ आर-पार की लड़ाई चाहते थे. दोनों दलों में यह भाईचारा अप्रैल 2018 के आखिरी हफ्ते में दिखना शुरू हुआ था जब दोनों दलों ने पंचायत चुनाव प्रक्रिया के दौरान तृणमूल कांग्रेस की कथित हिंसा के खिलाफ नदिया जिले के करीमपुर-राणाघाट इलाके में एक संयुक्त विरोध रैली का आयोजन किया था. इस रैली के दौरान दोनों दलों के कार्यकर्ता अपने अपने झंडे लेकर पहुंचे थे.
वैसे माकपा के कार्यकर्ता अपनी इस मजबूरी को अपनी रणनीति भी बताते है . वहां नारा लगाया जा रहा है कि 19 में तृणमूल हाफ और 21 में तृणमूल साफ. अब देखना यह है कि लाल और केसरिया का यह मिलन लोकसभा चुनाव में क्या गुल खिलाता है.
(लेखक दैनिक जनसत्ता मुंबई में समाचार संपादक और दिल्ली जनसत्ता में डिप्टी ब्यूरो चीफ रह चुके हैं। पुस्तक आईएसआईएस और इस्लाम में सिविल वॉर के लेखक भी हैं.)