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Tuesday, 19 November, 2024
होम2019 लोकसभा चुनावएक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच इतने अमीर कैसे हो जाते हैं नेता?

एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच इतने अमीर कैसे हो जाते हैं नेता?

सांसद और विधायक अपना वेतन खुद तय करते हैं और बिना किसी बहस के अपना वेतन बढ़ा लेते हैं. इस मायने में राजनीति एक अच्छा व्यवसाय या कमाऊ खेती भी है. अब वह सिर्फ सेवा भाव के लिए नहीं की जा रही है

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राजनीति को अभी भी पूरी तरह पेशा नहीं मान कर, समाज सेवा ही माना जाता है. लेकिन धीरे-धीरे इसकी यह छवि बदल रही है और बारीकी से देखने पर यह साफ हो जाता है कि यह बहुतेरे पेशे और उद्यम से ज्यादा कमाऊ भी है. नेताओं की संपत्ति में बढ़ोतरी हर तरह की मंदी और अर्थव्यवस्था की गति से अप्रभावित होती है. यह बात लोकसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों द्वारा नामांकन भरते वक्त की गई संपत्ति की घोषणा से उभर कर सामने आती है. नेताओं द्वारा नामांकन पत्र में दर्ज ब्योरे से यह पता चलता है कि उनकी संपत्ति में बगैर किसी तरह का उत्पादक श्रम किये, भारी बढ़ोत्तरी हुई है.

एक बात और जो उभर कर सामने आती है कि संपत्ति की इस बढ़ोत्तरी में किसी तरह का दलगत भेद नहीं. हां, मात्रा फर्क है. सत्ता से जुड़े भाजपा नेताओं की संपत्ति में पिछले पांच सालों में ज्यादा उछाल आया है.


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प्रस्तुत लेख में आंकड़े झारखंड राज्य के हैं, लेकिन ऐसे ही आंकड़े बाकी राज्यों के भी हैं. इसलिए इसे अखिल भारतीय ट्रेंड माना जाए. मसलन, पिछले पांच साल में झारखंड मुक्ति मोर्चा सुप्रीमो शिबू सोरेन की संपत्ति यदि दो गुनी हुई है तो भाजपा के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ की संपत्ति में पांच गुना की वृद्धि हुई है. झामुमो के ही एक अन्य नेता और प्रत्याशी चंपई सोरेन की संपत्ति में यदि दो गुना की वृद्धि हुई तो पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता अर्जुन मुंडा की संपत्ति में चार गुना की वृद्धि हुई है.

शिबू सोरेन की संपत्ति 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त 4.17 करोड़ रुपये थी, जो अब बढ़ कर 7.26 करोड़ रुपये हो चुकी है, लक्ष्मण गिलुआ की संपत्ति 12.49 लाख से बढ़ कर 62.42 लाख रुपये, चंद्रप्रकाश चौधरी की संपत्ति 20.14 लाख से बढ़ कर 54.36 लाख रुपये, चंपई सोरेन की संपत्ति 1.62 करोड़ से बढ़ कर 2.28 करोड़ रुपये और पीएन सिंह की संपत्ति 2.40 करोड़ से बढ़ कर पौने तीन करोड़ रुपये के करीब हो गई है.


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वैसे, झारखंड के सबसे मालदार प्रत्याशियों में गिनती होती है भाजपा नेता और हजारीबाग के प्रत्याशी जयंत सिन्हा की जिनकी संपत्ति पिछले पांच साल में 51.23 करोड़ रुपये से बढ़ कर 77.07 करोड़ रुपये हो गई है. साधारण परिवार से आने वाले भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री और इस बार खूंटी के प्रत्याशी अर्जुन मुंडा की संपत्ति पिछले पांच साल में 2.98 करोड़ रुपये से बढ़ कर 8.39 करोड़ रुपये हो गई है.

यहां यह चर्चा करना प्रासांगिक होगा कि राजनीति को पहले समाज सेवा माना जाता था. तब वेतन आदि बेहद मामूली थे. यहां तक कि राजधानियों में उन्हें आवासीय सुविधा के बजाय सत्र के दौरान रहने की सुविधा दी जाती थी. ज्यादातर सांसद तब संसद सचिवालय द्वारा उपलब्ध कराई गई बसों में घर से सदन तक आते थे. लेकिन चूंकि वेतन भत्ते आदि में वृद्धि का अधिकार खुद संसद और विधान सभाओं को प्राप्त है, इसलिए उन्होंने इस अधिकार का उपयोग करते हुए वेतन-सुविधाओं में भारी इजाफा किया. एक सांसद को प्रतिमाह 50 हजार रुपये का वेतन, सत्र चलने के दौरान दो हजार रुपये प्रति दिन का भत्ता, क्षेत्र में काम करने के लिए 45 हजार रुपये प्रतिमाह, कार्यालय खर्च के रूप में प्रतिमाह 45 हजार रुपये, सहायक रखने के लिए 30 हजार रुपये प्रति माह, रेल सफर के लिए फ्री पास, एक चौथाई खर्च में पत्नी के साथ हवाई यात्रा आदि मिलता है. सबसे मजेदार भत्ता है 50 हजार रुपये प्रति तिमाही, यानी, अमूमन प्रतिदिन 600 रुपये कपड़ों की धुलाई के लिए. और इन सब के लिए कोई इनकम टैक्स देय नहीं.

उन्हें सांसद मद में 5 करोड़ रुपये प्रति वर्ष दिए जाते हैं. वैसे यह मद उनकी अनुशंसा पर उनके बताए योजनाओं पर खर्च किया जाता है. इस सांसद निधि को लेकर बहस चलती रही है कि यह कितना उपयोगी है. क्योंकि इस निधि का सार्थक उपयोग नहीं दिखाई देता फिर कदाचार की बात जाने ही दें. ईमानदारी से भी सांसद या विधायकी कैरियर के लिहाज से अब बहुत पीछे नहीं रह गई है. राजनीति को अब सामाजिक सेवा की जगह एक पेशा मान कर भी यदि लोग काम करें तो इसमें बुरा लगने वाली कोई बात नहीं. जन प्रतिनिधि ब्यूरोक्रेसी से अपने वेतन मान की तुलना कर बढ़ोत्तरी की मांग करते हैं.


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वैसे, वेतन और भत्ते ज्यादातर नेताओं के लिए आमदनी का महज एक और स्रोत हैं. ज्यादातर सांसद कोई और पेशा, व्यवसाय या अन्य कार्य भी करते हैं और कई को अपनी जायदाद से किराया या अन्य निवेश से मुनाफा भी आता है. ध्यान रखें कि ये सिर्फ वैध कमाई की बात है क्योंकि आंकड़ों में तो सिर्फ यही दर्ज होता है.

झारखंड में एक मुफीद पेशा मान कर कई पढ़े लिखे युवाओं ने राजनीतिक काम करना शुरू भी कर दिया है. पहले अपने क्षेत्र का चुनाव, फिर कुछ पद यात्रायें, लुभावने और चित्ताकर्षक नारे आदि और फिर चुनाव में उतरने की तैयारी. यह अच्छा ही होगा कि सामाजिक रूप से जागरूक और पढ़े लिखे युवा इस दिशा में प्रवृत्त हों, वरना अब तक तो राजनीति कैरियर के लिहाज से विफल लेकिन दबंग किस्म के लोगों का ही क्षेत्र माना जाता रहा है.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष उनका चर्चित उपन्यास है)

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