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Sunday, 22 December, 2024
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वाराणसी की जंग: मोदी के लिए केजरीवाल से कैसे अलग होंगे चंद्रशेखर ‘रावण’

महागठबंधन जब एक साथ आया तो यूपी के उपचुनावों में बीजेपी को सीएम योगी आदित्यनाथ और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य से लेकर कैराना जैसी सीटें तक हारनी पड़ी.

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नई दिल्ली: सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से जुड़ी अपने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट गुरुवार शाम को जारी कर दी. इस लिस्ट के आने के बाद उन अटकलों पर विराम लग गया है जिनमें पीएम नरेंद्र मोदी के वाराणसी की जगह किसी और सीट से लड़ने की बात कही जा रही थी. इससे पहले तेज़ी से उभरते दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ ने दिल्ली के जंतर-मंतर से बड़ा एेलान किया था. 15 मार्च को किए गए इस एेलान में उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ वाराणसी से चुनाव लड़ने की बात कही थी.

पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय राजनीति के दिग्गज अरविंद केजरीवाल ने भी ऐसी ही कोशिश की थी. लेकिन दिल्ली में कांग्रेस की दिग्गज नेता और तीन बार की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को 2013 के विधानसभा चुनाव में धूल चटाने वाले केजरीवाल को मोदी के सामने मुंह की खानी पड़ी. ऐसे में सवाल उठता है कि एक निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मोदी के ख़िलाफ़ ताल ठोकने वाले ‘रावण’ पीएम के लिए केजरीवाल से अलग कैसे होंगे?


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दिल्ली वाले, उत्तर प्रदेश वाले का अंतर

2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने 70 सीटों में 67 सीटें जीतकर ये साफ कर दिया कि भारतीय राजनीति में अरविंद केजरीवाल की ‘पिक्चर अभी बाकी’ है. लेकिन 2014 का लोकसभा चुनाव हो या 2017 का पंजाब विधानसभा चुनाव, इनके नतीजों ने भी साफ कर दिया की दिल्ली के बाहर केजरीवाल की अपील बेहद सीमित है. इन दोनों ही चुनावों में आप के पक्ष में भविष्यवाणियों के उलट केजरीवाल की पार्टी को दुर्गति झेलनी पड़ी. इसकी एक वजह ये बताई जाती है कि लगभग मुद्दों पर राजनीति करने वाले केजरीवाल यूपी-बिहार समेत देश के अन्य राज्यों में होने वाली पहचान अाधारित राजनीति से जुड़े वोटरों को अपील नहीं करते और ‘दिल्ली वाले’ की छवि तक सिमट कर रह जाते हैं. हालांकि, दिल्ली में उन्हें जब-जब मौका मिला तब-तब उन्होंने ‘बनिया कार्ड’ खेलने से कोई परहेज़ नहीं किया. लेकिन दिल्ली के बाहर की जातिगत राजनीति का गणित बनियों तक सीमित नहीं है जिसकी वजह से वो बस ‘दिल्ली वाले’ होकर रह जाते हैं.

इस मामले में चंद्रशेखर को केजरीवाल के ऊपर बढ़त हासिल है. उत्तर प्रदेश के बनारस से मोदी के ख़िलाफ़ कमर कस चुके ‘रावण’ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से आते हैं. उनकी राजनीति का जन्म ही पहचान आधारित लड़ाई के बाद हुआ. दरअसल, 2017 में सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलितों और सवर्णों के बीच एक झड़प हुई थी. इस दौरान एक दलति संगठन ‘भीम आर्मी’ का नाम सबके सामने आया. हालांकि, भीम आर्मी का गठन 2014 में ही हुआ था. लेकिन इस घटना ने उन्हें सबकी निगाहों में ला दिया. दलितों के इस संगठन के संस्थापक और अध्यक्ष चंद्रशेखर हैं, जिनका उपनाम ‘रावण’ है. ऐसे में जब वो बनारस पहुंचेंगे तो केजरीवाल के उलट उनके पास ‘यूपी वाले दलित नेता’ की पहचान होगी. इसकी वजह से राजनीति में ‘ओबीसी कार्ड’ खेल चुके गुजरात से आने वाले पीएम मोदी के ख़िलाफ़ इस बार कोई दिल्ली वाला नहीं, बल्कि यूपी का एक युवा दलित चेहरा होगा.

कमज़ोर मुद्दे -जाति बनाम मज़बूत मुद्दे +जाति 

2014 में केजरीवाल नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ अचानक से लड़ने बनारस पहुंचे थे. इसके लिए उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा देकर अपनी 49 दिनों की सरकार को ‘मज़बूत जन लोकपाल’ के नाम पर ख़ुद ही गिरा दिया था. लेकिन इसके पहले वो 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद उसी ‘भ्रष्ट कांग्रेस’ के साथ सरकार बना चुके थे जिस ‘भ्रष्ट कांग्रेस’ के ख़िलाफ़ उनकी पार्टी का जन्म हुआ था. ऐसे में एक तरफ तो नरेंद्र मोदी की लहर थी जिसमें ‘अच्छे दिन, विकास, 15 लाख़, दो करोड़ नौकरी’ जैसे ऐसे वादे थे जिनकी भावनाओं में जनता बह गई.

वहीं, अन्ना के मुंह मोड़ने और कांग्रेस को साथ जोड़ने की वजह से केजरीवाल के जन लोकपाल के मुद्दे की पोल खुल गई थी. उन्होंने यूपी में सबसे ज़्यादा अपील करने वाले जाति आधारित किसी मुद्दे पर बात ही नहीं की. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि मोदी के चमक-दमक वाले कैंपेन ने जाति आधारित मुद्दों पर बात के लिए जगह ही नहीं छोड़ी थी.

यही चीज़ चंद्रशेखर के पक्ष में नज़र आती है. जिस तरह 2014 में केजरीवाल के जन लोकपाल की पोल ख़ुली हुई थी वैसे ही 2019 में नरेंद्र मोदी के ज़्यादातर वादों की पोल खुल गई है. चंद्रशेखर के वादों की ठीक वैसे ही जांच नहीं की जा सकती जैसे 2014 में नरेंद्र मोदी के वादों की नहीं की जा सकती थी. ऐसे में कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की बातों और वादों के मामले में तो वो मोदी की 2014 वाली स्थिति में नज़र आते हैं. ऐसे में उन्होंने 13 प्वाइंट रोस्टर, सवर्णों को मिले 10 प्रतिशत आरक्षण, एस-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलितों द्वारा मध्य प्रदेश और राजस्थान में पिछले साल अप्रैल में किए गए प्रदर्शन और प्रदर्शन के दौरान दलितों पर सवर्णों द्वारा की गई कथित हिंसा से लेकर भीमा कोरे गांव तक जैसे जाति आधारित ऐसे मुद्दों को अपना हथियार बनाया है.


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ये वो मुद्दे हैं जिन्हें लेकर दलित समाज में बेचैनी है. मोदी लहर के बाद बदली राजनीति की वजह से जाति आधारित राजनीति करने वाली पार्टियां भी इनके ऊपर बोलने से कतराती रही हैं. वहीं, जिस हड़बड़ी में एससी-एसटी एक्ट से लेकर 13 प्वाइंट रोस्टर तक पर बीजेपी ने अध्यादेश लाने की तत्परता दिखाई है. इससे साफ है कि पार्टी पीएम की सीट वाले राज्य में इसकी अहमियत जानती है. ऐसे में मज़बूत जातिगत मुद्दों की पीठ पर सवार चंद्रशेखर पीएम मोदी के लिए केजरीवाल से बड़ा सिरदर्द साबित होंगे.

उम्र और भाषा दोनों का है साथ

एक तरफ जहां 2014 में अरविंद केजरीवाल 45 साल (अब वो 50 साल के हैं) के थे. वहीं, चंद्रशेखर की उम्र अभी महज़ 31 साल के करीब है. भारत में राहुल गांधी (48 साल) से लेकर नरेंद्र मोदी (68 साल) तक युवा होने और युवाओं के नाम पर राजनीति करते आए हैं. ऐसे में उम्र के मामले में चंद्रशेखर इन सबके ऊपर भारी हैं. वहीं, केजरीवाल से लेकर नरेंद्र मोदी तक को अच्छे वक्ता के तौर पर जाना जाता है. लेकिन अगर आपने चंद्रशेखर का भाषण नहीं सुना तो आपको इन्हें ज़रूर सुनना चाहिए. अपने समर्थकों के बीच जब वो शुद्ध हिंदी वाले ये भाषण देते हैं तो इसे मिलने वाली प्रतिक्रिया देखने लायक होती है.

कुछ-कुछ केजरीवाल जैसे भी हैं चंद्रशेखर

2011 में केजरीवाल ने जब ‘अन्ना के जनरल’ के तौर पर जन लोकपाल आंदोलन की शुरुआत की थी तो देश में एक नई राजनीति की उम्मीद जागी थी. 2011 से 2013 तक ऐसा लगा जैसे समाज और राजनीति में बदलाव की एक बयार सी बह रही है. आप के गठन तक लगा था कि लोकपाल ऑक्सीजन से ज़्यादा ज़रूरी है और इसके आते ही देश में सब ठीक हो जाएगा. लेकिन कांग्रेस के साथ पहली सरकार बनाने के बाद से केजरीवाल की राजनीति का पतन लगातार जारी है. 2011 से 2013 तक उनके पक्ष में जो बातें जाती थीं वह उनके बारे में किसी को ज़्यादा बातें पता नहीं होना, उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं होना और इसकी वजह से वादे करने और उन्हें निभाने का कोई ट्रैक रिकॉर्ड नहीं होना जैसी बातें शामिल थीं.

जाति आधारित राजनीति करने वाली पार्टियों के भ्रष्टाचार में डूबने और उनकी पार्टियों के परिवारवादी पार्टियों में बदलने के बाद चंद्रशेखर भी ‘पुराने केजरीवाल’ की तरह नई राजनीति की उम्मीद जगाते हैं. उनके पक्ष में भी ऐसी ही बातें जाती हैं कि उनके बारे में किसी को ज़्यादा पता नहीं है, उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है और इसकी वजह से वादे करने और उन्हें निभाने का उनका कोई ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है जिनके आधार पर उनकी राजनीति को परखा जा सके. बनारस में मोदी के ख़िलाफ़ लड़ाई में भी उनके पक्ष में यही बात जाती है कि वो साफ स्टेल के साथ भारतीय राजनीति के स्थापित नेता नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ लड़ने जा रहे हैं.

‘डीएम’ समीकरण और महागठबंधन का संभावित साथ

अपने भाषणों में चंद्रशेखर दलित और मुसलमानों की एकता की बात करते रहे हैं. ‘सेंसस 2011’ नाम की एक वेबसाइट के मुताबिक बनारस में मुसलमानों की आबादी 345,461 (कुल आबादी का 28.82 %) है. वहीं, शहर में दलित और ओबीसी भी इतनी निर्णायक भूमिका में हैं कि वो नतीज़ों को जिस करवट चाहें बिठा सकते हैं. चंद्रशेखर के ‘डीएम’ की अपील बिहार पर एक समय एकक्षत्र राज करने वाले लालू यादव के ‘एमवाई’ यानी मुस्लिम+यादव के सफल मंत्र के जैसी लगता है.


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वहीं, अपनी रैलियों और प्रेस से बातचीत में बार-बार उन्होंने महागठबंधन से उन्हें समर्थन करने की बात कही है. हाल ही में राज्य में कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी उनसे मिलने गई थीं जिससे दोनों के बीच राजनीतिक सांठ-गाठ को बल मिला था. ऐसे में अगर चुनाव से पहले चंद्रशेखर को महागठबंधन का साथ मिल जाता है तो ये बीजेपी के लिए ये किसी बुरे सपने से कम नहीं होगा. आपको याद होगा कि महागठबंधन जब एक साथ आया तो यूपी के उपचुनाव में बीजेपी को सीएम योगी आदित्यनाथ, डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य से लेकर कैराना जैसी सीटें तक हारनी पड़ी. इस पर तो बीजेपी के ख़िलाफ़ तबस्सुम नाम की एक मुस्लिम महिला ने जीत हासिल की थी.

हालांकि, मायावती की राजनीति ही दलितों पर आधारित है. ऐसे में ये संभव नहीं लगता कि उनकी बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और अखिलेश की समाजवादी पार्टी (सपा) का महागठबंधन चंद्रशेखर को किसी तरह का समर्थन देगा. लेकिन क्रिकेट की तरह राजनीति भी संभावनाओं का खेल है और इसमें कुछ भी हो सकता है. वहीं, एक बात तो तय है कि तमाम तथ्यों और चंद्रशेखर को हासिल ज़मीनी युवा जोश को देखते हुए यही लगता है कि पीएम मोदी के लिए ये लड़ाई केजरीवाल वाली लड़ाई जितनी आसान नहीं होगी.

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